लोगों की राय

आचार्य श्रीराम शर्मा >> सफलता के सात सूत्र साधन

सफलता के सात सूत्र साधन

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :48
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15531
आईएसबीएन :0

Like this Hindi book 0

5 पाठक हैं

विद्वानों ने इन सात साधनों को प्रमुख स्थान दिया है, वे हैं...

2

सफलता की सही कसौटी


संसार में प्रायः लोग विजय-पराजय, सफलता-असफलता को स्थूल उपलब्धियों से ही नापते हैं। किसी ने किसी प्रकार धन-दौलत, मान-सम्मान अथवा नाम-धाम पा लिया है स्थूल बुद्धि वाले उसे सफल ही मान लेते हैं। वे यह नहीं देख पाते कि इसने जो यह वैभव-विभूति प्राप्त की है, उसके उपायों एवं साधनों के औचित्य पर ध्यान नहीं रखा। जबकि उपायों का अनौचित्य उसकी बहुत बड़ी नैतिक पराजय है।

इसके विपरीत जो व्यक्ति ईमानदारी से प्रयत्न स्थूल उपलब्धियों को, संयोग अथवा अन्य हेतुओं-वश नहीं पा सकते उन्हें सामान्य बुद्धि वाले लोग असफल ही मानते हैं, जबकि अनुपलब्धि को स्वीकार करके भी ईमानदार प्रयत्नों में लगे रहने की सफलता उसकी बहुत बड़ी विजय है।

सफलता-असफलता तथा विजय-पराजय के विषय में इस प्रकार की धारणा रखने वाले व्यक्ति स्थूल दृष्टि से स्थूल उपलब्धियों को ही देख पाते हैं और उनसे ही प्रसन्न एवं प्रभावित हुआ करते हैं। ऐसे लोग पुरुषार्थ एवं कर्मशीलता का मान-सम्मान करना नहीं जानते। निश्चय ही ऐसे लोग भौतिक विभूतियों के अविवेकशील भक्त होते हैं।

उनकी दृष्टि में भौतिक उपलब्धियों के सिवाय मनुष्य के प्रयत्न एवं पुरुषार्थ का कोई मूल्य-महत्त्व नहीं होता।

तत्त्वदर्शी बुद्धिमानों का दृष्टिकोण इन स्थूलवादियों से सहमत नहीं होता वे सफलता एवं विजय का मापदंड पुरुषार्थ एवं प्रयत्न को ही मानते हैं। बिना परिश्रम अथवा पुरुषार्थ के विरासत, संयोग अथवा प्रारब्धवश नाम-धाम अथवा धन-दौलत पा जाने वालों को वे सफल व्यक्तियों की श्रेणी में नहीं रखते और गर्हित उपायों को अवलंबन लेकर सफल होने वालों की ओर तो वे उतना ही ध्यान नहीं देते, जितना कि प्रारब्ध-प्रसन्न व्यक्तियों की ओर। उनका विश्वास होता है। कि सफलता अथवा विजय का संबंध मनुष्य के पुरुषार्थ एवं परिश्रम से ही होता है उपलब्धियों से नहीं। जिनको किन्हीं उपलब्धियों के लिए परिश्रम, प्रयत्न, पुरुषार्थ एवं संघर्ष न करना पड़ा हो तो सफलता का श्रेय उनकी किस विशेषता से, किस गुण से जोड़ा जाएगा। उपलब्धियाँ स्वयं में कोई सफलता नहीं है। यह तो सफलता की परिचायक प्रतीक मात्र होती हैं। प्रतिद्वन्द्वी के 'पस्त-हिम्मत' होने के कारण कोई पहलवान अखाड़े में उतरे बिना ही विजयी घोषित नहीं माना जा सकता। उसकी विजय की घोषणा तो वास्तव में प्रतिद्वंद्वी की साहसहीनता की सूचना होती है। इस प्रकार की घटना में यह घोषणा प्रस्तुत पक्ष की विजय ही नहीं, निरस्त पक्ष के पराजय की होनी चाहिए।

पुरुषार्थ में विश्वास रखने वाले सच्चे कर्मवीर जीवन में कभी असफल अथवा परास्त नहीं होते। उनकी पराजय तो तब ही कही जा सकती है, जब वे एक बार की सफलता से निराश होकर निष्क्रिय हो जाएँ और प्रयत्न के प्रति हथियार डाल दें। सच्चा कर्मवीर एक क्या हजार बार की असफलता से भी पराजय स्वीकार नहीं करता। जीवन के अंतिम क्षण तक उपलब्धियों का मुख न देख सकने वाले प्रयत्न निरत कर्मवीरों को असफल अथवा पराजित कौन, किस मुंह से, कहने का साहस कर सकता है ?

इतिहास ऐसे न जाने कितने कर्मवीरों की गौरव-गाथा से भरा पड़ा है, जो जीवन-संग्राम में अनेक बार हारकर भी नहीं हारे, और ऐसे उदाहरणों की भी कमी नहीं है कि विजयी होने पर भी जिनका नाम पराजितों की सूची में ही लिखा गया। राणा प्रताप, पोरस तथा पृथ्वीराज चौहान ऐसे ही कर्मवीरों में से हैं, जो स्थूल रूप से हारकर भी नैतिक रूप से पराजित नहीं हुए। श्रृंखलाओं एवं संकटों के बीच भी उन्होंने अपने को पराजित स्वीकार नहीं किया। जीवन का अंतिम अणु-कण संघर्ष के दाव पर लगा देने के बाद भी विजय न पा सकने वाले यह वीर आज भी विजयी व्यक्तियों के साथ ही गिने जाते हैं। उनकी परिस्थितियाँ अवश्य हारीं किंतु उनके प्रयत्न कभी पराजित न हुए। यही उनकी विजय है जिसे यशस्वी कर्मवीरों के अतिरिक्त साधन संपन्नता के बल पर संयोगिक विजय पाने वाले कर्महीन कायर कभी नहीं पा सकते।

अकबर, अशोक और अलाउद्दीन खिलजी जैसे विजयी उन व्यक्तियों में से हैं, जिनकी जीत भी आज तक हार के साथ ही लिखी जाती है। कलिंग का श्मशान बन जाना एक विजय थी और अशोक का नगर पर अधिकार कर लेना एक पराजय। पद्मनी का जल जाना, भीमसिंह और गोरा बादल का जौहर कर डालना एक विजय थी और चित्तौड़ पर खिलजी का अधिकार एक पराजय थी। वन-वन फिरकर घास की रोटी खाने वाले प्रताप की आपत्ति एक विजय और मेवाड़ पर अकबर का झंडा फहराना एक पराजय। यह ऐसी पराजय थी जिसे अकबर ने स्वयं स्वीकार किया था। जय-पराजय की इन गाथाओं में जीत-हार का मापदंड आदर्श, पुरुषार्थ, पराक्रम, साहस, धैर्य एवं प्रयत्न ही रहा है। राज्य अथवा नगरों पर अधिकार नहीं।

परिस्थितियों के सम्मुख घुटने न टेकने और सफलता के बाद दूने उत्साह से उठने वाले कभी भी परास्त नहीं कहे जा सकते फिर चाहे वे कभी स्थूल विजय के अधिकारी भले ही न बने हों। हारना वास्तव में वह है असफल उसे ही कहा जा सकता है, जो एक बार गिरकर उठने की हिम्मत खो देता है। एक बार की असफलता से निराश होकर मैदान से हट जाता है। पिछली पराजय से पस्त-हिम्मत न होकर अगली सफलता के लिए प्रयत्न करने वालों की पिछली असफलताओं का सारा अपवाद स्वयं ही मिट जाया करता है। इसीलिए विजय का यशस्वी श्रेय लेने वाले फल के प्रति उत्सुक न रहकर प्रयत्न एवं पुरुषार्थ में ही लगे रहते हैं।

असफलताओं के आघात से निराश होकर बैठ रहना सबसे बड़ी कायरता है। असफलताओं की कसौटी पर ही मनुष्य के धैर्य, साहस तथा लगनशीलता की परख होती है। जो इस कसौटी पर खरा उतरता है, वही वास्तव में सच्चा पुरुषार्थी और अपने ध्येय का धनी होता है और ऐसे ही कर्मवीरों को विचारवान लोग असफल होने पर भी सफल ही मानते हैं। जीवन में निर्विरोध अथवा निरंतर सफलताओं की परंपरा गर्व-गौरव अथवा हर्षातिरेक का विषय नहीं है। असफलता का आघात पाए बिना मनुष्य पूर्ण रूप से परिपक्व नहीं हो पाता। उसके मन, बुद्धि तथा आत्मा में कच्चापन बना रहता है। उसकी एकांगी विजय न तो सरस हो पाती है और न संतोषप्रद। परिश्रम के बादं विश्राम और कष्टों के बाद सुविधा की तरह ही सफलता का आनंद असफलता के बाद ही आता है। असफलता के अभाव में अनुभवों से रहित व्यक्ति दुनियाँ को ठीक से नहीं समझ पाता।

मनुष्य का निरंतर सफल होते जाना बहुत अधिक हितकर नहीं होता। ऐसी ही स्थिति में वह अपने पुरुषार्थ पर भरोसा करने के बजाय प्रारब्ध पर भरोसा करने लगता है। उसे अपने प्रारब्ध पर अंधविश्वास हो जाता है और अपने को एक चमत्कारी व्यक्ति समझने लगता है। उसे सफलताओं में अति विश्वास हो जाने से अभिमान हो जाता है। प्रयत्न के प्रति उदासीन और अवरोधों के प्रति असावधान हो जाता है। एक साथ सफलताओं को पाते जाने से मनुष्य अंदर से इतना कमजोर हो जाता है कि जब कभी उसको सहसा असफलता का सामना करना पड़ जाता है तो वह एक दम निराश, निरापद तथा निष्क्रिय हो जाता है कि फिर उठ ही नहीं पाता। निरंतर सफल होते रहने वाले व्यक्ति कभी-कभी आई हुई असफलता से इतने घबरा जाते हैं कि आत्महत्या तक कर बैठते हैं। असफलता से शून्य सफलता कभी भी निरापद नहीं होती।

असफलता अथवा पराजय से निराश एवं निष्क्रिय न होना तो एक नैतिक विजय है ही, साथ ही आगे चलकर उसकी असफलता निरंतर प्रयत्नशीलता एवं एकनिष्ठ लगन के बल पर स्थूल विजय में भी बदल जाती है। जो व्यक्ति अपने उद्देश्य के लिए यथासाध्य उद्योग में कमी नहीं रखता वह अवश्य ही अपने ध्येय में सफल हो जाता है। अब्राहम लिंकन अपने जीवन में हजारों बार असफल हुए, महात्मा गाँधी ने सैकड़ों बार असफलताओं का मुंह देखा, वैज्ञानिक अपनी खोजों के प्रयत्नों में न जाने कितनी बार असफल होते रहते हैं किंतु तब भी वे अपनी एकनिष्ठ लगन एवं निरंतर प्रयत्नरत रहने से अंततः अपने उद्देश्य में सफल ही हुए और होते जाते हैं। हुमायूँ अपना राज्य वापस लेने के प्रयत्न में इक्कीस बार हारा किंतु अंत में अपनी लगनशीलता एव पुरुषार्थ के पुरस्कार स्वरूप उसने दिल्ली का राजसिंहासन पठानों से छीन ही लिया। सच्ची लगन तथा निर्मल उद्देश्य से किया हुआ प्रयत्न कभी निष्फल नहीं जाता।

मुमुक्षु साधक अपनी आत्मा की मुक्ति के लिए अबाध प्रयत्न ही नहीं तप भी किया करते हैं। वे एक-दो वर्ष तक ही नहीं जन्म-जन्मांतरों तक अपने प्रयास में लगे रहते हैं और अंत में अपने पावन ध्येय को पा ही लेते हैं। जरा-जरा-सी सफलताओं से निराश होकर विरत प्रयत्न हो जाने वाले सुकुमार व्यक्ति को तपस्वी मुमुक्षुओं की दृढ़ता से शिक्षा लेनी चाहिए कि वे अपनी ध्येय पूर्ति के लिए किए जाने वाले प्रयत्नों में एक क्या अनेक जन्मों की असफलताओं को कोई महत्त्व नहीं देते।

संसार में ईसा, सुकरात, तुलसी, ज्ञानेश्वर, तुकाराम आदि न जाने कितने महात्मा एवं महापुरुष ऐसे हुए हैं, जिनको जीवन भर असफलताओं, संकटों तथा विरोधों का सामना ही करना पड़ा किंतु वे एक क्षण को भी न तो अपने ध्येय से विचलित हुए और न निराश ही। वे तन-मन से अपने प्रयत्न में निरंतर लगे ही रहे जिसका परिणाम यह हुआ कि अपने जीवन के बाद संसार ने उन्हें परमात्मा के रूप में पूजा, उन्हें जीवन का आदर्श बनाया और उनके स्मारक स्थापित किए। उनके जीवन की पराजय जीवनोपरांत महान विजय में बदल गई।

किंतु पराजय से विजय और असफलता से सफलता का जन्म होता तभी है जब मनुष्य उनसे नई शिक्षा, नई स्फूर्ति, नया साहस और नया अनुभव लेकर आगे बढ़ता रहता है। जिसने असफलता को केवल असफलता समझकर छोड़ दिया उसकी उपेक्षा कर दी और उससे किसी शिक्षा का लाभ नहीं उठाया तो उसकी मूल्यवान असफलता मात्र असफलता बनकर ही रह जाती है, तब ऐसी असफलता का सफलता में अथवा पराजय का विजय में बदलना कठिन हो जाता है।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

    अनुक्रम

  1. सफलता के लिए क्या करें? क्या न करें?
  2. सफलता की सही कसौटी
  3. असफलता से निराश न हों
  4. प्रयत्न और परिस्थितियाँ
  5. अहंकार और असावधानी पर नियंत्रण रहे
  6. सफलता के लिए आवश्यक सात साधन
  7. सात साधन
  8. सतत कर्मशील रहें
  9. आध्यात्मिक और अनवरत श्रम जरूरी
  10. पुरुषार्थी बनें और विजयश्री प्राप्त करें
  11. छोटी किंतु महत्त्वपूर्ण बातों का ध्यान रखें
  12. सफलता आपका जन्मसिद्ध अधिकार है
  13. अपने जन्मसिद्ध अधिकार सफलता का वरण कीजिए

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book