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आचार्य श्रीराम शर्मा >> सफलता के सात सूत्र साधन

सफलता के सात सूत्र साधन

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :48
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15531
आईएसबीएन :0

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विद्वानों ने इन सात साधनों को प्रमुख स्थान दिया है, वे हैं...

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सफलता के लिए आवश्यक सात साधन


ऐसे न जाने कितनी व्यवसायी, दुकानदार, मजदूर, कारीगर, अध्यापक व क्लर्क आदि काम करने वाले लोग देखने को मिलते हैं, जिन्होंने अपने काम अपने पद अथवा अपनी स्थिति में रंचमात्र भी उन्नति नहीं की। वे आज भी उसी स्थान, उसी दशा में घिस-घिस करते हुए पड़े हैं, जहाँ पर दस-बीस साल पहले थे। जबकि बहुत-से न जाने कहाँ से कहाँ जा पहुँचे हैं। इस उन्नति एवं अवनति के पीछे केवल एक ही कारण काम कर रहा होता है और वह है उन्नति करने की इच्छा-अनिच्छा।

यथास्थान घिस-घिस करते रहने वालों में उन्नति करने, नई सफलताएँ पाने की इच्छा का अभाव रहता है। सच्ची इच्छा में प्रेरणा की शक्ति भरी रहती है। जब मनुष्य एक अच्छी स्थिति पाने, स्थान से आगे बढ़ने, काम को ऊपर उठाने के लिए तड़प उठता है, व्यग्र एवं बेचैन हो जाता है, तब उसमें एक लगन जाग उठती है। वह अपनी तरक्की के साधन खोजने उपकरण इकट्ठे करने और मार्ग निकालने के लिए प्रयत्नशील हो उठता है। सच्ची इच्छा, यथार्थ आकांक्षा से प्रेरित व्यक्ति रात-दिन, उठते-बैठते, खाते-पीते एवं व्यवहार करते समय भी अपने लक्ष्य के प्रति जागरूक रहता है। वह कहीं भी क्यों न हो कुछ क्यों न करता हो उसके लक्ष्य की तस्वीर सदैव उसके सामने रहती है। जाग्रत अवस्था में तो वह अपने लक्ष्य के प्रति विचार एवं क्रियाशील रहता ही है, सोते में भी लगनशील व्यक्ति अपने लक्ष्य के ही सपने देखा करता है। अपने लक्ष्य के प्रति ईमानदार व्यक्ति उसके साथ तन-मन से एकाकार हो जाता है।

इच्छा तथा जिज्ञासा जीवन के लक्षण हैं। जिसमें इच्छा का प्रस्फुटन होता है, जिज्ञासा एवं उत्सुकता का जन्म होता रहता है, नित्य नए कदम बढ़ाने, तरक्की करने की उत्सुकता और नित्य नई बातें सीखने ज्ञान एवं योग्यताएँ प्राप्त करने की जिज्ञासा जाग्रत होती रहती है, वह ही यथार्थ रूप में जीवित हैं। एक स्थान पर पड़े रहना, एक स्थिति में स्थिर रहना, एक ही दशा को स्वीकार किए रहना जड़ता का चिन्ह है। पत्थर, पहाड़ आदि जड़ वस्तुएँ हैं। यह जहाँ जिस स्थिति में पड़ जाती हैं, पड़ी रहती हैं। इनमें जीवन तत्त्व का सर्वथा अभाव होता है। पेड़, पौधे आदि यों चेतन की तुलना में जड ही माने जाते हैं। पर उनमें जीवन तत्व का अभाव नहीं होता। यद्यपि वे एक स्थान से उठकर दूसरे स्थान पर स्वयं नहीं जा सकते तब भी दिन-दिन बढते और विकास करते रहते हैं। नए-नए फूल-फल उगाते रहते हैं। पशु यद्यपि चेतन श्रेणी में माने गए हैं तथापि वे मानसिक रूप से जड़ ही होते हैं। नैसर्गिक इच्छाओं की प्रेरणा के अतिरिक्त उनमें और किसी प्रकार की इच्छा का स्फुरण नहीं होता। नई कल्पनाएँ, नए विचार अथवा नूतन जीवन का उनसे कोई परिचय नहीं होता। वे जिस स्थिति में आदिकाल में थे, आज भी उस स्थिति में ही रह रहे हैं।

अपनी पूर्व स्थिति में यथा स्थान पड़े रहने वाले व्यक्ति एक प्रकार से ऐसी मानसिक जड़ता से आक्रांत रहते हैं। जो काम, जिस श्रेणी में उन्होंने प्रारंभ किया, उसी प्रकार उसी स्थिति में करते हैं। उसे विकसित करने, आगे बढाने अथवा उसमें कोई अवांछनीय परिवर्तन लाने की जिज्ञासा उनमें होती ही नहीं। वे प्रातःकाल उठे, यंत्रवत् अपने आवश्यक नित्य-कर्म निपटाए और बिना किसी उल्लास अथवा नई आशा से काम पर चले गए, उसी दायरें उसी परिधि में चक्कर लगाया और शाम को वापिस आ गए। किसी दिन भी न तो वे कोई नई बात सोचते हैं और न किसी नवीनता का पुट प्रकट करते हैं। कार्य करने की यह रुचि और यह पद्धति घोर मानसिक जड़ता की सूचक है।

ऐसी मानसिक जड़ता के रोगी व्यक्ति ही समाज में स्थगन, अरुचिता तथा अपरूपता को प्रश्रय देने वाले होते हैं। ऐसे ही व्यक्तियों को देखकर अन्य लोग किसी समाज की सभ्यता, असभ्यता, उन्नति तथा असमानता एवं विषमता का अंदाजा लगाते हैं और उसी के अनुसार उसका महत्त्व एवं मूल्यांकन करते हैं। पुरुषार्थी, परिश्रमी तथा कल्पनाशील व्यक्ति समाज में जितने सौंदर्य का अभिवर्धन करते हैं, उसे उस प्रकार के मानसिक जड़ लोग घटा देते हैं। समाज की अवमानना का दोष बहुत कुछ ऐसे ही जीवित मृत लोगों पर रक्खा जा सकता है।

अनुन्नतिशील व्यक्तियों की संतानें उचित मार्गदर्शन मिलने पर ही इस पैतृक दोष को त्यागकर उन्नतिशील हो पाती हैं। अन्यथा, वे भी अधिकतर यह मानसिक जड़ता विरासत में पाकर उसकी परंपरा बनाए रखती हैं। इसके लिए उन बेचारों को कोई दोष भी नहीं दिया जा सकता। वे तो स्वाभावतः पिता का ही अनुसरण करेंगे। जो कुछ सामने देखेंगे और जिन संस्कारों को पाएँगे, उन्हीं के अनुसार, गतिशील होंगे। जिस व्यवसायी के पास कारोबार को आगे बढ़ाने की न तो कल्पना है और न इच्छा, जिज्ञासा, वह भला अपने पुत्र को अपनी प्रेरणा दे भी कैसे सकता है ? और यदि पुत्र अपनी किसी मौलिकता को प्रकट करता, तो परिवर्तन अथवा मोड़ लाने का साहस करता भी है तो उसका असाहसी पिता हानि अथवा बिगाड़ के भय से उसे निरुत्साहित करने में ही बुद्धिमानी समझता है। आगे निकलकर, पैर बढ़ाकर, परिवर्तन लाकर अथवा खतरा उठाने का साहस दिखलाकर व्यवसाय की उन्नति का प्रयत्न करना, वह अनियंत्रित उच्छृंखलता के समान अनुचित एवं अवांछनीय मानता है। उसे तो उसी अनुन्नत दशा में पड़े रहकर, उसी फटे-पुराने व्यवसाय को उसी प्रकार घिस-घिस कर चलाते रहने में ही सुरक्षा एवं कल्याण दिखाई देता है। आलस्यजन्य, तामसी संतोष में वह अपनी आध्यात्मिक खूबी समझता है। फटा-पुराना, गंदा-गलीज पहनकर, उल्टा-सीधा, मोटा-झोटा पेट अधा पेट खा-पीकर और टूटे-फूटे, मैले-कुचेले साधन शून्य घर में चुपचाप बिना किसी उत्साह-उल्लास के जिंदगी काट डालने में बड़ी बहादुरी समझते हैं, जबकि यह आलस्य एवं जड़ताजन्य अभाव का अभिशाप है।

यदि ऐसे निरीह अथवा निस्पृह व्यक्तियों का मनोऽन्वेषण किया जाए तो न जाने इस मरघट में कामनाओं की कितनी सडी लाशें ईष्र्या, द्वेष, तृष्णा एवं वितृष्णाओं, डाक एवं दुर्भावनाओं के कितने काले विषधर निकल पड़े। अपने दुर्गुणों के कारण अभाव एवं दयनीयता से ग्रस्त व्यक्ति के मन में आध्यात्मिक महनीयता का कोई अंकुर कैसे उपज सकता है ? जो अकर्मण्य अथवा असाहसी व्यक्ति अपना लोक नहीं सुधार सकता वह परलोक के सुधार में तत्पर माना जाए यह जो अजीब-सी बात है। जो इस लोक में सफलताओं के नए-नए दिगंत छू नहीं सका, वह उस लोक के सुधारने, वहाँ सफलता पाने में क्या समर्थ होगा ?

जीवन-जड़ मनुष्य अपरूपता एवं असंगतियों के बड़े पोषक होते हैं और उन्हें अपने इस दुर्गुण में संकोच भी नहीं होता। जिस कुरूप दशा में घर में हैं उसी में दफ्तर, दुकान अथवा सभा निमंत्रणों में चले गए। देश काल के अनुसार अपनी दशा सुधारने की जरा भी जरूरत नहीं समझते, उन्हें उस स्थान में एक धब्बे की तरह चिपक जाने में जरा भी ग्लानि नहीं होती। पास-पडौस आमने-सामने की दुकानें मकान तरक्की कर रहे हैं, उन्नत, विकसित एवं सुंदर होते जा रहे हैं किंतु उनके बीच वे एक विजातीय तत्त्व की तरह विद्रूपता तथा विसंगति को लिए स्थापित हैं। उन्हें यह सब देखकर भी कुछ परिवर्तन लाने का विकास अथवा सुधार करने का उत्साह नहीं होता। माना उनके साधन की ससीमता और समाज उन्हें मजबूर करता है, वे ऊँची-ऊँची अट्टालिकाएँ बड़े-बड़े सौध-प्रसादों का निर्माण नहीं कर सकते किंतु अपने घर दुकानों को झाड़-बुहार कर लीप-पोत कर, झाड़-झंखाड़ और कूड़ा-कर्कट हटाकर, उनकी खपरैल, छप्पर अथवा छानों को व्यवस्थित तथा सहेज सुधार कर साफ-सुथरा तो बना ही सकते हैं।

वैसे सत्य बात तो यह है कि जब कोई एक व्यक्ति अपने व्यवसाय तथा कारोबार को आगे बढ़ाकर साधन संपन्न बन सकता है, तब दूसरा क्यों नहीं बन सकता। किंतु कठिनाई तो यह है कि जड़ात्मा व्यक्तियों में उन्नति की कोई अनुभूति नहीं होती। वे तो भाग्य के भरोसे यथा स्थान पड़े-पड़े घिस-घिस ही करते रहते हैं। प्रयत्न शून्य रहकर भाग्य का भरोसा रखने वालों के हिस्से जो दुर्भाग्य नाम का दंड निश्चित रहता है वह उन्हें मिलता है। मौलिक रूप से न सही देखा-देखी ही यदि ऐसे व्यक्ति उन्नति का कुछ प्रयत्न करें तब भी तो बहुत कुछ हो सकता है, किंतु कहाँ?

व्यवसाय छोटा है, दुकान कम चलती है, माल की कमी है—यह बहाना कोई अर्थ नहीं रखता। व्यवसाय छोटे-से ही बड़ा होता है। दुकान उपयुक्तता के आधार पर ही चलती है और माल साख तथा सद्भावना के भरोसे मिलता है। बाजार में जाइए, लोगों से संपर्क करिए लेन-देन का व्यवहार बढ़ाइए, वचन का पालन करिए और देखिए कि आपको माल की कमी नहीं रहती ! दुकान समय से खोलिए, अच्छा और खरा माल रखिए, उचित दाम लीजिए और ग्राहकों से मृदु विनम्र व्यवहार कीजिए। खुद साफ रहिए दुकान की हर चीज साफ रखिए। आकर्षक ढंग से सजाकर रखिए और वह चीजें अवश्य रखिए जिनकी माँग रहती है और तब देखिए कि आपकी दुकान चलती है या नहीं। आपके पास जो कुछ है, लोग वही खरीदें अथवा आप जो बेचना चाहें लोग वही खरीदें तो यह नीति उल्टी है। आप वह चीजें रखिए जिनकी लोगों को जरूरत है और वह बेचिए जिन्हें ग्राहक खरीदना चाहें। ग्राहकों की आवश्यकता एवं रुचि के साथ साम्य रखने वाला दुकानदार सफल और उनसे वैषम्य रखने वाला निश्चित रूप से असफल होता है।

इसी प्रकार मजदूर अध्यापक अथवा क्लर्क के विषय में भी यही बात है। बिना उन्नति की जिज्ञासा जगाए तरक्की नहीं हो सकती। मजदूर को चाहिए कि वह ठेले की तरह ढोने के काम में ही संतुष्ट न रहे। अपने काम को इतनी रुचि तत्परता तथा सावधानी के साथ करे कि स्पष्ट झलकने लगे कि यह काम पूरे मनोयोग से किया गया है। माल को ठीक से उठाना, यथास्थान ठीक से रखना कम से कम जगह में अधिक से अधिक माल सजा देना। बिना टोके और बिना रोके समय से अपना पूरा काम करना, मजदूर के वे गुण हैं जो उसे मेट बनवा सकते हैं। मजदूरों को ठेकेदार कर सकते हैं, वेतन तथा पद वृद्धि कर सकते हैं, तात्पर्य यह है कि इच्छित सफलताएँ प्राप्त कर सकते हैं।

प्राइमरी का एक मिडिल पास अध्यापक ट्रेनिंग करके अपनी पदोन्नति कर सकता है, इंट्रेन्स, एफ. ए, बी, तथा एम. ए. पास करके विद्यालयों व कॉलिजों में जा सकता है। एक से दो विषयों में अधिकार प्राप्त कर अपनी योग्यता बढ़ा सकता है। अपने विषय में पूर्णता प्राप्त कर दूसरों की दृष्टि में ऊपर उठ सकता है। विद्यालय के अन्य कार्यों में दक्षता प्राप्त कर प्रिंसिपल अथवा प्रधानाचार्य का दाहिना हाथ बन सकता है आदि ऐसी उन्नतियाँ हैं, जो कोई भी अध्यापक सहज में ही उपलब्ध कर सकता है।

क्लर्क जैसे सीमित स्थान में भी उन्नति कर सकने की कुछ कम संभावनाएँ नहीं हैं। साधारण क्लर्क टाइप सीखकर उपयोगिता बढ़ा सकता है। अपने काउंटर के अतिरिक्त अन्य स्थानों का काम सीखकर अपना विस्तार कर सकता है। चिट्ठी-पत्री, जानकारी, सूचना, नियमों तथा विषय में निपुणता प्राप्त कर अपने अधिकारियों निर्भर कर सकता है।

तात्पर्य यह है कि उन्नति एवं सफ़लताओं का आधार कोई स्थान, पद अथवा अवसर नहीं है उसका आधार है जिज्ञासा, इच्छा, नवीनता तथा अखंड परिश्रम एवं लगन ! यथा स्थान पड़े-पड़े घिस-घिस करते रहना जड़ता का लक्षण है। अपनी उन्नति का प्रयत्न न करना न केवल अपने साथ ही बल्कि पुत्रों तथा समाज के साथ भी अन्याय करना है। समाज की शोभा उसकी सफलता एवं संपन्नता हमारी उन्नति एवं विकास पर निर्भर है। अस्तु, हम आज जहाँ पर पड़े हैं, वहाँ से आगे उठने में तन, मन, धन भर कोई कसर उठा नहीं रखनी चाहिए। सफलता निश्चय ही हमारे चरण चूमेगी।

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    अनुक्रम

  1. सफलता के लिए क्या करें? क्या न करें?
  2. सफलता की सही कसौटी
  3. असफलता से निराश न हों
  4. प्रयत्न और परिस्थितियाँ
  5. अहंकार और असावधानी पर नियंत्रण रहे
  6. सफलता के लिए आवश्यक सात साधन
  7. सात साधन
  8. सतत कर्मशील रहें
  9. आध्यात्मिक और अनवरत श्रम जरूरी
  10. पुरुषार्थी बनें और विजयश्री प्राप्त करें
  11. छोटी किंतु महत्त्वपूर्ण बातों का ध्यान रखें
  12. सफलता आपका जन्मसिद्ध अधिकार है
  13. अपने जन्मसिद्ध अधिकार सफलता का वरण कीजिए

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