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आचार्य श्रीराम शर्मा >> क्या धर्म अफीम की गोली है ?

क्या धर्म अफीम की गोली है ?

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :103
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15527
आईएसबीएन :0

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क्या धर्म अफीम की गोली है ?

विज्ञान और अध्यात्म का समन्वय निश्चित


विज्ञान में प्रौढ़ता और परिपक्वता आई है। अस्तु, शोधों ने नए आधार दिए हैं। अब ईश्वर को न मानने का आग्रह पुराने जमाने की बात हो गई, नवीनतम समस्या यह है कि कहीं पदार्थ की सत्ता ही तो समाप्त होने नहीं जा रही है। विज्ञान पदार्थ के गण और स्वरूप का निर्धारण करता है, पर जब पदार्थ सत्ता का ही लोप हो जाएगा तो फिर विज्ञान का अस्तित्व किस पर निर्भर रहेगा? मूर्द्धन्य वैज्ञानिक आज सोच रहे हैं कि भौतिकी का सारा ढाँचा जो आँखों के सामने खड़ा है, कहीं जादुई महल तो नहीं है।

आधुनिक भौतिकी के अनुसंधानों ने अध्यात्म की उन अनंत संभावनाओं के समर्थन की ही दिशा प्रशस्त की है, जिन्हें उन्नीसवीं शताब्दी से बीसवीं के पूर्वार्द्ध तक स्वप्निल कुहेलिका मात्र माना जाता था। ‘पदार्थ' की सत्ता की खोज ने ‘परमाणु' तक पहुँचाया और परमाणु की खोज में बढ़ते-बढ़ते यह तथ्य प्रकाश में आया कि ये विद्युततरंगों के संघात मात्र ही हैं और अब, अधुनातन अनुसंधानों द्वारा यही स्पष्ट होता है कि ये विद्युत तरंगें भी अज्ञात तरंग समूहों का ही एक अंश मात्र हैं। इस तरह भौतिकी आज अज्ञात, अनंत तरंग-संघातों के तथ्य तक पहुँचकर अद्वैत वेदांत की स्थापनाओं के अति निकट आ गई है। आधुनिक भौतिकीविद् इस स्थान पर आकर विस्मय और रहस्य से भर उठे हैं तथा उसमें जिज्ञासा और अन्वेषण का संकल्प और अधिक प्रखर हो गया है, क्योंकि वे स्पष्ट देख रहे हैं कि पदार्थ की मूलसत्ता के अन्वेषण-क्रम में जिन अज्ञात तरंग संघातों की जानकारी तक वे आ पहुँचे हैं, वे तरंगें भी अपने मूलरूप में क्या हैं? यह जान सकना बहुत ही कठिन हो गया है, क्योंकि ये तरंग-समूह वस्तुतः मूलसत्ता नहीं कही जा सकतीं, अपितु इलेक्ट्रॉनिक कार्यविधि की हमारी जो जानकारी है, उसी की मानो यह मानसिक संरचना है।

इस तरह वस्तुपरक विश्व तो मनस और आत्मा के क्षेत्र में समाहित एवं विलुप्त होता जा रहा है। आज यदि भौतिकीविद् से पूछा जाए कि यह जगत क्या है? तो वह यही उत्तर देगा कि अब तक ऊर्जा और इलेक्ट्रॉनिक क्रियाविधि' की जो भी जानकारी प्राप्त कर सके हैं, उसी की कल्पना-सीमा में बाँधने पर हम भले ही विश्व की मूलसत्ता को कुछ तरंग-समूहों का नाम दे दें, पर सच बात तो यह है कि यह दुनिया ऐसी अज्ञात और अकथनीय तरंगों का संघात मात्र है, जिनके बारे में हम जो कुछ भी जानते हैं, वही कह सकते हैं, पर इस निवेदन के साथ कि मूलस्वरूप उसका क्या है? यह हमें स्वयं ज्ञात नहीं। अर्थात 'कहत कठिन समुझत कठिन।'

इस प्रकार विज्ञान भी आज अध्यात्म की ही तरह विनम्र है और अपनी सीमाओं की घोषणा कर रहा है। बालबुद्धि का शोर अब थम गया है। यों विज्ञान दुराग्रही कभी भी नहीं रहा। उसकी नास्तिकता अपनी स्थिति का विवरण-प्रतिवेदन मात्र थी, कोई निश्चित निष्कर्ष नहीं, उसने सृष्टि की चैतन्यसत्ता के अस्तित्व की संभावना को अस्वीकार कभी भी नहीं किया था। वह तो अपने प्रतिपाद्य विषय के निष्कर्षों को प्रस्तुत कर देता रहा है। उसका प्रतिपाद्य विषय इंद्रिय बोध के आधार पर सूक्ष्मदर्शी उपकरणों की सहायता से वस्तुसत्ता का विश्लेषण-विवेचन और निष्कर्ष-संग्रह रहा है। इस प्रक्रिया में वह 'मैटर' को ही अपना अनुशासन-क्षेत्र बनाए रहा है। 'मैटर' की मूलभूत सत्ता का विवेचन वह निष्ठा और श्रम के साथ करता रहा है। किंतु अब अब इस मैटर' की मूलभूत सत्ता ही संदिग्ध और अनिश्चित हो गई है।

भौतिकी वैज्ञानिकों की मान्यता है कि शीशे और काँसे से अधिक भारी परमाणु स्थायी नहीं है। वे टूट जाते हैं। रेडियो-सक्रिय द्रव्य से जब विकिरण निष्क्रमणित हो जाता है तो उनकी रेडियो सक्रियता की शक्ति मंय कुछ कमी पाई जाती है। यह क्षरण की प्रक्रिया है। इस प्रकार एक परमाणु विसंगठित तथा विसर्जित हो सकता है। परमाणु संपूर्णतः स्थायी वस्तु नहीं है, इसके विपरीत वे परिवर्तनशील हैं, उत्पन्न होते तथा नष्ट होते रहते हैं। इस प्रकार ‘मैटर' की कोई मूलभूत सत्ता इस रूप में नहीं है, उसका भी जन्ममरण होता रहता है। द्रव्य की सक्रियता का अर्थ है- क्रमशः क्षीण होते जाना और अंत में समाप्त हो जाना। इसलिए वैज्ञानिक अब यह मानते हैं कि द्रव्यमय जगत का ह्रास एवं विनाश अनिवार्य है। भौतिकीविदों ने खोज की है कि प्रकृति के क्रियाकलापों में प्रत्येक अपव्यय का लेखा-जोखा रहता है। इस प्रकार संतुलन क्रमशः कम हो रहा है। एक दिन यह पूरी तरह गड़बड़ा जाएगा और सृष्टि का वर्तमान स्वरूप विघटित हो जाएगा।

एक सामान्य व्यक्ति के लिए यह संसार रूप, रंग, ध्वनि, ताप आदि का समन्वित स्वरूप है, किंतु एक आधनिक वैज्ञानिक की दृष्टि में यह सृष्टि रंग रहित, गंध रहित, ध्वनि रहित है। उनकी दृष्टि-प्रकृति में वस्तुतः द्रव्य है ही नहीं। वह सिर्फ दिक्काल का और विद्युत प्रवाहों का ऐसा विस्तार है, जिन्हें संभावनाओं की अज्ञात तरंगों के द्वारा ही वर्णित किया जा सकता है, अर्थात ऐसी तरंगों का खेल है यह संसार, जिसमें अनंत संभावनाएँ विद्यमान हैं और जिनका मूलस्वरूप अज्ञात है। यह ठोस दिखने वाला विश्व जब भली भाँति विश्लेषित किया जाता है तो एक ऐसे रहस्यमय परिमाण (क्वान्टिटी) का रूप ले लेता है, जिसका वर्णन असंभव है, कुछ गणितीय प्रतीकों द्वारा जिसका संकेत मात्र किया जा सकता है। इस प्रकार इस भौतिकी विश्व का पूरा ढाँचा, नाना रूपों, नाना वेशों वाले नक्षत्र-मालाओं, पर्वतश्रृंखलाओं, नर-नारियों, पशु-पक्षियों, प्राणियों और वस्तुओं से भरपूर, ध्वनियों और रंगों, ताप और गंधों से भरपूर, यह पूरे का-पूरा ढाँचा अंतिम वैज्ञानिक विश्लेषण में मात्र विद्युतप्रवाहों अथवा असीम शून्य आकाश यानी अनंत संभावनाओं से भरी तरंगों का समुच्चय मात्र रह जाता है।' मैटर' रह ही नहीं जाता। ठोस दीखने वाला यह संसार वाष्प की तरह उड़कर अदृश्य हो जाता है। और वस्तुएँ विलीन हो जाती हैं, बहुत्व की ओर बढ़ता-सा दीख रहा, विभिन्न रूपों तथा नामों में अभिव्यक्त हो रहा यह ब्रह्मांड एक ही अतिसूक्ष्म मूलसत्ता में, शक्ति के उस मूलरूप में समाहित हो जाता है, जहाँ से कि उसका उद्गम होता है।

'दि यूनीवर्स एंड डॉ० आइन्स्टाइन' के लेखक बर्टन लिखते हैं-''जिसे वैज्ञानिक तथा दार्शनिक आभासमय जगत कहते हैं, वह संसार है, जो कि मरणधर्मा मनुष्य अपनी प्रकृति के अनुरूप अनुभव करता है। जिसे वैज्ञानिक और दार्शनिक यथार्थ जगत कहते हैं-वह रंग रहित, ध्वनि रहित, अव्याख्येय ‘कॉस्मॉस' है। मनुष्य के प्रक्षेपण के तल में यथार्थ जगत प्रतीकों का एक कंकाल-ढाँचा मात्र है।''

'गाइड टू फिलासफी' नामक पुस्तक में श्री जोड ने भी ऐसा ही कुछ कहा है-''मैटर दिक् तथा काल में विस्तृत एक रस्सी की ऐंठन की तरह है। यह एक इलेक्ट्रॉनी कुकुरमुत्ता है। अनंत संभावनाओं की एक ऐसी तरंग है, जो कुछ नहीं जैसा है। ऐसी विद्युतधाराओं का समूह है, जो किसी भी वस्तु में प्रवाहित नहीं होती। दिक्काल में घट रही घटनाओं की एक व्यवस्था है, जिसकी विशेषताएँ मात्र गणितीय ढंग से संकेतित की जा सकती हैं।''

एडिंगटन महाशय भी कहते हैं-'मैटर' का सारभूत अंश पिघलकर छायावत् बन गया है। बह गया है, वह एक अज्ञात परिमाण मात्र रह गया है, जिसके लिए गणितीय संकेत 'क्ष' का प्रयोग किया जा सकता है।

तब क्या आकर्षक रंगों की, सम्मोहक सौंदर्य की, चित्ताकर्षक ध्वनियों और लुभावने संगीत की, पृथ्वी पर फैलने वाले प्रकाश की, जीवन उत्पन्न करने वाली ऊष्मा की कोई सत्ता नहीं है? आधुनिक वैज्ञानिकों का निष्कर्ष है कि उनकी कोई स्वतंत्र सत्ता नहीं है, उनका कोई यथार्थस्वरूप नहीं है। वे तरंगों और गतियों के विभिन्न समुह मात्र हैं। ऊष्मा क्या है? अणुओं का कंपन मात्र। ध्वनि क्या है? वातावरण की तंरगों का संघात और प्रकाश तथा वर्ण!

‘इलेक्ट्रोमेग्नेटिक स्पेक्ट्रम' में विभिन्न ‘फ्रीक्वेंसीज' की बेवलेंग्थ के अलग-अलग ‘सेट' मात्र हैं। प्रत्येक रंग प्रकाश खंड में कुछ निश्चित ‘फ्रीक्वेंसीज' तथा 'वेवलेंग्थ' की तरंगों का परिणाम है। वस्तुत: हैं मात्र ये तरंगें। जो रंग हम देखते है, वह हमारा 'आत्मपरक सृजन' है। एडिंगटन कहते हैं-तरंग है यथार्थ और रंग जो हम देखते हैं, हमारी दिमागी बनावट है।'' इस प्रकार जिसे हम वस्तु सत्य कहते हैं, वह असल में हमारा ही 'आत्मपरक सृजन' है। इस प्रकार विज्ञान अध्यात्म के ही निष्कर्षों तक आ पहुँचा। दोनों की आधार भूमि एक हो चली।

भारतीय मनीषी सृष्टि के इस स्वरूप से हजारों वर्ष पर्व से परिचित रहें हैं। वेदांत की सृष्टि-व्याख्याएँ आज भौतिकी के अनुसंधानों द्वारा भी प्रमाणित-पुष्ट हो रही हैं।

अगले दिनों विज्ञान के बढ़ते चरण निश्चित रूप से उस स्थान पर पहुँचेंगे, जहाँ प्रकृति और पुरुष का मिलन होता है। जड़-पदार्थ और चेतन जीवन में बहुत समय से अंतर माना जाता रहा है। अब बात आगे बढ़ रही है और एक चेतना का अस्तित्व ही उसी रूह में आ रहा हैं जिसमें पदार्थ का भी सम्मिश्रण है। इसे जीवन कह सकते हैं और जीवन ही निखिल ब्रह्मांड में संव्याप्त है।

अध्यात्म और विज्ञान को पिछले दिनों परस्पर विरोधी माना जाता रहा है। नवीनतम शोधे उन्हें पूरक ही नहीं, एकीभूत भी सिद्ध कर रही हैं। ऐसी दशा में यह आशा की जा सकती है कि वेदांत के उस तत्त्वदर्शन का विज्ञान द्वारा भी प्रतिपादन होगा, जिसमें अद्वैत की सर्वव्यापी सत्ता का प्रतिपादन किया गया है।

चेतना के क्षेत्र में वैज्ञानिक चिंतन का योग अगले दिनों शोध के नए आधार प्रस्तुत करेगा। यह विश्वास किया जाना चाहिए, विज्ञान के बढ़ते हुए चरण पदार्थ की मूलसत्ता की नवीन व्याख्या करेंगे, जिसका प्रतिपादन भारतीय दर्शन सदा से करता चला आ रहा है। वह दिन दूर नहीं, जब वैज्ञानिक जगत से यह आवाज मुखरित हो उठे-‘सर्व खल्विदं ब्रह्म' सर्वत्र एक चेतना समाई हुई है।

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