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आचार्य श्रीराम शर्मा >> मरने के बाद हमारा क्या होता है ?

मरने के बाद हमारा क्या होता है ?

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :48
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15529
आईएसबीएन :0

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मरने का स्वरूप कैसा होता है....

भूत-बाधा और उसका निवारण


साधारण श्रेणी या निकृष्ट कोटि का जीवन बिताने वाले वे व्यक्ति जो लालसा, पीड़ा एवं मोहग्रस्त अवस्था में शरीर छोड़ते हैं, अकसर प्रेत योनियों में पड़ जाते हैं, यह पिछले पृष्ठों पर बताया जा चुका है। इस योनि में आत्मा की कोई विशेष उन्नति नहीं होती। अतृप्ति, द्वेष, कुढ़न आदि से प्रेरित होकर यह दूसरों को कष्ट देने, डराने या हानि पहुँचाने का प्रयत्न किया करते हैं। कुछ ऐसे होते हैं। जो अत्यंत मोहग्रस्त होने के कारण प्रेत हुए हैं और अपने प्रियजनों के साथ रहना चाहते हैं। यह हानि तो कछ नहीं पहुँचाते परंतु अपनी वासनाओं को तृप्त करने के लिए कुछ-न-कुछ याचना करते रहते हैं। स्थूल मनुष्य शरीर की भाँति इन प्रेतों का शरीर नहीं होता और न उन्हें अन्न-जल की आवश्यकता होती है। वायुरूप सूक्ष्मशरीर से अन्न, जल जैसी स्थूल चीजें खाई भी नहीं जा सकतीं। तो भी इनकी वासनाएँ जाग्रत रहती हैं और पूर्वजन्मों में अनुभव किए हुए इंद्रिय भोगों को भोगना चाहती हैं।

आपने देखा होगा कि मृत्यु शय्या पर पड़े हुए कुछ रोगी नाना प्रकार के स्वादिष्ट भोजन माँगते हैं। वे चीजें उन्हें दी जाती हैं, तो खाई एक-आध तोले भी नहीं जातीं। करीब-करीब ऐसी ही दशा इन प्रेतों की होती है। वे मनुष्य शरीर में भोगे हुए भोगों को भोगना चाहते हैं, पर जिस शरीर में हैं उनके द्वारा उनको भोगना संभव नहीं। वृक्ष के शरीर में जो आत्मा है, वह पशु के शरीर के भोगों को नहीं भोग सकती और न कोई पशु उन भोगों को भोगने में समर्थ है, जो वृक्षों को प्राप्त हैं। हर शरीर की स्वादेंद्रियाँ पृथक ढंग की होती हैं। इसलिए प्रेत इच्छा करते हुए भी मनुष्य शरीर के स्वादों को चखने में असमर्थ रहते हैं, इस असमर्थता का अनुभव करके वे और भी अशांत रहने लगते हैं और झुंझलाहट को अपने निकटस्थ व्यक्तियों पर निकालते हैं, उन्हें कष्ट देते हैं।

हाँ, कभी-कभी कोई वृद्ध उनका अपवाद करते देखे जाते हैं। मृत्यु के समय उनकी समझ परिपक्व होती है, बच्चों के लिए उनकी ममता, स्नेह, सहायता व क्षमा का भाव होता है, इंद्रियाँ भी इनकी अधिकांश में तृप्त होती हैं। ऐसे प्रेत जिस घर में रहते हैं, उस घर में लोगों की सहायता किया करते हैं, आपत्तियों से सचेत करते हैं और कष्टों के निवारण में जो कुछ वे थोड़ी-बहुत सहायता पहुँचा सकते हैं, पहुँचाते हैं। इनके द्वारा जानबूझकर कोई ऐसा कार्य नहीं किया जाता जो संबंधियों को हानिकारक हो।

मन की एक प्रवृत्ति ऐसी है कि यदि वह स्वयं जिस इच्छा को पूर्ण नहीं कर पाता, तो उसे दूसरों से पूर्ण कराकर स्वयं तृप्ति का आनंद अनुभव करता है। बड़ा हो जाने पर आदमी छोटे खिलौने से लोकलाज की वजह से नहीं खेलता, परंतु वह अपने बच्चों के लिए अच्छे-अच्छे खिलौने लाता है और उन्हें खेलते देखकर अपनी तृप्ति का अनुभव करता है। इसी प्रकार प्रेत अपनी वासना को तृप्त करने के लिए दूसरों को भोजनादि कराने का आदेश करते हैं। और उनकी तृप्ति से स्वयं भी संतोष-लाभ प्राप्त करते हैं। अकसर देखा गया है कि किसी ब्राह्मण या अमुक व्यक्ति को अमुक भोजन कराने की प्रेत लोग माँग किया करते हैं, इसका यही कारण है। उनकी आज्ञानुसार कार्य हुआ है और उनके बताए हुए अमुक व्यक्तियों ने तृप्ति-लाभ की है। यह देखकर उन्हें संतोष हो जाता है। और उद्विग्नता घट जाती है।

भूत-प्रेतों का श्रेणी विभाजन इस प्रकार किया जा सकता है-

(१) काल्पनिक भूत जिन्हें मनुष्य भय, आशंका, विश्वास एवं संकल्प द्वारा स्वयं उत्पन्न करता है,

(२) रोग का भूत,

(३) मृत जीवित व्यक्तियों के शरीर-विद्युत परमाणु जो पुनः जाग्रत होकर अपनी एक स्वतंत्र सत्ता बना लेते हैं,

(४) इंद्रिय भोगों में अतृप्त लालसा, वासना, प्रतिहिंसा से जलते हुए पिशाच,

(५) अपने वैभव, स्थान, कुटुंब या मित्रों में अतिशय आसक्त,

(६) तांत्रिक साधना द्वारा सिद्ध की हुई संकल्प प्रतिमाएँ-छाया पुरुष, यक्षिणी आदि,

(७) जीवन मुक्त आत्माएँ, जो सत्कर्मों में प्रेरणा और सहायता किया करती हैं। इन सात श्रेणियों में सभी प्रकार के भूतप्रेत आ जाते हैं। इनमें आरंभिक पाँच तो मनुष्यों को हानि-हीहानि पहुँचाते हैं। पाँचवें के द्वारा हानि और लाभ दोनों हो सकते हैं। छठवें, सातवें केवल लाभ ही पहुँचाते हैं।

अब इनके अस्तित्व संबंधी कुछ परिचय और उनसे छुटकारा पाने के कुछ उपाय बताए जाते हैं।

(१) काल्पनिक भूत-भय का मूर्त स्वरूप है। आशंका और भय जब दृढीभूत होकर विश्वास का रूप धारण कर लेते हैं, तो उनकी आकृति दिखाई देने लगती है। हिप्नोटिज्म द्वारा तंद्रित किए व्यक्ति को ऐसी वस्तुएँ दिखाई देने लगती हैं, जिनका वास्तव में कोई अस्तित्व नहीं होता। लकड़ी को आदमी और आदमी को लकड़ी समझने का भ्रम हो जाता है। भय के कारण बुद्धि भ्रमित हो जाती है और आशंका की छाया को इंद्रियाँ अनुभव करने लगती हैं। आँखें देखती हैं कि भूत सामने खड़ा है, कान सुनते हैं, वह अमुक बात कर रहा है या शब्द कर रहा है। त्वचा अनुभव करती है कि पकड़ रहा है, छू रहा है या भीतर घुस रहा है। वह अनुभव उसे बिलकुल सत्य प्रतीत होते हैं, जब वे विपन्न अवस्था में हैं तो जो कुछ भी अनुभव होगा, वह सत्य प्रतीत होगा। काल्पनिक भूतों की पीड़ा से जो पीड़ित हैं, उन्हें ऐसा जरा भी नहीं लगता कि हम भ्रमग्रस्त अवस्था में हैं। वे तो अपने अनुभवों को बिलकुल सत्य के रूप में ही मानते हैं। जब भी इनका भय और आशंका जाग्रत होने का अवसर पाते हैं, तभी वह भूत सामने आ खड़ा होता है और तरह-तरह के उत्पात करता है।

(२) मस्तिष्क संबंधी कोई खराबी हो जाने पर पागलपन उन्माद सरीखे रोग उत्पन्न होते हैं, जिसके कारण मनुष्य की चेष्टा, आकृति, आदत, वाणी तथा रुचि विचित्र हो जाती है। वह बेढंगी बातें करता है और विचित्र प्रकार के आचरण करता है। आयुर्वेद शास्त्रों में उन्माद रोगों की विशद व्याख्या की गई है। उनमें भूत-पिशाच आदि के उन्मादों को रोगी श्रेणी में लिया गया है। कोई अतृप्त इच्छा गुप्त मन में दबी पड़ी रहे, तो वह समय पाकर मृगी, मूच्र्छा आदि के रूप में उभरती है। कोई व्यक्ति ऐसी स्थिति में पड़ा हुआ हो, जिसे वह पसंद नहीं करता, परंतु उस दशा में से निकलने का उसे अवसर नहीं तो ऐसी झुंझलाहट भरी स्थिति के कारण मस्तिष्कीय ज्ञान-तंतु बहुत उलझ जाते हैं, भूतावेश जैसी स्थिति हो जाती है। देखा गया है कि कई किशोर लड़कियाँ अपनी ससुराल जाती हैं, परंतु वहाँ का वातावरण उन्हें पसंद नहीं आता, ऐसी दशा में उद्विग्नता और लाचारी का क्षोभ उनके मानसिक तंतुओं पर घातक असर डालता है, जिसके कारण भूत-ब्याधा जैसे लक्षण उसमें दृष्टिगोचर होने लगते हैं। अपनी ओर ध्यान आकर्षित करने की एक वृत्ति मनुष्य में पाई जाती है, इससे प्रेरित होकर कई मनुष्य झूठ-मूठ भूतावेश का बहाना करते हैं अथवा ऐसे किस्से गढ़ लेते हैं। यह भी एक प्रकार की मानसिक कमजोरी है। अप्रसन्न और असंतुष्ट लोग अपने परिवार को परेशान करने, नुकसान पहुँचाने और पैसा खरच कराने के लिए भूत-ब्याधा की सृष्टि करते देखे गए हैं। चालाक नौकर, बदमाश पड़ोसी, ठग, ओझा आदि की करतूतें भी भूत-उन्माद के समान ही आडंबर खडा कर लेती हैं। यह सामाजिक रोग है।

(३) पिछली फसल में जो अनाज पैदा हुआ था, उसके कुछ पौधे अगली फसल में भी उग आते हैं। कारण यह है कि पिछली फसल में जो दाने खेत में गिरे थे, वे नष्ट नहीं हुए वरन समय पाकर उग आए। इस प्रकार किसी मकान में कोई असाधारण (नीच या ऊँच) स्वभाव का मनुष्य रहा हो अथवा कोई असाधारण घटना घटी हो, तो संबंधियों के सूक्ष्मशरीर के कुछ परमाणु उसमें विशेष रूप से चिपक जाते हैं। यह परमाणु अनुकूल परिस्थितियाँ पाकर पुष्ट होते हैं और एक अदृश्य व्यक्ति जैसी स्वतंत्र सत्ता कायम कर लेते हैं।

एक घर में बहुत समय तक एक वेश्या रही, पीछे वह चली गई। उसी मकान में कुछ दिन बाद एक सदाचारी भद्रपुरुष का रहना हुआ। वे बहुत संयमी, ब्रह्मचारी और अच्छे विचारों के थे। किंतु जिस दिन से उस मकान में रहे, उसी दिन से उन्हें नित्य स्वप्नदोष होने लगा। स्वप्न में उन्हें एक सुंदर स्त्री दिखाई पड़ती थी और उसी की कुचेष्टाएँ उन्हें गिरा देती थीं। एक दिन वे बाजार में जा रहे थे तो देखा कि साक्षात वही स्त्री कोठे पर बैठी हुई है, जो उन्हें रात में दिखाई पड़ती है, वे बहुत असमंजस में पड़े कि यह क्या मामला है। वे घबराए हुए हमारे पास आए, हमें सारी घटना उन्होंने बताई। तलाश करने पर मालूम हुआ कि वह वेश्या उस मकान में रहती थी। हमने उन भद्रपुरुष को बताया कि उस वेश्या के कुछ विद्युत-कण उस मकान में रह रहे हैं और परिस्थितियों के कारण उन्होंने अपनी अलग सत्ता कायम कर ली है, वे एक प्रकार से जीवित व्यक्ति का प्रेत बन गए हैं। वे ही इस तरह कार्य करते हैं। आप उस मकान को खाली कर दीजिए। उन भद्रपुरुष ने मकान छोड़कर दूसरा ले लिया, इसके बाद न उन्हें स्वप्नदोष हुआ और न कभी वह स्त्री दिखाई दी।

ऐतिहासिक स्थानों या तीर्थस्थानों में कभी-कभी वहाँ के प्राचीन पुरुषों की झलक दिखाई दे जाती है। वृंदावन की सेवाकुंज में कभी-कभी श्रीकृष्णजी की एक अस्फुट-सी झाँकी लोगों को हुई है, किन्हीं ने रासलीला होती देखी है। ऐसे दृश्यों का कारण यह है। कि ऊँची आत्माओं का तेज बहुत बढ़ा-चढ़ा होता है, उस तेज के विद्युत कण हजारों वर्षों तक वहाँ बने रहते हैं और समय-समय पर उनका मूर्त रूप देखने में आता रहता है। कुरुक्षेत्र, इंद्रप्रस्थ आदि के ऐतिहासिक स्थानों में किन्हीं को महाभारत कालीन पुरुषों की झाँकियाँ हुई हैं। तीर्थों के वातावरण में एक विशेषता यह होती है कि वहाँ जो प्रख्यात मनस्वी महापुरुष हुए हैं, उनका प्रभाव किसी-न-किसी रूप में विद्यमान रहता है और वह अनुकूल मनोभूमि वाले लोगों को विशेष रूप से प्रभावित करता है।

स्पष्ट है कि जहाँ मनुष्य शरीरों का कुछ असाधारण प्रयोग हुआ है, वहाँ भूत-ब्याधा जैसी गड़बड़े बहुत देखी जाती हैं। श्मशान, कब्रिस्तान, फाँसीघर, जिवहखाने आदि स्थानों का वातावरण बड़ा आतंकित रहता है। इन स्थानों में शरीर यंत्र का असाधारण उपयोग किया जाता है, जिसके कारण उन शरीरों के कुछ परमाणु वहाँ जम जाते हैं और समय-समय पर अपना अस्तित्व प्रकट करते हैं। उन स्थानों की समीपता में आने वालों को भय और आतंक उत्पन्न करने वाले कई प्रकार के अनुभव होते हैं। जिन घरों में हत्याएँ होती हैं, दुष्ट कर्म होते हैं, उनमें भी ऐसा ही भयावह वातावरण बना रहता है। इन भयंकरताओं की मूल में वे परमाणु हैं, जो भूतपूर्व व्यक्तियों के शरीर से असाधारण प्रतिक्रिया द्वारा निकले हैं। वे आत्माएँ भले ही मर चुकी हों, दूसरी जगह जन्म ले चुकी हों या जीवित हों, जो भी स्थिति हो पर उनके सूक्ष्मशरीर से निकले हुए यह प्रेत स्वतंत्र रूप से बहुत काल तक अपना अस्तित्व बनाए रहते हैं और परिचय देते रहते हैं। इन परमाणु प्रेतों द्वारा भी वैसे ही विस्मयजनक भयंकर कार्य होते हैं, जैसे अन्य प्रकार के भूतों द्वारा हो सकते हैं।

(४) इंद्रिय भोगों से अतृप्त वासनाग्रस्त प्रेत अपने प्रियजनों पर विशेष रूप से आतंक जमाते हैं, क्योंकि उनका पहले से ही उनसे परिचय होता है और अपने पूर्व अनुभव के आधार पर वे सोचते हैं कि इच्छाएँ इनके द्वारा पूरी हो सकती हैं। खाने-पीने की चीजों की उनकी इच्छा अधिक होती है, कोई अपने लिए चबूतरा, वृक्ष आदि रहने योग्य स्थान चाहते हैं, किन्हीं को दान-पुण्य, तीर्थयात्रा, देवदर्शनादि शुभ कर्मों में रुचि होती है। कोई अपनी आज्ञापालन कराके अपने अहंकार को पूरा करना चाहते हैं। जो भी उनकी इच्छा हो उसे पूर्ण कराने के लिए वे उपद्रव करते हैं और जब उनकी इच्छा पूर्ण हो जाती है तो संतुष्ट हो जाते हैं। इनके निवास स्थानों को अपवित्र करने वाले, वहाँ विघ्न-बाधा उपस्थित करने वाले ही अकसर उनके क्रोधभाजन बनते हैं। मध्याह्न या मध्यरात्रि के समय उनका क्षोभ बढ़ता है, इस समय में निकटस्थ व्यक्ति पर अकारण ही वे आक्रमण कर बैठते हैं। पिछले जन्म का बदला चुकाने के लिए उनके उत्पात होते हैं।

(५) अपने प्रियजनों में अतिशय मोह करने वाले मनुष्य मृत्यु के उपरांत अपनी प्रबल मोह भावना के वशीभूत होकर प्रेत-योनि पाते हैं और अपने उसी घर के आस-पास फिरते रहते हैं। अपने बाल-बच्चों को हँसता-खेलता देखकर प्रसन्न होते हैं। वृद्धजन अक्सर इस कोटि में आते हैं, वे किसी को हानि नहीं पहुँचाते, वरन समय-समय पर कुटुंबियों को आपत्तियों से सचेत किया करते हैं और विपत्ति-निवारण में सहायता करते हैं। इन्हें पितर कहते हैं।

जो तरुण अवस्था में मृत्यु को प्राप्त होते हैं और जिनकी लालसाएँ अत्यंत उग्र एवं स्वार्थपूर्ण होती हैं, वे अपने प्रियजनों को अपनी जैसी प्रेत-अवस्था में ले जाकर साथ रखने की इच्छा करते हैं और उसी भावना से वे अपने प्रियजनों को मार डालने का भीआयोजन करते हैं। तरुण स्त्रियाँ जो अपने बाल-बच्चों को छोटा केवल अनाश्रित छोड़कर मर जाती हैं, वे इस प्रकार के कार्य अधिक करती हैं, अपने बच्चों को अपने साथ रखने की मोहमयी लालसा उनसे इस प्रकार का कार्य कराती है।

(६) तांत्रिक साधनाओं द्वारा छायापुरुष, भैरवी, भवानी, वेताल, पीर, जिन्न, पिशाचिनी आदि की सिद्धि की जाती है, उन्हें वश में किया जाता है। उनकी सहायता से अमुक वस्तुएँ प्राप्त की जाती हैं, अमुक कार्य पूरे किए जाते हैं और अमुक व्यक्तियों को अमुक प्रकार की हानियाँ पहुँचाई जाती हैं। सेवक की तरह ये संकल्प प्रतिमाएँ काम करती हैं। जो भूत, पिशाच, देव इस प्रकार वशीभूत किए जाते हैं, वे साधक की निजी मानसिक और शारीरिक शक्तियों के मंथन से उत्पन्न हुए एक प्रकार के अदृश्य प्राणी होते हैं। शारीरिक विद्युत के परमाणु अवसर पाकर अपने आप एक स्वतंत्र इकाई बन जाते हैं, किंतु यह देव-दानव तांत्रिक विधियों से उत्पन्न किए जाते हैं। इस प्रकार ये अपने ही ‘मानस पुत्र' होते हैं, परंतु प्रतीत ऐसा होता है कि वे पहले से ही कोई स्वतंत्र सत्ता रखते थे। वास्तव में उनकी कोई स्वतंत्र सत्ता पहले से नहीं होती है वरन साधक उन्हें स्वयं उत्पन्न करता है। जितनी दृढ़ उसकी श्रद्धा और साधना होती है, उसी अनुपात से इन देवदानवों की कार्यशक्ति होती है। दुर्बल मानसिक बल वाले ऐसी कोई प्रतिमा वशीभूत कर लें तो भी उसकी कार्यशक्ति बहुत ही तुच्छ रहेगी, उसके द्वारा कोई महत्त्वपूर्ण कार्य न हो सकेगा। हाँ, जितना मानसिक बल बढ़ा-चढ़ा है, उसका देव-दानव भी सशक्त होगा। एक की सिद्ध-प्रतिमा दूसरी से लड़ भी जाती है और जो बलवान होती है, वह दूसरे को परास्त करके अपना कार्य पूरा करती है। मारण आदि की भयंकर क्रियाएँ इन संकल्प पुत्रों द्वारा ही की जाती हैं।

(७) जीवन मुक्त आत्माओं के बारे में पूर्व में स्वतंत्र रूप से बहुत कुछ कहा जा चुका है। ये आत्माएँ मनुष्यों को सदा शुभ मार्ग पर चलने के लिए प्रोत्साहित करती हैं। शुभ कर्म करने वालों पर प्रसन्न रहती हैं। अपनी स्वाभाविक उदारता के कारण लोगों को उन्नति के कार्यों में सहायता दिया करती हैं। इनके द्वारा जन समाज का हित ही होता है, अनहित नहीं। अंतरिक्ष में ऐसे अनेक सिद्ध महात्मा तथा महापुरुषों के सूक्ष्मशरीर उड़ते रहते हैं और वे समय-समय पर मानव प्राणियों को सत्कर्मों में सहायता प्रदान किया करते हैं।

उपर्युक्त सात प्रकार के प्रेतों का परिचय जानने के उपरांत पाठक इस नतीजे पर पहुँचे होंगे कि जीवनमुक्त आत्माओं के अतिरिक्त छहों प्रकार के प्रेत हमें लाभ कम और हानि अधिक पहुँचाते हैं। लाभ का विषय ऐसा है कि उस पर विचार करने की कुछ आवश्यकता नहीं, क्योंकि लाभ किसी को बुरा नहीं लगता। यदि किन्हीं प्रेतों के द्वारा कुछ लाभ पहुँचता है तो उसके लिए किसी को कुछ चिंता नहीं होती। चिंता तब उत्पन्न होती है जब किसी को उनके द्वारा क्षति पहुँचती है। जब प्रेतों द्वारा किसी प्रकार की हानि पहुँचती है, तब उसका निवारण करने के लिए हमें चिंतित होना पड़ता है।

अब यह जानना है कि प्रेतों के उत्पात से किस प्रकार अपना बचाव किया जा सकता है। यद्यपि ऐसे उत्पात बहुत ही कम होते हैं। तो भी जिन्हें उस अवस्था में पड़ जाने का दुर्भाग्य प्राप्त होता है। उनके भय, कष्ट और दुःख का ठिकाना नहीं रहता। अनुभव से ज्ञात हुआ है कि जितने भी भूत उत्पात होते हैं उनमें से दो-तिहाई भय एवं कल्पना से उत्पन्न हुए भूतों के होते हैं। अपनी मानसिक निर्बलता के कारण लोग आशंका और भय की मूर्तिमान प्रतिमा तैयार कर लेते हैं और उसी से भयभीत होते रहते हैं। अज्ञान, कुसंस्कार, आत्मिक निर्बलता और अंधविश्वास के कारण काल्पनिक भूत उत्पन्न होते हैं और उन्हीं लोगों को डराते-धमकाते हैं। यदि साहस और आत्मविश्वास का अभाव न हो तथा भय दिखाने वाली बात की गंभीरतापूर्वक खोज करने की आदत डाली जाए, तो इन काल्पनिक भूतों का अस्तित्व नष्ट हो सकता है। चूहों की खड़बड़ को लोग भूतों की करतूत मान बैठते हैं। अँधेरे में झाड़ी की टहनियाँ यदि हाथ-पाँव से दिखाई दे रहे हों या केंचुली की मिट्टी बिखर रही हो, तो मसाल जलाकर भूतों की बरात निकलती समझी जाती है। घर में बंदर ने ईटें या पत्थर फेंक दिए हों, तो वह भी भूत की हरकत समझी जाती है। कोई मसखरा या धूर्त व्यक्ति ऐसे आडंबर रच डालता है, जिसे सहज ही भूत की माया समझा जा सकता है। इस प्रकार की घटनाओं की गंभीरतापूर्वक छानबीन की जाए तो कारण का पता चल जाता है और भ्रम से सहज ही छुटकारा मिल जाता है।

मिथ्या भ्रमों के विरुद्ध जोरदार आंदोलन किया जाए और मिथ्या विश्वासों को लोगों के मन से हटा दिया जाए तो भूतों की दो-तिहाई बाधा मिट सकती है। शेष एक-तिहाई में आधा भाग मनुष्य शरीर के निकले हुए विद्युत परमाणुओं की स्वतंत्र सत्ता का होता है। इनका प्रभाव किसी स्थान विशेष में होता है, एक नियत घेरे के अंदर ही यह अपना प्रभाव दिखा सकती हैं। वह भी तब जब कोई अकेला आदमी वहाँ सुनसान समय में रहे। बहुत-से मनुष्यों की भीड़ में उनकी शक्ति निर्बल हो जाती है। इन परमाणु प्रतिमाओं में बहुत थोड़ी ताकत होती है। अपना रूप दिखा देना, स्वप्न या तंद्रावस्था में पड़े हुए व्यक्ति को अपना परिचय देना, कोई शब्द या दृश्य प्रकट करना आदि कार्यों द्वारा उनका अस्तित्व दिखाई पड़ता है। उससे डरकर कोई स्वयं ही अपनी हानि कर ले यह बात दूसरी है, वैसे उन परमाणु प्रतिमाओं में ऐसी शक्ति नहीं होती कि किसी को कुछ हानि-लाभ पहुँचा सकें। सैकड़ा पीछे पंद्रह-बीस घटनाएँ इन प्रतिमाओं के द्वारा होती हुई देखी जाती हैं।

जिन घरों में इस प्रकार की गड़बड़ी दिखाई पड़े उन्हें कई बार अच्छी तरह चूना, गोबर, फिनायल आदि से साफ करना चाहिए। नीम की पत्तियाँ घरों में जलाकर बाहर से दरवाजे बंद कर देना चाहिए ताकि पत्तियों का धुआँ घर में भर जाए। इसके अतिरिक्त हवन, यज्ञ आदि का भी अच्छा प्रभाव पड़ता है। जागरण, धार्मिक गीत-वाद्य, संकीर्तन, शंख-ध्वनि से इस प्रकार की अणुमूर्तियों को हटाने में सहायता मिलती है।

प्रेतोन्माद के मानसिक रोग की चिकित्सा आरंभ करते हुए रोगी को बल-वीर्यवर्द्धक भोजन देना चाहिए। ब्राह्मी, शतावरि, आँवला, सालभ, गोरखमुंडी, शंखपुष्पी, वच प्रभृति औषधियाँ सेवन करना, ब्राह्मी तथा आँवले का तेल सिर एवं शरीर पर मलवाना हितकर रहता है। जिस स्थान से रोगी का जी उचट रहा हो, वहाँ से हटाकर कुछ दिन के लिए इच्छित स्थान में रखना भी उचित है। जहाँ तक संभव हो उसे संतुष्ट और प्रसन्न रखने का प्रयत्न किया जाए। सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार करने और मस्तिष्क को शक्ति देने वाली चीजें सेवन कराने से ऐसे रोगी बहत अच्छे हो जाते हैं।

जिन्हें ऐसा विश्वास जग गया हो कि मुझे किसी बलवान भृत ने पकड़ रखा है और अब मुझ से कुछ नहीं हो सकता। ऐसे निर्बल स्वभाव वाले व्यक्तियों के सामने कुछ ऐसा आडंबर रचना होता है, जिससे प्रभावित होकर, वे यह विश्वास कर लें कि हमारे ऊपर जो भूत था वह संतुष्ट कर दिया या मार भगाया गया। काँटे से काँटा निकालने की और विष से विष मारने की नीति से यहाँ काम लेना पड़ता है, इसके अतिरिक्त और कोई चारा नहीं। जिनके अंतर्मन में यह विश्वास गहरा उतर चुका है कि मेरे ऊपर भूत चढ़ा है, उसका भ्रम यह कहने मात्र से ही नहीं मिट सकता कि तुम्हें कुछ नहीं है, केवल तुम्हारी काल्पनिकता और मानसिक निर्बलता है। रोगी इस बात को नहीं मान सकता, उसे इस पर विश्वास नहीं हो सकता। हर व्यक्ति की मानसिक स्थिति भिन्न होती है। जो लोग अपने विश्वास के आधार पर भूतग्रस्त हो जाते हैं, उनमें भावुकता की मात्रा अधिक होती है, ऐसे लोगों को नाटकीय ढंग से कुछ अद्भुत विचित्र और आतंक उत्पन्न करने वाली पद्धति से अच्छा किया जाता है।

यूरोपीय रीतियों के अनुसार प्लेनचिट ऑटोमेटिक राइटिंग करने की पद्धति का हमारे देश में भी प्रचार हो गया है। पहले हमें भी उसे ठीक समझते थे, परंतु नए अनुभवों के आधार पर ऐसा प्रतीत हुआ कि यह अपनी ही मानसिक शक्तियों का एक खेल है। इन उपायों द्वारा किसी मृतात्मा के संदेश आना बहुत संदेहास्पद है। इसलिए इन साधनों का प्रयोग करने के लिए हम अपने पाठकों को सलाह नहीं दे सकते। अपनी ओर से भूत-प्रेतों के संबंध में अधिक रुचि लेना भी ठीक नहीं। हाँ किसी को अनायास भूत-ब्याधी का शिकार होना पड़े, तो उससे छुटकारा पाने के लिए प्रयत्न करना आवश्यक है।

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