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आचार्य श्रीराम शर्मा >> सफलता के सात सूत्र साधन

सफलता के सात सूत्र साधन

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :48
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15531
आईएसबीएन :0

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विद्वानों ने इन सात साधनों को प्रमुख स्थान दिया है, वे हैं...

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सात साधन


जीवन में सफलता पाने के जितने साधन बतलाए गए हैं, उनमें विद्वानों ने सात साधनों को प्रमुख स्थान दिया है। जो मनुष्य अपने में इन सात साधनों का समावेश कर लेता है, वह किसी भी स्थिति का क्यों न हो, अपनी वांछित सफलता का अवश्य वरण कर लेता है। वे सात साधन हैं—परिश्रम एवं पुरुषार्थ, आत्म विश्वास एवं बलिदान, स्नेह एवं सहानुभूति, साहस एवं निर्भयता, प्रसन्नता एवं मानसिक संतुलन।

दीपक जलता है। संसार को प्रकाश देता है और श्रेय के रूप में सफलता प्राप्त करता है। दीपक की इस सफलता का रहस्य यही तो है कि वह अपने तेल तथा बत्ती को तिल-तिलकर जलाता रहता है। उसका प्रकाश वस्तुतः उसकी उस निरंतर ज्वलनशीलता का ही होता है, जिसको वह लौ के रूप में बत्ती से प्रकट करता है। दीपक का कर्तव्य जलना है। जिस समय भी वह अपने इस कर्त्तव्य से विरत होकर निष्क्रिय हो जाता है, प्रकाशरूपी सफलता उससे दूर चली जाती है। वह एक मूल्यहीन मिट्टी के पात्र से अधिक कुछ नहीं रह जाता। अपनी निर्जीवता अथवा निष्क्रियता के कारण वह इतना महत्त्वहीन हो जाता है कि लोग उसे यथा स्थान पड़ा भी नहीं रहने देना चाहते।

इसी प्रकार जो मनुष्य अपने शरीर का सार परिश्रमरूपी तप में यापन करते हैं, अपनी शक्तियों तथा क्षमताओं का समुचित उपयोग करते हैं वे आलोक पाकर कृतकृत्य हो जाते हैं। सक्रियता ही जीवन है और निष्क्रियता ही मृत्यु। श्रम से विरत रहकर आलस्य अथवा प्रमाद में पड़े रहने वाले मनुष्य को जीवित नहीं कहा जा सकता। भले ही वह लुहार की धौंकनी की तरह स्वासें क्यों न ले रहा हो ? मनुष्य जीवन की सार्थकता श्रम में ही है। श्रम से शरीर स्वस्थ एवं स्फूर्तिवान बनता है, जिससे वांछित सफलता की ओर बढ़ने में प्रेरणा मिलती है। निष्क्रिय कामना कभी सफल नहीं होती।

मनुष्य जो कुछ चाहता है यदि वह उसके लिए हर संभव उद्योग न करेगा, अपना पसीना न बहाएगा तो वह उसे बैठे-बैठे किस प्रकार मिल सकती है ? सफलता मनुष्य के पसीने का मूल्य है इस बात को भी नहीं भूलना चाहिए। कोई भी सफलता पाने योग्य शक्तियाँ मनुष्य में निहित हैं किंतु उनका उभार, निखार तथा उपयोग परिश्रम एवं पुरुषार्थ करने में ही है। जिस प्रकार निरंतर गतिशील नदी का जल निर्विकार एवं जीवन पूर्ण बना रहता है ओर अवरुद्ध सरोवर का जल विकृत एवं निर्जीव हो जाता है, उसी प्रकार श्रमशील पुरुषार्थी व्यक्ति की शक्तियाँ सजीव एवं सार्थक बनी रहती हैं और आलसी तथा निकम्मे व्यक्ति की शक्ति निर्जीव होकर नष्ट हो जाती है। सरिता के समान निरंतर बढ़ते रहने वाला व्यक्ति अपने लक्ष्य को पाने में उसी प्रकार सफल हो जाता है, जिस प्रकार सरिता अपने लक्ष्य को पाने में सफल हो जाती है।

कोई व्यक्ति परिश्रमी तथा पुरुषार्थी तो है किंतु उसमें आत्म विश्वास तथा आत्म निर्भरता की भावना का अभाव है तो उसका पुरुषार्थ निष्फल जा सकता है। आत्म-विश्वासी तथा परावलंबी व्यक्ति कभी अपना स्वतंत्र लक्ष्य निर्धारित नहीं कर सकता और यदि वह एक बार ऐसा कर भी लेता है तो वह हर कदम पर आगे बढ़ने से न केवल झिझकेगा ही बल्कि परमुखापेक्षी भी बना रहेगा। सभी जानते हैं कि सफलता का मार्ग सरल नहीं होता। उसमें बाधाएँ एवं अवरोध भी आते हैं। अब तो आत्म-विश्वासी नहीं है, जिसे अपने तथा अपनी शक्तियों में विश्वास नहीं है, अवरोध देखकर उसके कदम निश्चय ही रुक जाएँगे। इस प्रकार कदम-कदम पर आने वाले अवरोधों को देखकर जो क्षण-क्षण रुकता, डरता और झिझकता रहेगा वह अपने ध्येय पथ को सात जन्म में भी पूरा नहीं कर सकता। आत्म-विश्वास अथवा स्वावलंबन से हीन व्यक्ति की कोई सहायता सहयोग भी नहीं करता। नियम है कि लोग उसी की सहायता किया करते हैं, जो अपनी सहायता आप किया करता है। और जिसका हृदय आत्म विश्वास की भावना से ओत-प्रोत है। आत्म विश्वास तथा आत्मावलंबन से रहित व्यक्ति किसी अन्य की सफलता में भले ही सहायक हो जाए अमौलिक होने से अपने लिए कोई उल्लेखनीय सफलता अर्जित नहीं कर सकता।

मनुष्य परिश्रमी भी है और आत्म-विश्वासी भी किंतु उसमें जिज्ञासा अथवा लगन की कमी है, तो भी उसका नाम सफल व्यक्तियों की सूची में आ सकना कठिन है। जिसमें जिज्ञासा नहीं है। वह आगे बढ़ने और ऊपर चढ़ने के लिए उत्साहित ही किस प्रकार हो सकता है ? सफलता के लिए उद्योग तो दूसरी बात है पहले तो उसके लिए जिज्ञासा होनी चाहिए। जिसे आगे बढ़ने की जिज्ञासा नहीं, सफलता पाने के लिए कोई उत्साह नहीं वह तो अपनी क्षमताओं तथा योग्यताओं के लिए उसी प्रकार निरुपयोगी पड़ा रहेगा, जिस प्रकार निर्जन वन में खिलने वाली लता अपने फूल लिए पड़ी हुई सड़ा करती है, जिसमें जिज्ञासा है और उसे साकार करने के लिए लगनशीलता की कमी नहीं है, अपने ध्येय, लक्ष्य तथा उद्देश्य में निष्ठा है, वह उसे प्राप्त करने से कोई संभव उपाय उठा न रखेगा ! सच्ची जिज्ञासा एवं निष्ठा वह स्वाभाविक प्रेरणा है जो मनुष्य को उसके गंतव्य स्थान पर पहुँचाए बिना नहीं रहती। जिसकी लगन इस सीमा तक जा पहुँची है कि वह विचार करते समय स्वयं विचार और कार्य करते समय कार्य रूप ही हो जाता है; उसे लक्ष्य मार्ग में ऐसा कौन-सा अवरोध हो सकता है जो रोक सके। जिज्ञासा और निष्ठा जीवन की दो शक्तियाँ हैं, सफलता के जिज्ञासुओं को इनका विकास कर ही लेना चाहिए।

मनुष्य में सफलता प्राप्त करने के अनुरूप अनेक गुण हैं किंतु उसमें संकीर्णता का एक दुर्गुण भी है तो यह दुर्गुण उसी प्रकार गुणों की क्षमता को नष्ट कर देगा जिस प्रकार हींग की गंध किसी भी सुगंध को दबा देती है। सफलता एक प्राप्ति है, उपलब्धि है, जिसको समाज में समाज की सहायता से ही पाया जाता है ! नियम है कि जो देता है वही पाता है। यदि कोई यह चाहे कि वह संसार में पाता तो सब कुछ चला जाए किंतु उसे देना कुछ भी न पड़े तो ऐसा स्वार्थी तथा संकीर्ण भावना वाला व्यक्ति इस आदान-प्रदान पर चलने वाले संसार में एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकता। अस्तु सफलता पाने अथवा उसकी संभावनाएँ सुनिश्चित बनाने के लिए आवश्यक है। कि किसी भी आवश्यक त्याग तथा बलिदान के लिए सदा तत्पर रहा जाए।

मानव समाज के लिए अपने सर्वस्व को बलिदान करने वालों का जीवन तो यों ही सफल हो जाता है फिर वे कोई विशेष कार्य कर दिखाएँ अथवा नहीं हृदय में त्याग तथा बलिदान की भावना का परिपाक होना आप में स्वयं ही एक बड़ी सफलता है !

जो उत्सर्ग नहीं कर सकता वह कभी कुछ पा भी नहीं सकता। शिशिर में प्रकृति की आवश्यकता पर पेड़, फूल-पत्तों का त्याग कर देते हैं फलस्वरूप सैकड़ों गुना सुंदर पत्तों, फूलों तथा फलों का उपहार मिलता है। बीज अपने अस्तित्व की उत्सर्ग ही नहीं संपूर्ण तिरोधान कर देता और तभी अपने इस त्याग के फलस्वरूप वह वृक्ष के रूप में सफल होकर संसार को छाया तथा फल देकर श्रेय का भागी बनता है। जीवन में सफलता प्राप्त करने के लिए आवश्यक है कि हृदय में संकीर्णतापूर्ण स्वार्थ को स्थान न दिया जाए।

संसार में एक से बढ़कर धनकुबेर विजयी तथा विद्यावान व बलवान हुए हैं और उन्होंने ऐसे काम भी कर दिखाए हैं जो इतिहास में स्मरणीय हैं, किंतु अनेक मानों में वे असफल ही रहे हैं। जिसने स्वार्थ शोषण तथा अनुचित उपायों से धन कमाया है, हजारों लाखों का रक्त बहाकर विजय प्राप्त की है। शासन स्थापित कर मनुष्यों को सताकर और धन बढ़ाकर शोषण की क्रूरता करते रहने वाले विजयी अथवा धनवान व्यक्ति किसी प्रकार भी सफल नहीं माने जा सकते फिर वे क्यों न ऐतिहासिक स्थिति तक उठ गए हों। जिस व्यक्ति को लोगों ने घृणा से याद किया, जिसे इतिहास के काले पृष्ठों पर लिखा गया वह समस्त संसार का स्वामी होने पर भी असफल व्यक्ति ही कहा जाएगा। सफलता अथवा उसके प्रयत्न में यदि स्नेह तथा सहानुभूति का समावेश न किया जाएगा तो वह या तो असफलता में बदल जाएगी अथवा प्राप्त ही नहीं होगी ! जो क्रूर, कठोर तथा असंवेदनशील है, उसके यह दोष ही उसके मार्ग में कांटे बनकर बिखर जाएँगे। उन्नति तथा विकास की ओर चलने के इच्छुक को स्नेह तथा सहानुभूति को हृदय में स्थान देना आवश्यक है, जिससे कि प्रतिदान में वह भी स्नेह-सहानुभूति पाता रहे और उसका पथ अवरोध होता रहे।

अपने गुणों के आधार पर श्रेय पथ पर बढ़ने वाले व्यक्ति में यदि निर्भयता की कमी है तो समझ लेना चाहिए कि वह अपने लक्ष्य तक न पहुँच सकेगा। भीरु व्यक्ति में आगे बढ़ने का साहस ही नहीं होता। वह पग-पग पर आपत्तियों तथा कठिनाइयों की शंका करता रहेगा। सफलता के मार्ग पर असफलता का भय अस्वाभाविक नहीं है, भीरु व्यक्ति इसी अज्ञात अथवा असंभाव्य असफलता के कारण अपना अभियान ही आरंभ न करेगा। जिस श्रेय का आरंभ ही न होगा उसका परिणाम आ भी किस प्रकार सकता है ? संसार में दुष्टों तथा खलों की कमी भी नहीं है। वे स्वभावतः ही बढ़ते हुए व्यक्ति के मार्ग में अवरोध एवं विरोध बनकर खड़े हो जाते हैं। ऐसे समय में दुष्टों तथा खलों से निबटने के लिए उस साहस की आवश्यकता होती है, जो भी व्यक्ति में नहीं होता। असफलता अथवा अवरोध से भयभीत रहने वाला व्यक्ति जीवन में कभी भी सफलता नहीं पा सकता। सफलता अथवा श्रेय पथ का दूसरा छोर पाने के लिए आवश्यक है कि मनुष्य अपने में निर्भयता का विकास करे। अन्यथा उसका भय उसे मैदान छोड़कर भागने के लिए किसी समय भी विवश कर सकता है।

सफलता पाने के लिए प्रसन्नता की उतनी ही आवश्यकता है। जितनी शरीर यात्रा के लिए जीवन की। अप्रसन्नचेता व्यक्ति एक प्रकार से निर्जीव ही होता है। जो फूल मुरझाए रहते हैं उन्हें जीवित नहीं कहा जा सकता। अप्रसन्न-चेता व्यक्ति को विषाद तथा निराशा का क्षय रोग लग जाता है, जिससे उसका सारा उत्साह नष्ट हो जाता है। सफलता के पथ पर आए अवरोधों तथा विरोधों का सामना करने का साहस भी हो और संबल भी किंतु हृदय में निर्मलता का अभाव हो तो क्या वह व्यक्ति अपने ध्येय में सफल हो सकता है ? एक छोटी-सी असफलता, एक रंचक विरोध आ जाने पर वह छई-मई की तरह मुरझाकर निराश तथा हताश हो जाएगा तब भला इस प्रकार के निम्न स्वभाव वाला व्यक्ति सफलता के महान् पथ पर किस प्रकार आरूढ़ हो सकता है ? मानसिक संतुलन प्रसन्नता के आधीन रहा करता है। अप्रसन्नता की स्थिति में मनुष्य का संतुलन असंभव है और असंतुलन निश्चित रूप से असफलता की जननी है।

इस प्रकार सफलता के आकांक्षी व्यक्तियों को चाहिए कि वे श्रेय पाने के लिए सफलता के इन साधनों का अभ्यास एवं विकास करते हुए अपने पथ पर बढ़े, उन्हें सफलता मिलेगी और अवश्य मिलेगी।

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    अनुक्रम

  1. सफलता के लिए क्या करें? क्या न करें?
  2. सफलता की सही कसौटी
  3. असफलता से निराश न हों
  4. प्रयत्न और परिस्थितियाँ
  5. अहंकार और असावधानी पर नियंत्रण रहे
  6. सफलता के लिए आवश्यक सात साधन
  7. सात साधन
  8. सतत कर्मशील रहें
  9. आध्यात्मिक और अनवरत श्रम जरूरी
  10. पुरुषार्थी बनें और विजयश्री प्राप्त करें
  11. छोटी किंतु महत्त्वपूर्ण बातों का ध्यान रखें
  12. सफलता आपका जन्मसिद्ध अधिकार है
  13. अपने जन्मसिद्ध अधिकार सफलता का वरण कीजिए

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