आचार्य श्रीराम शर्मा >> सुनसान के सहचर सुनसान के सहचरश्रीराम शर्मा आचार्य
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सुनसान के सहचर
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अपने और पराये
लगातार की यात्रा ने पैरों में छाले डाल दिये। आज ध्यानपूर्वक पैरों को देखा, तो दोनों पैरों में कुल मिलाकर छोटे-बड़े दस छाले निकले। कपड़े का नया जूता इसलिए पहना था कि कठिन रास्ते में मदद देगा, पर भले मानस ने भी दो जगह काट खाया। इन छाले और जख्मों में से जो कुछ कच्चे थे वे सफेद और जिनमें पानी पड़ गया वहाँ वे पीले हो गए हैं। चलने में दर्द करते हैं और दुखते हैं। लगता है, पैर अपने सफेद पीले दाँत निकाल कर चलने में लाचारी प्रकट कर रहे हैं।
मंजिल दूर है। गुरु पूर्णिमा तक हर हालत में नियत स्थान पर पहुँचना है। पैर अभी से दाँत दिखायेंगे तो कैसे बनेगी? लँगड़ा-लँगड़ा कर कल तो किसी प्रकार चल लिया गया, पर आज मुश्किल मालूम पड़ती है। दो-तीन छाले फूट गये, जख्म बनते जा रहे हैं। बढ़ गए तो चलना कठिन हो जायेगा और न चला जा सका तो नियत समय तक लक्ष्य पर पहुँचना कैसे सम्भव होगा? इस चिन्ता ने दिन भर परेशान रखा।
नंगे पैर चलना भी कठिन है। रास्ते भर ऐसी पथरीली कंकड़ियाँ बिछी हुई हैं कि वे जहाँ पैर में गड़ जाती हैं, काँटे की तरह दर्द करती हैं। एक उपाय करना पड़ा। आधी धोती फाड़कर दो टुकड़े किये गये और उन्हें पैरों से बाँध दिया गया। जूते उतारकर थैले में रख लिए। काम चल गया। धीरे-धीरे रास्ता कटने लगा।
एक ओर तो यह अपने पैर हैं जो आड़े वक्त में दाँत दिखाने लगे दूसरी ओर यह बाँस की लाठी है, जो बेचारी न जाने कहाँ जन्मी कहाँ बड़ी हुई और कहाँ से साथ हो ली, सगे भाई जैसा काम दे रही है। जहाँ चढ़ाई आती है, वहाँ यह तीसरे पैर का काम करती है। जैसे बूढ़े बीमार को सहृदयी कुटुम्बी अपने कन्धे का सहारा देकर आगे ले चलता है, वैसे ही थकान से जब शरीर चूर-चूर होता है, तब यह लाठी सगे-सम्बन्धी जैसा ही सहारा देती है।
गंगनानी चट्टी से आगे जहाँ वर्षा के कारण बुरी तरह फिसलन हो रही थी। एक ओर पहाड़ दूसरी ओर गंगा का तंग रास्ता-उस कठिन समय में इस लाठी ने ही कदम-कदम पर जीवन मृत्यु की पहेली को सुलझाया। उसने भी यदि जूतों की तरह साथ छोड़ दिया होता तो कौन जाने आज यह पंक्तियाँ लिखने वाली कलम और अँगुलियों का कहीं पता भी न होता।
बड़ी आशा के साथ लिए हुए जूते ने काट खाया। जिन पैरों पर बहुत भरोसा था, उनने भी दाँत दिखा दिए, पर वह कुछ पैसे की लाठी इतनी काम आई कि कृतज्ञता से इसका गुणानुवाद गाते रहने को जी चाहता है।
अपनों से आशा थी, पर उनने साथ नहीं दिया। इस पर झुंझलाहट आ रही थी। दूसरे ही क्षण पराई लगने वाली लाठी की वफादारी याद आ गई। चेहरा प्रसन्नता से खिल गया। जिनने अड़चन पैदा की उनकी वजाय उन्हीं का स्मरण क्यों न करू ज़िसकी उदारता सहायता के बल पर यहाँ तक आ पहुँचा हूँ। अपने पराये की क्या सोचें। उस ईश्वर की दृष्टि में सभी अपने, सभी पराये हैं।
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