आचार्य श्रीराम शर्मा >> सुनसान के सहचर सुनसान के सहचरश्रीराम शर्मा आचार्य
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सुनसान के सहचर
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गर्जन-तर्जन करती भेरों घाटी
आज भेरों घाटी पार की। तिब्बत से व्यापार करने के लिए तैलंगघाटी का रास्ता यहीं से है। हर्षिल के जाड़ और खम्भा व्यापारी इसी रास्ते तिब्बत के लिए माल बेचने ले जाते हैं और बदले में उधर से ऊन आदि लाते हैं। चढ़ाई बहुत कड़ी होने के कारण थोड़ी-थोड़ी दूर चलने पर ही साँस फूलने लगती थी और बार-बार बैठने एवं सुस्ताने की आवश्यकता अनुभव होती थी।
पहाड़ की चट्टान के नीचे बैठा सुस्ता रहा था। नीचे गंगा इतने जोर से गर्जन कर रही थी, जितनी रास्ते भर में अन्यत्र नहीं सुनी। पानी के छीटे उछलकर तीस-चालीस फुट ऊँचे तक आ रहे थे। इतना गर्जन-तर्जन, इतना जोश, इतना तीव्र प्रवाह यहाँ क्यों है?यह जानने की उत्सुकता बढ़ी और ध्यानपूर्वक नीचे झाँक कर देखा, दूर-दूर तक दृष्टि दौड़ाई।
दिखाई दिया कि यहाँ गंगा दोनों ओर सटे पहाड़ों के बीच बहुत छोटी-सी चौड़ाई में होकर गुजरती हैं। चौड़ाई मुश्किल से पन्द्रह-बीस फुट होगी। इतनी बड़ी जल राशि इतनी तंग जगह में होकर गुजरे तो वहाँ प्रवाह की इतनी तीव्रता होनी ही चाहिए। फिर उसी मार्ग में कई चट्टानें पड़ी थीं, जिनसे जलधारा तेजी से टकराती थी; उस टकराहट से ही घोर शब्द हो रहा था। इतनी ऊँची उछालें ईंटों के रूप में मार रहा था। गंगा के प्रचण्ड प्रवाह का दृश्य यहाँ देखते ही बनता था।
सोचता हूँ कि सोरों आदि स्थानों में जहाँ मीलों की चौड़ाई गंगा की है, वहाँ जलधारा धीमे-धीमे बहती रहती है, वहाँ प्रवाह में न प्रचण्डता होती है न तीव्रता; पर इस छोटी घाटी के तंग दायरे में होकर गुजरने के कारण जलधारा इतनी तीव्र गति से बही। मनुष्य का जीवन विभिन्न क्षेत्रों में बँटा रहता है वह सुखी रहता है। उसमें कुछ विशेषता पैदा नहीं हो पाती, पर जब विशिष्ट लक्ष्य को लेकर कोई व्यक्ति उस सीमित क्षेत्र में ही अपनी सारी शक्तियों को केन्द्रित कर देता है, तो उसके द्वारा आश्चर्यजनक उत्साहवर्धक परिणाम उत्पन्न होते देखे जाते हैं। मनुष्य यदि अपने कार्यक्षेत्र को बहुत फैलाने, अनेक अधूरे काम करने की अपेक्षा अपने लिए एक विशेष कार्यक्षेत्र चुन ले तो क्या वह भी इस तंग घाटी में गुजरते समय उछलती गंगा की तरह आगे बढ़ सकता है?
जलधारा के बीच पड़े हुए शिलाखण्ड पानी को टकराने के लिए विवश कर रहे थे। इसी संघर्ष में गर्जन-तर्जन हो रहा था और छोटे-छोटे रूई के गुब्बारे के बने पहाड़ की तरह ऊपर उठ रहे थे। सोचता हूँ यदि कठिनाइयाँ जीवन में न हों, तो व्यक्ति की विशेषताएँ बिना प्रकट हुए ही रह जायें। टकराने से शक्ति उत्पन्न होने का सिद्धान्त एक सुनिश्चित तथ्य है। आराम का शौक-मौज का जीवन, विलासी जीवन निर्जीवों से कुछ ही ऊँचा माना जा सकता है। कष्ट सहिष्णुता, तितीक्षा, तपश्चर्या एवं प्रतिरोधों में बिना खिन्नता मन में लाए वीरोचित भाव से निपटने का साहस यदि मनुष्य अपने भीतर एकत्रित कर ले, तो उसकी कीर्ति भी उस आज के स्थान की भाँति गर्जन-तर्जन करती हुई दिग्दिगन्त में व्यापक हो सकती है। उसका विशेषतायुक्त व्यक्तित्व छींटों के उड़ते हुए फुब्बारे की तरह से ही दिखाई दे सकता है। गंगा डरती नहीं, न शिकायत करती है, यह तंगी में होकर गुजरती है, मार्ग रोकने वाले रोड़ों से घबराती नहीं वरन् उनसे टकराती हुई अपना रास्ता स्वयं बनाती है। काश ! हमारी अन्तः चेतना भी ऐसे प्रबल वेग से परिपूर्ण हुई होती, तो व्यक्तित्व के निखरने का कितना अमूल्य अवसर हाथ लगता।
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