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आचार्य श्रीराम शर्मा >> क्या धर्म अफीम की गोली है ?

क्या धर्म अफीम की गोली है ?

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :103
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15527
आईएसबीएन :0

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क्या धर्म अफीम की गोली है ?

धर्म ही मानवीय जीवन को संस्कारित करेगा


हरबर्ट स्पेन्सर कहते-"विज्ञान और दर्शन का क्षेत्र अत्यधिक विस्तृत है। विज्ञान मात्र प्रकृति के कुछ रहस्यों पर से परदा उठाता है, किंतु दर्शन विश्वचेतना के अनेक पक्षों पर प्रकाश डालता है, बताता है कि चिंतन की धाराएँ किस प्रकार परिष्कृत की जा सकती। हैं? प्रकृति की क्षमताएँ उपयोग में लाकर अनेक सुविधाएँ पाई जा सकती हैं, पर उन सुविधाओं का समुचित उपभोग करने के लिए मनुष्य की चिंतन-प्रक्रिया का आधार क्या हो, यह बताना दर्शन का काम है। दर्शन वृक्ष है और विज्ञान उसकी एक टहनी। विज्ञानवेत्ता की तुलना में दार्शनिक का कार्यक्षेत्र और उत्तरदायित्व अति विस्तृत है।''

प्रो० मेक्समूलर भारतीय धर्म के गहन अध्ययन के उपरांत इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि भारत को धर्म और दर्शन का जन्मदाता माना जाना चाहिए। महान दार्शनिक विक्टर ह्यूगो जिनका कथन है कि भारत में दर्शन का समस्त इतिहास बहुत संश्लिष्ट है। प्लेटो, स्पीनोजा, वर्कले, ह्यूम, कांट, हेगल, स्कोफेन्यूअर, स्पेंसर, डार्विन आदि ने एक स्वर से भारतीय दर्शन को विश्व सत्य के अतीव निकट माना है। प्रो० हक्सले का कथन है, “प्रकृति के कानूनों का जैसा बुद्धिसंगत और विज्ञान सम्मत विवेचन भारतीय दर्शन में किया गया है वैसा विश्व भर में अन्यत्र कहीं दृष्टिगोचर नहीं होता''। मोनियर विलियम का कथन है-'इस सहस्राब्दी के दार्शनिक केवल उन्हीं तथ्यों को अपने ढंग से ऊहापोह कर रहे हैं, जिनका कि भारतीय तत्त्ववेत्ता चिर अतीत में सघन प्रतिपादन और विस्तृत विवेचन कर चुके हैं। प्रो० हिंग्वे जेन ने लिखा है-''ऋग्वेद में नृतत्त्व विज्ञान और प्रकृति विज्ञान का जैसा सुंदर विश्लेषण है, वैसा आधुनिक विज्ञान की समस्त धाराएँ मिलकर भी नहीं कर सकीं।''

प्रो० हापकिंस ने अपनी पुस्तक 'रिलीजन ऑफ इण्डिया' नामक पुस्तक में विस्तारपूर्वक लिखा है कि हिंदू धर्म की महत्त्वपर्ण विशेषता सहिष्णु और समन्वयात्मक दृष्टिकोण है। भिन्न मान्यताओं को उसमें उदारता पूर्वक सम्मान दिया गया है। ईसा से ३०० वर्ष पूर्व तक का जो इतिहास मिलता है, उससे यही सिद्ध होता है कि धर्म के नाम पर भारत में कभी कोई विग्रह नहीं हुआ। भारत में अनेक विचारधाराएँ अपने-अपने ढंग से फलती-फूलती रहीं और उन सबका मंथन करके सत्य के निकट पहुँचने में मानवीय मस्तिष्क को भारतीय धर्म से बहुत सहायता मिली।

फेराड्रक स्वेलेजन की शोध यह प्रामाणित करती है कि विश्व दर्शन पर भारतीय तत्त्वज्ञान की अमिट छाप है। उसने कांट के दार्शनिक प्रतिपादन को भी भारतीय दर्शन के एक अंश की व्याख्या मात्र माना है। स्कोफेनर भी इसी निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि सहज ही योजनाबद्ध चिंतन कर सकने वाली दार्शनिक मान्यताएँ भारत की ही देन हैं।

दर्शनशास्त्र को प्रत्यक्षवादियों द्वारा शब्दाडंबर, वाग्विलास, कल्पना, काव्य आदि व्यंग्य शब्दों से संबोधित किया गया है, पर वस्तुतः वह वैसा है नहीं। विचार करने की अस्त-व्यस्त शैली को, क्रमबद्ध और दिशाबद्ध करने का महान प्रयोजन दार्शनिक शैली से ही हो सकना संभव है। अन्यथा उच्छृखल गतिविधियाँ और अनगढ़ मान्यताओं का मिला-जुला स्वरूप ऐसा विचित्र बन जाएगा जिससे किसी लक्ष्य तक न पहुँचा जा सकेगा। उससे अंधड़ में इधर-उधर उड़ते- फिरते रहने वाले तिनके की तरह कुछ महत्त्वपूर्ण कार्य कर सकने में सफलता न मिलेगी। योजनाबद्ध चिंतन की भी उपयोगिता है। वह कार्य दार्शनिक रीति-नीति से ही संभव हो सकता है।

जीवन का यदि कोई दर्शन न हो, उसके साथ कुछ आस्थाएँ, मान्यताएँ जुड़ी न हों, किन्हीं सिद्धांतों का समावेश न हो तो आदमी, आदमी न रहकर एक प्राणीमात्र रह जाता है। गुजारे भर का लक्ष्य लेकर चलने वाले अपनी योग्यता और तत्परता के अनुसार सुविधासाधन तो न्यूनाधिक मात्रा में उपार्जित कर लेते हैं, किंतु कोई ऊँचा लक्ष्य सामने न रहने पर अंतरात्मा में जीवंत उत्साह नहीं सँजो पाते। यों सामान्य उत्साह तो भौतिक महत्त्वाकांक्षाओं की आतुर लालसा से भी उत्पन्न हो सकता है, पर उसके नैतिक बने रहने में संदेह ही बना रहेगा। भौतिक लाभों की अपेक्षा यदि किन्हीं आदर्शों की पूर्ति को लक्ष्य बनाकर चला जाए, तो उत्साह भरी सक्रियता के अतिरिक्त उसके साथ उत्कृष्टतावादी तत्त्व भी जुड़े रहेंगे और उन प्रयासों से आत्मिक उन्नति का लाभ होता रहेगा, भले ही भौतिक लाभ उतना न हो। लोकहित की ऐसी महत्त्वाकांक्षाएँ जिनमें अपने पुरुषार्थ का प्रकटीकरण ही नहीं, आदर्शवादी होने का भी परिचय मिलता हो, निश्चित रूप से उस महत्त्वाकांक्षी के व्यक्तित्त्व को सम्मानास्पद बनाती हैं। इस उपलब्धि के सहारे मनुष्य उस स्थिति में पहुँच जाता है, जिसमें जन सहयोग के सहारे वैसा कुछ प्राप्त किया जा सके जो धन-संपदा से भी अधिक मूल्यवान है।

मानवीय प्रकृति की व्याख्या करते हुए हमें उसके दृष्टिकोण और चित्रण के स्तर का भी मूल्यांकन करना चाहिए। भौतिक दृष्टि से सुखी संपन्न बन जाने पर भी यदि मनुष्य उद्देश्य विहीन और आदर्श रहित बना रहे तो वह अपने लिए संतोष एवं गौरव प्राप्त न कर सकेगा। समाज में उसे न तो उपयोगी माना जाएगा और ने उसे सम्मान दिया जाएगा।

नोबुल पुरस्कार विजेता फ्रांसीसी वैज्ञानिक अलेक्सिस फैरेल ने कहा है-“हम बहुत कुछ खोज चुके और अगले दिनों इससे भी अधिक रहस्यपूर्ण प्रकृतिगत रहस्यों को खोजने जा रहे हैं, किंतु अभी भी ‘मनुष्य' पहले की तरह ही अविज्ञात बना हुआ है। सच तो यह है कि वह इस प्रकार खोता चला जा रहा है कि अगले दिनों उसे खोज निकालना कठिन हो जाएगा। मनुष्य की ज्ञान-संपदा आश्चर्यजनक गति से बढ़ी है, पर अपने संबंध में वह अभी भी असीम अज्ञान से जकड़ा हुआ है।''

विद्वानों की संख्या बढ़ती देखकर प्रसन्नता होती है, पर खेद इस बात का है कि ज्ञानी तेजी से समाप्त होते चले जा रहे हैं। विद्वान और ज्ञानी का अंतर बताते हुए चीनी दार्शनिक लाओत्से कहते थे- ''जो अपने को जानता है, वह ज्ञानी और जो दूसरों को जानता है वह विद्वान है। अपने संबंध में बढ़ता हुआ अनाड़ीपन ही मनुष्य को जटिल उलझनों में और समाज को कठिन समस्याओं में जकड़ता चला जा रहा है।''

‘मैन दि अननोन' ग्रंथ के लेखक वैज्ञानिक का कथन है कि मानवीय काया का रासायनिक विश्लेषण सरल है। अवयवों की हरकतें समझने में भी सफलता मिली है, सोचने का तंत्र मस्तिष्क किधर चलता और किस तरह करवटें बदलता है- इसका पता भी लगता जा रहा है। सभ्यता का विकास हो रहा है, पर मनुष्य का पिछड़ापन बरकरार है। आदमी ने दुनिया को अपने योग्य बनाया पर वह अपने लिए 'पराया' बन गया है। सूनेपन का दबाव बढ़ रहा है और भीड़ से अलग होकर जब वह देखता है तो लगता है कि न वह किसी का है और न कोई उसका। यह अपने आपे की क्षति इतनी बड़ी है, जिसकी पूर्ति कदाचित् प्रगति के तथाकथित सभी चरण मिलकर पूरा नहीं कर सकेंगे।

मनुष्य के खंड-खंड का चिंतन-विश्लेषण चल रहा है। उसके अस्तित्व के एक-एक भाग को समग्र शास्त्र का रूप दिया गया है। शरीरशास्त्र, मन:शास्त्र, समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र जैसे खंडों की जानकारी है तो उपयोगी, पर समग्र मानव को समझे बिना, उसकी मूल प्रकृति और प्रवृति पर ध्यान दिए बिना एकांगी आंशिक समाधानों से कुछ बनेगा नहीं। एक छेद सीते-सीते दूसरे और नए फट पड़े तो उस मरम्मत से कब तक काम चलेगा! विज्ञान की शोधें मनुष्य की कतिपय आवश्यकताओं को पूरा करने और जानकारियों को बढ़ाने के उद्देश्य से पूरी की जाती हैं, किंतु उस महाविद्या की ओर से क्यों उदासी है, जिसे समग्र मानव की विवेचना-‘साइंस ऑफ मैन' कह सकते हैं।

विज्ञान के आविष्कारकों ने अपने आप को खपाया-श्रमिकों के स्वेद कणों ने विशालकाय निर्माण संपन्न किए है, इंजीनियरों की तन्मयता से निर्माण की योजनाएँ बनती हैं। कलाकार अपनी चेतना को भाव-तरंगों में घुलाकर उपस्थित लोगों को मंत्रमुग्ध करते हैं। आत्मविज्ञानी अपने चिंतन और कर्म का समन्वय करते हुए अपने व्यक्तित्वों को एक सफल प्रयोगशाला के रूप में प्रस्तुत कर सकें तो जन साधारण में भी उसके लिए उत्साह उत्पन्न होगा। लक्ष्य ऊँचा हो और संकल्प प्रखर, तो फिर मनुष्य के लिए बड़े से बड़ा उत्सर्ग कर सकना भी कुछ कठिन नहीं है। चिंतन और व्यवहार का समन्वय करती हुई आदर्शवादी आस्थाओं की स्थापना ही अपने युग की महान क्रांति हो सकती है। उज्ज्वल भविष्य की आशा उसी से बँधेगी। इसका नेतृत्व करने के लिए ऐसे अग्रगामियों की आवश्यकता है जो लोक-शिक्षण के लिए सबसे प्रभावशाली उपाय आदर्शों के अनुरूप आत्मनिर्माण अपना सकें और जलते दीपक द्वारा नए दीपकों के जलने की परंपरा स्थापित कर सकें।

व्यक्ति, समाज का एक मूल्यवान घटक है। उसके प्रयासों का परिणाम उस अकेले तक ही सीमित नहीं रहता वरन् अनेक की इसमें साझेदारी रहती है। समुद्र की लहरें एक दूसरे को प्रभावित करती हैं। और मनुष्य एक दूसरे पर अनायास ही अपना प्रभाव छोड़ते हैं। बुरा व्यक्ति अपनी बुराई करके स्वयं दुष्परिणाम भुगत लेता तो कोई चिंता की बात नहीं थी, पर ध्यान देने योग्य बात यह है कि उसकी प्रत्येक गतिविधि की दूसरों पर भली-बरी प्रतिक्रिया होती है। भला मनुष्य परोक्ष रूप में भली परंपरा पैदा करके असंख्यों को किसी-न-किसी रूप में सुखी बनाता और ऊँचा उठाता है। इसके विपरीत दुर्बुद्धिग्रस्त व्यक्ति अपने दुष्ट चिंतन और चरित्र से कइयों को अनुयायी बनाता है और कितनों को ही कष्टकारक परिस्थितियों में धकेलता है। अस्तु, समग्र प्रगति की सुख-शांतिदायिनी दिशा अभीष्ट हो तो व्यक्ति के अंतराल को परिष्कृत बनाने के लिए उतने ही प्रयत्न करने पड़ेंगे जितने कि भौतिक सुविधा-संवर्द्धन के लिए किए जाते हैं। भीड़ को दिशा निर्देश देने का काम चलता रहे, पर व्यक्तित्त्वों की गहरी परते कितनी मूल्यवान हैं, इसका महत्त्व आँखों से ओझल न होने पाए इसका पूरा-पूरा ध्यान रखा जाना चाहिए।

भारतीय धर्म दर्शन में ये सारी विशेषताएँ मौजूद हैं जिनका अवलंबन लेकर व्यक्तित्व को परिष्कृत एवं श्रेष्ठ बनाया जा सकता है। परिष्कृत व्यक्तित्व ही मनुष्य, समाज और विश्व को प्रकाश और प्रेरणा दे सकते हैं। इस युग को केवल यही चाहिए, शेष सब कुछ तो यहाँ पहले से ही विद्यमान है।

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