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आचार्य श्रीराम शर्मा >> सुनसान के सहचर

सुनसान के सहचर

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :104
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15534
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सुनसान के सहचर

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ठण्डे पहाड़ के गर्म सोते


कई दिन से शरीर को सुन्न कर देने वाले बर्फीले ठण्डे पानी से स्नान करते आ रहे थे। किसी प्रकार हिम्मत बाँधकर एक-दो डुबकी तो लगा लेते थे, पर जाड़े के मारे शरीर को ठीक तरह रगड़ना और उस तरह स्नान करना नहीं बन पड़ रहा था, जैसा देह की सफाई की दृष्टि से आवश्यक है। आगे जगननी चट्टी पर पहुँचे, तो पहाड़ के ऊपर वाले तीन तप्त कुण्डों का पता चला, जहाँ से गरम पानी निकलता है। ऐसा सुयोग पाकर मल-मलकर स्नान करने की इच्छा प्रबल हो गई। गंगा का पुल पार कर ऊँची चढ़ाई की टेकरी को कई जगह बैठ-बैठकर हाँफते-हाँफते पार किया और तप्त कुण्डों पर जा पहुँचे। बराबर-बराबर तीन कुण्ड थे, एक का पानी इतना गरम था कि उसमें नहाना तो दूर, हाथ दे सकना भी कठिन था। बताया गया कि यदि चावल दाल की पोटली बाँधकर इस कुण्ड में डाल दी जाय तो वह खिचड़ी कुछ देर में पक जाती है। यह प्रयोग तो हम न कर सके, पर पास वाले दूसरे कुण्ड में जिसका पानी सदा गरम रहता है, खूब मल-मलकर स्नान किया और हफ्तों की अधूरी आकांक्षा पूरी की, कपड़े भी गरम पानी से खूब धुले, अच्छे साफ हुए। 

सोचता हूँ कि पहाड़ों पर बर्फ गिरती रहती है और छाती में से झरने वाले झरने सदा बर्फ सा ठण्डा जल प्रवाहित ही करते हैं, उनमें कहीं-कहीं ऐसे उष्ण सोते क्यों फूट पड़ते हैं? मालूम होता है कि पर्वत के भीतर कोई गन्धक की परत है वही अपने समीप से गुजरने वाली जलधारा को असह्य उष्णता दे देती है। इसी तरह किसी सज्जन में अनेक शीतल शांतिदायक गुण होने से उसका व्यवहार ठण्डे सोतों की तरह शीतल हो सकता है, पर यदि दुर्बुद्धि की एक भी परत छिपी हो, तो उसकी गर्मी गरम स्रोतों की तरह बाहर फूट पड़ती है और वह छिपती नहीं। 

जो पर्वत अपनी शीतलता को अक्षुण्य बनाए रहना चाहते हैं, उन्हें इस प्रकार की गन्धक जैसी विषैली पर्तों को बाहर निकाल फेंकना चाहिए। एक दूसरा कारण इन तप्त कुण्डों का और भी हो सकता है कि शीतल पर्वत अपने भीतर के इस विकार को निकाल-निकाल कर बाहर फेंक रहा हो और अपनी दुर्बलता को छिपाने की अपेक्षा सबके सामने प्रकट कर रहा हो- जिससे उसे कपटी और ढोंगी न कहा जा सके। दुर्गुणों का होना बुरी बात है, पर उन्हें छिपाना उससे भी बुरा है-इस तथ्य को यह पर्वत जानते हैं, यदि मनुष्य भी इसे जान लेता तो कितना अच्छा होता। 

यह समझ में आता है कि हमारे जैसे ठंडे स्नान से खिन्न व्यक्तियों की गरम जल से स्नान कराने की सुविधा और आवश्यकता का ध्यान रखते हुए पर्वत ने अपने भीतर बची थोड़ी गर्मी को बाहर निकालकर रख दिया हो। बाहर से तो वह भी ठण्डा हो चला, फिर भीतर कुछ गर्मी बच गई होगी। पर्वत सोचता होगा जब सारा ही ठण्डा हो चलो, तो इस थोड़ी-सी गर्मी को बचाकर ही क्या करूंगा. इसे भी क्यों न जरूरतमन्दों को दे डालें। उस आत्मदानी पर्वत की तरह कोई व्यक्ति भी ऐसे हो सकते हैं, जो स्वयं अभावग्रस्त, कष्टसाध्य जीवन व्यतीत करते हों और इतने पर भी जो शक्ति बची हो उसे भी जनहित में लगाकर इन तप्त कुण्डों का आदर्श उपस्थित करें। इस शीतप्रदेश का वह तप्त कुण्ड भुलाये नहीं भूलेगा। मेरे जैसे हजारों यात्री उसका गुणगान करते रहेंगे, उसमें त्याग भी तो असाधारण है। स्वयं ठण्डे रहकर दूसरों के लिए गर्मी प्रदान करना, भूखे रहकर दूसरों की रोटी जुटाने के समान है। सोचता हूँ। बुद्धिहीन जड़-पर्वत जब इतना कर सकता है तो क्या बुद्धिमान् बनने वाले मनुष्य को केवल स्वार्थी ही रहना चाहिए?

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    अनुक्रम

  1. हमारा अज्ञात वास और तप साधना का उद्देश्य
  2. हिमालय में प्रवेश : सँकरी पगडण्डी
  3. चाँदी के पहाड़
  4. पीली मक्खियाँ
  5. ठण्डे पहाड़ के गर्म सोते
  6. आलू का भालू
  7. रोते पहाड़
  8. लदी हुई बकरी
  9. प्रकृति के रुद्राभिषेक
  10. मील का पत्थर
  11. अपने और पराये
  12. स्वल्प से सन्तोष
  13. गर्जन-तर्जन करती भेरों घाटी
  14. सीधे और टेढ़े पेड़
  15. पत्तीदार साग
  16. बादलों तक जा पहुँचे
  17. जंगली सेव
  18. सँभल कर चलने वाले खच्चर
  19. गोमुख के दर्शन
  20. तपोवन का मुख्य दर्शन
  21. सुनसान की झोपड़ी
  22. सुनसान के सहचर
  23. विश्व-समाज की सदस्यता
  24. लक्ष्य पूर्ति की प्रतीक्षा
  25. हमारी जीवन साधना के अन्तरंग पक्ष-पहलू
  26. हमारे दृश्य-जीवन की अदृश्य अनुभूतिया

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