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आचार्य श्रीराम शर्मा >> मरने के बाद हमारा क्या होता है ?

मरने के बाद हमारा क्या होता है ?

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :48
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15529
आईएसबीएन :0

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मरने का स्वरूप कैसा होता है....

स्वर्ग-नरक


ईश्वर बड़ा दयालु है, उसने प्राणियों को भरपूर स्वतंत्रता दी है कि वे इच्छापूर्वक कार्य करते हुए सत्-चित्-आनंद की प्राप्ति करें। जो लोग गलती करते हैं, उनसे परमात्मा क्रुद्ध नहीं होता और न किसी द्वेष भाव से दंड देता है, वरन उसने ऐसी व्यवस्था कर रखी है कि जीव अपनी त्रुटियों से अनुभव प्राप्त करें और आगे के कार्य के लिए अधिक योग्यता प्राप्त करें। स्वर्ग-नरक की रचना इसी दृष्टिकोण से की गई है। न्यायमूर्ति जज किसी को जेलखाने में बुरी नीयत से नहीं भेजते, उनकी हार्दिक इच्छा यह होती है कि वह आदमी त्रुटियों का परिणाम अनुभव करें और इससे शिक्षा ग्रहण करके भावी जीवन को उत्तमता से बिताने का प्रयत्न करें। मृत्यु के उपरांत जीव को स्वर्ग या नरक प्राप्त होता है, इस बात को संसार के समस्त धर्म एक स्वर से स्वीकार करते हैं। इसमें कोई संदेह की बात नहीं है। निश्चय ही हमें मृत्यु और पुनर्जन्म के बीच में स्वर्गनरक का अनुभव प्राप्त करना पड़ता है, परमात्मा की इच्छा है कि इस व्यवस्था द्वारा पूर्व त्रुटियों का संशोधन हो जाए और भावी जीवन का मार्ग निरापद बन जाए।

तीन वर्ष या जितना समय जीव को परलोक में ठहरने के लिए अदृश्य चेतना आवश्यक समझती है, उसका पहला एक-तिहाई भाग निद्रा में व्यतीत होता है, क्योंकि पूर्वजन्म के परिश्रम की उस काल में इतनी थकान होती है कि प्राणी इस समय अचेतनसा हो जाता है, इस समय वह दंड शिक्षा का कुछ अनुभव उसी प्रकार नहीं कर सकता, जैसे कि क्लोरोफार्म सुंघाकर बेहोश किया हुआ रोगी अपने शरीर की चीर-फाड़ का अनुभव नहीं करता। प्रारंभिक एक-तिहाई भाग बीत जाने पर जीव स्वस्थ होकर जाग्रत होता है और पीछे के कार्यक्रम पर ध्यान देता है। तीसरी तिहाई में वह अपने पिछले जीवन पर ध्यान देता है। सारे बुरे-भले कर्मों के परत उसकी चेतना के साथ बड़ी मजबूती के साथ चिपके हुए होते हैं। यह परत एक-एक करके खुलते हैं, तब तक उनके कर्मों के बीज पक चुके होते हैं और वे फल के रूप में उपस्थित होते हैं। इस समय वे केवल स्मरणमात्र ही नहीं होते, वरन अपना एक फल साथ लाते हैं। जीवन में हम जो कुछ बुरे-भले काम करते हैं साधारण तौर से कुछ दिन बाद उन्हें भूल जाते हैं; किंतु साक्षी रूप आत्मा जो अंत:करण में बैठा हुआ है, उन सब बातों को नोट करता है। मान लीजिए आपने चोरी की। चोरी करते समय अंतरात्मा धिक्कारती है, पर हम उसे नहीं सुनते और चोरी कर डालते हैं। किसी ने उस चोरी को देख नहीं पाया, तदनुसार प्रत्यक्ष रूप से कुछ दंड न मिला। आत्मा के क्षेत्र में वह काम बीज रूप से उसी प्रकार बो जाते हैं, जैसे खेत में गेहूँ। कुछ समय बाद बाहर का मस्तिष्क उस चोरी को भूल जाता है, पर आत्मा नहीं भूलती। उसके खेत में वह बीज बराबर बढ़ता रहता है। खजूर की गुठली जब बोई गई थी तो उसका रूप दूसरा था किंतु उसका परिवर्तित रूप खजूर का वृक्ष दूसरी तरह का होता है। पाप का स्वरूप दूसरा होता है किंतु उसका परिवर्तित रूप दुःख होते हैं।

नरकों का वर्णन अनेक प्रकार से होता है। विभिन्न धर्मावलंबी उनकी रूपरेखा में कुछ फरक बताते हैं। कुंभी पाक, वैतरणी, रौरव, दोजख, हैल आदि के वर्णन कुछ अलग हैं। ये विभिन्नताएँ अधूरी हैं। फिर भी सत्य हैं। हमारा मत है कि हर प्राणी के लिए अलग प्रकार का नरक होना संभव है। इस तरह जितने प्राण हो चुके, उतने नरक हुए होंगे और आगे जितने होने वाले हैं, उतने नए होगे। कारण यह है कि हर व्यक्ति का दृष्टिकोण अलग होता है। एक पंडित जी को पाखाने में बंद कर दिया जाए, तो उन्हें मृत्यु के समान कष्ट होगा, पर एक महतर को दिनभर टट्टी साफ करते रहना कुछ भी नहीं अखरता। एक मनुष्य को छोटा-सा फोड़ा हो जाए तो वह बड़ा दुःख का अनुभव करेगा। दूसरे वे भिखारी होते हैं। जो अधिक भिक्षा प्राप्त करने के लिए अपने घावों को बढ़ाते हैं, यदि उनका फोड़ा अच्छा हो जाए तो उन्हें दु:ख होता है। फाँसी-मृत्यु के दंड से कुछ लोग अत्यंत भयभीत होते हैं, किंतु कुछ लोग फाँसी के फंदे को प्यार से चूमते हैं और गीत गाते हुए रस्से को अपने हाथ से गले में बाँधते हैं। कुंभीपाक के बारे में कहा जाता है। कि यह नरक भीतर पोले कुएँ की तरह होता है और उसके ऊपर के भाग में एक छोटा-सा छेद होता है। कुआँ खोदने वाले या कुएँ की कोठी पानी में चलाने वाले यदि इस नरक में बंद कर दिए जाएँ तो उन्हें कुछ भी बुरा न लगेगा। एक आदमी में चाँटा मार दिया जाए तो उसे तलवार के आधात जैसा दु:ख होगा किंतु दूसरे में पचास जूते मारे जाएँ तो भी दस मिनट बाद हँसता नजर आएगा। इन्हीं सब कारणों से अलग-अलग मानसिक स्थिति वाले लोगों के लिए अलग-अलग प्रकार के नरकों की आवश्यकता है।

पुराणों में ऐसा वर्णन है कि यमदूत घसीटकर नरक में ले जाते हैं। ये यमदूत कोई स्वतंत्र प्राणी नहीं हैं, केवल जीव के मानस पुत्र हैं। अंत:करण अपने क्रम परिपाक में इन यमदूतों को भी उपजाता है। ये दूत केवल उतने ही दिन तक जीते हैं, जितने दिन तक प्राणी को नरक में रहने की आवश्यकता होती है, कार्य समाप्त होते ही वह मर जाते हैं। एक के लिए पैदा हुए यमदूत दूसरे को दंड देने के लिए जीवित नहीं रहते। वास्तविक बात यह है कि परलोक में भौतिक जीवन समाप्त हो जाता है और आध्यात्मिक जीवन प्रस्फुटित रहता है। वैज्ञानिकों के मत से बाह्य मन मर जाता है और अंतर्मन जीवित रहता है। वकीलों की काट-छाँट, पंडितों की शास्त्रार्थ शक्ति यहाँ ढूँढ़ने पर भी दिखाई नहीं देती। छिपाने का दंभ बिलकुल विदा हो जाता है। जिस अंतरात्मा में पाप बीज बोए थे वह खेत प्रौढ़ रूप से उस प्रकार सचेत हो जाता है। जैसे कि जीवित अवस्था में बाह्य मस्तिष्क। मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार का चतुष्टय, दसों इंद्रियाँ इन सबके सम्मिश्रण से बना हुआ सूक्ष्मशरीर उस समय वैसा ही अचेतन रहता है जैसा कि जीवित अवस्था में गुप्त मस्तिष्क। हम देखते हैं कि एक मैस्मेरिज्म करने वाला बाहरी मस्तिष्क को निद्रित कर देता है और भीतरी मस्तिष्क को यह आज्ञा देता है कि 'तुम पानी में तैर रहे हो' तो वह व्यक्ति बिलकुल यही अनुभव करता है कि मैं पानी में तैर रहा हूँ। सचमुच पानी में तैरने और इस झूठ-मूठ के तैरने में रत्ती भर भी फरक उसे मालूम नहीं होता। यही बात उस नरक की है। उस नरक की, उन यमदूतों की कोई अलग सत्ता नहीं होती और न परलोक में कोई अलग न्यायाधीश, जज, मुंशी, पेशकार बैठते हैं। प्रतिदिन अरबों-खरबों जीव मरते हैं, इन सबको दंड देने के लिए उनसे दूने-चौगुने तो यमदूत चाहिए और असंख्य दफ्तर, जेलखाने, नरक आदि। इतने अलग बखेड़ों का स्वतंत्र रूप से होना किसी प्रकार संभव और सत्य दिखाई नहीं पड़ता। बेशक हर व्यक्ति के लिए अलग-अलग नरक हो सकते हैं, क्योंकि वह उसके साथ पैदा होते हैं और नष्ट हो जाते हैं।

अंतरात्मा में जमे हुए पाप-संस्कार प्रकाश के रूप में जब प्रकट होते हैं, तो इतनी शक्ति रखते हैं कि सूक्ष्मशरीर को बलात् उसके सन्मुख आना पड़ता है। सर्प के नेत्र-तेज से खिंचकर पक्षी उसके मुख में चले आते हैं। संभव है कि वे अपने मन में उस समय ऐसा ख्याल करते हों कि हमें कोई स्वतंत्र जीव पकड़े लिए जा रहा है। कर्मफल की भोगनीय शक्ति द्वारा फल पाने के लिए आकर्षित किए जाते समय संभव है, सूक्ष्मशरीर ऐसा ख्याल करता हो कि यमदूत मुझे पकड़कर खींचे लिए जा रहे हैं।

इन यमदूतों का रंग-रूप, आकार-प्रकार भी अलग हो जाता है। हिंदू के लिए तिलक लगाए हुए, गदा धारण किए हुए, राक्षसों की आकृति के हिंदू आते हैं। मुसलमानों के फरिस्ते दाढ़ी रखते हैं और शायद टर्की टोपी भी लगाए हुए होते हैं। अंग्रेजी यमदूत कोट, टोपी, नैक्टाई से सुसज्जित होते हैं। यह दूत बात-चीत भी हिंदी, अरबी, अंग्रेजी या उस भाषा में करते हैं, जिससे कि वह पूर्व जन्म में बोलता है। उनकी आकृतियाँ भी अलग-अलग विश्वासों के कारण अलग होती हैं। एक व्यक्ति बड़े दाँतों में दिलचस्पी रखता है, दूसरा बड़ी आँखों में, तो एक का यमदूत बड़े दाँतों वाला होगा, दूसरे का बड़ी आँखों वाला। यह यमदूत जिन्हें 'संस्कारों का तेज' भी कह सकते हैं। सूक्ष्मशरीर उसकी इच्छा के विरुद्ध भी दंड देने के लिए हाजिर करते हैं। दुष्कर्मों का फल है-दु:ख। सूक्ष्मशरीर को वेदना, पीड़ा, कष्ट देने के लिए अंतरात्मा एक स्वतंत्र नरक बना देती है। उनमें गिद्ध, कौए, खोंट खाने वाले, वैतरणी पार करने, उलटे लटकने, पिटने, आग में जलने के दृश्य उपस्थित होते हों या केवल अपमान करने, खरी-खोटी सुनाकर लज्जित करने की व्यवस्था होती हो। यह अलग-अलग मानसिक स्थिति के ऊपर निर्भर है। इस नारकीय यंत्रणा का मंतव्य यह है कि जीव दु:ख अनुभव करे। पाप कर्म और उनके फल इन दोनों को साथ-साथ देखकर वह यह समझ ले कि इसका यह फल होता है। दंड कितने समय तक और कितनी मात्रा में मिलना चाहिए इसका माप यह है कि जितने से वह अपना सुधार कर ले। जज छोटे अपराधों के लिए छोटी सजा देता है और बड़े अपराधों के लिए बड़ी। कारण यह है कि छोटे अपराध वालों की मनोभूमि पाप में अधिक लिप्त नहीं समझी जाती, इसलिए उसका सुधार शीघ्र और थोड़े दंड से हो जाता है, किंतु गुरुतर अपराध करने वालों की कठोर मनोभूमि में से आदतों को उखाड़ने के लिए अधिक परिश्रम और समय चाहिए। इसी दृष्टि से नरक की यातनाओं की सीमा होती है। दुष्ट कर्मों के परत एक-एक करके उखड़ते जाते हैं और अपना प्रभाव दिखाकर नष्ट हो जाते हैं। सूक्ष्मशरीर में इंद्रियाँ भी होती हैं और मन भी, इसलिए शारीरिक पापों के लिए शारीरिक दंड और मानसिक पापों के लिए मानसिक वेदना प्राप्त होती है। जैसे कि अधिक खा लेने से अपने आप पेट में पीड़ा होती है, मिर्च के सेवन से अपने आप दाह होता है, वैसे पाप कर्मों का फल प्राप्त करने की व्यवस्था अंतरात्मा स्वयमेव ही कर लेती है, इसके लिए किसी दूसरे की जरूरत नहीं पड़ती। जो पाप प्रकट हो जाते हैं, उनका फल तो प्रायः जीवित अवस्था में ही मिल जाता है, किंतु जो पाप भुगत नहीं पाते, उनको परलोक में भुगतना पड़ता है। प्रभु ने ऐसी व्यवस्था की है कि नवीन जन्म धारण करने से पूर्व ही जीव अपने पिछले अधिकांश पापों को भुगत ले और अगले जन्म के लिए पवित्र होकर जाए, ताकि अगला जीवन इन पाप-भारों के दुष्परिणाम से मुक्त हो। सेनापति अपने घायल सिपाहियों को तब तक अस्पताल में रखता है, जब तक उसके घाव भर न जाएँ, क्योंकि यदि घायल को ही पुनः युद्ध में भेज दिया जाए, तो वह सेनापति का उद्देश्य पूरा न कर सकेगा, उसके लिए हथियार चलाना तो अलग रहा अपने घावों की कराह से ही फुरसत न मिलेगी। इसलिए कुछ विशेष अवस्थाओं को छोड़कर (जिनका वर्णन पुनर्जन्म अध्याय में होगा) प्रायः सारे पाप परलोक में भुगते जाते हैं और जीव निर्मल बन जाता है। नरक का केवल इतना ही लाभ नहीं है कि पाप क्षीण हो जाएँ, वरन यह भी उद्देश्य है कि आगे के लिए बुरी आदतें छूट जाएँ और गलती के परिणाम का स्मरण रहे। चोरी करते समय चोरों के कंठ सूख जाते हैं, दुराचारियों के पाँव काँपने लगते हैं, हत्यारों की धुकधुकी चलने लगती है, यह पूर्वजन्मों में प्राप्त हुए दंडों का सूक्ष्म स्मरण है। पर हाय, लोग उस आंतरिक आवाज को बिलकुल भुला देते हैं और फिर उसी पाप के पैशाचिक फंदे में फँस जाते हैं।

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