आचार्य श्रीराम शर्मा >> क्या धर्म अफीम की गोली है ? क्या धर्म अफीम की गोली है ?श्रीराम शर्मा आचार्य
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क्या धर्म अफीम की गोली है ?
संवेदना की समस्या कौन सुलझाएगा?
आत्मा है या नहीं? इसका उत्तर हाँ और ना में दोनों ही तरह दिया जा सकता है। 'हाँ' उनके लिए है जो ज्ञान के आधार पर सूक्ष्म विषयों पर विचार कर सकने और निष्कर्ष निकाल सकने में समर्थ हैं। 'ना' उनके लिए जो मात्र इंद्रियों के सहारे ही चेतनसत्ता का दर्शन करना चाहते हैं। चेतन सूक्ष्म है, वह चेतनसत्ता की ज्ञानाभूति द्वारा समझा और देखा जा सकता है। किसी की आँखों में से आँसू बहते देखकर आँखें तो इतना ही बता सकती हैं कि भौंहों के नीचे वाले गड्ढों में से पानी की पतली-सी धार बह रही है। उस पानी के पीछे कोई व्यथा चेतना तो नहीं भरी है, यह जान सकना जीवित अं की भाव-संवेदना के लिए ही संभव है। यदि वह न हो तो फिर आँसू और पसीने में वैज्ञानिक उपकरणों के सहारे कुछ अधिक अंतर नहीं पाया जा सकता। सूर्य की रोशनी और फूल की शोभा की अनुभूति उन्हीं को हो सकती हैं जिनकी आँखें हों। यदि दृष्टि समाप्त हो जाए तो अपने लिए संसार के सभी दृश्य समाप्त हो जाएँगे। भले ही वे अन्य लोगों के लिए यथावत् बने रहें। दृश्यों की अनुभूति में जितना महत्त्व पदार्थों के अस्तित्व का है, उससे अधिक अपनी दृष्टि का है। यह ज्ञान ही है जो हमें दृश्य या श्रव्य के स्थूल रूप की तुलना में असंख्य गुने रहस्यमय मर्मों से परिचित करता है।
ज्ञान के दो पक्ष हैं-एक विचारणा, दूसरा संवेदना। विचार मस्तिष्क की देन हैं, वे बाहर से होते हैं, प्रशिक्षण एवं अनुभव के सहारे। भाव भीतर से उठते हैं, वे अत:करण के उत्पादन हैं। विचारों से जानकारी तो बढ़ती है और बुद्धि में परिपक्वता आती है, पर उनका प्रभाव अंतस् पर नहीं के बराबर पड़ता है। बहुत पढ़ने और बहत सुनने से भी आंतरिक उत्कृष्टता उभरने का कोई निश्चय नहीं। कितने ही व्यक्ति ऐसे होते हैं, जिनके कान सत्संग सुनते-सुनते पक गए और आँखें स्वाध्याय करते-करते थक गईं। फिर भी उनकी मूलप्रवृतियों में कुछ विशेष अंतर नहीं आया। लोभ, मोह से उन्हें रत्ती भर भी विरति नहीं हुई। काम-क्रोध के आवेश घटे नहीं। धर्मोपदेशकों में धर्मधारणा और नेताओं में देशभक्ति प्रायः प्रसंग चर्चा की कलाकारिता जितनी ही दिखाई पड़ती है। दूसरों को जिन् तर्कों से वे प्रभावित कर लेते हैं, उससे अपने आप को प्रभावित नहीं कर पाते, क्योंकि वे बाहर से आए आगंतुक हैं। अपने गृह सदस्य नहीं। अंतस् तो भावों का भंडारगार है। वहाँ से निस्सृत होते हैं और वहीं के चुंबकत्व से उन्हें बाह्य जगत में से आकर्षित एवं ग्रहण किया जाता है। विचार की गति, तर्क और तथ्य के सहारे होती है और वे बढ़ते-बढ़ते विज्ञान का स्वरूप धारण कर लेते हैं। विचार के आधार पर यह संसार-पदार्थ गुच्छक या गुलदस्ता मात्र है। अथवा विभिन्न प्रकार की तरंग-प्रवाह का अंधड-क्षेत्र उसे कह सकते हैं। विद्युत चुंबकीय लहरों से भरा-पूरा समुद्र भर यह संसार रह जाता है। ऐसे ही कुछ नाम और भी उसे दिए जा सकते है। मस्तिष्कीय चेतना पदार्थ ज्ञान पर अवलंबित है और वह अपनी सीमा उसी परिधि के अंतर्गत रखती है। यही उसकी मर्यादा है। उससे आगे की ऐसी कोई बात मस्तिष्क के आधार पर नहीं जानी या पाई जा सकती, जो हृदय से, अंतस् से संबंधित है।
भाव-संवेदना, अंतस् का उत्पादन है। भावुक व्यक्ति ही दूसरों की व्यथा-वेदनाओं का अनुभव कर सकता है। पाषाणहृदय व्यक्ति पर किसी की वेदनाओं का, करुणाजनक स्थिति का कोई प्रभाव नहीं पड़ता, पर दूसरों के रुदन और चीत्कार तक को स्थितप्रज्ञ की तरह निर्मम होकर देखता रहता है। कई बार तो उनसे विनोद करता और रस लेता भी देखा गया है।
धर्म को संवेदना का उद्गमस्रोत कह सकते हैं। वह उपदेश नहीं उपचार है, जिसके सहारे दिव्य चक्षुओं पर चढ़ी ही धुंध को दूर किया जा सकता है। उस धुंध के हटने पर पदार्थ के अंतराल में संव्याप्त सत्ता को देखा जाता है। उसी के सहारे उस ब्रह्मांडव्यापी चेतना की अनुभूति होती है, जिसे विश्वात्मा कहा जाता है और जिसका घटक आत्मा है। विचार से पदार्थ के गुण-धर्म-स्वभाव और उपयोग को जाना जाता है, धर्म से आत्मा का साक्षात्कार होता है और जीवन को आत्मा के अनुशासन में चलने के लिए प्रशिक्षित अभ्यस्त किया जाता है।
यों ज्ञान की मोटी परिभाषा जानकारी है। शिक्षा द्वारा उसी का संचय-संवर्धन होता है। मन की कल्पनाशक्ति और बुद्धि की निर्णयशक्ति के संयुक्त परिणाम को बुद्धि-कौशल कहते है। सूझ-बूझ, विद्वत्ता और विशेषज्ञता इसी की परिणति है। इतने पर भी संवेदना पर इस सारी बुद्धिमत्ता का कोई असर नहीं है। धर्म अग्नि है जिसका उद्गम आत्मा है। आत्मा के अंतराल से जो ज्योति प्रस्फुटित होती है, जिसका आलोक अंत:ज्ञान के रूप में देखा जा सकता है, आत्मबोध यही है। इसी को प्रकट होना और आत्मसत्ता के समचे क्षेत्र को प्रकाशवान कर देना यही आत्मसाक्षात्कार है। विचार-क्षेत्र शिक्षा कहलाता है। अंत:संवेदनाओं के ऊहापोह को विद्या एवं ब्रह्मविद्या कहते हैं। यह इंद्रियातीत है, इसलिए उसकी अनुभूतियाँ भी अतींद्रिय कहलाती हैं। दया, करुणा, प्रेम, सेवा, उदारता, त्याग, बलिदान, संयम, आत्मानुशासन जैसी दिव्य संवेदनाओं की पूर्ति के लिए मनुष्य खुशी-खुशी कष्ट सहते हैं। अपने लाभों का परित्याग करते हैं और भौतिक दृष्टि से प्रत्यक्षतः घाटा उठाते हैं। आदर्शवादियों के निहित स्वार्थों द्वारा तरह-तरह की हानि पहुँचाई जाती है, उदार व्यवहार में भी वे कुछ त्याग ही करते हैं। देशभक्तों और तपस्वियों को कष्टमय जीवन व्यतीत करना पड़ता है और कई बार तो उन्हें प्राणों तक से हाथ धोना पड़ता है। बुद्धिमानी का भौतिक मापदंड इनमें घाटा-हीघाटा देखता है। प्रत्यक्ष लाभ जैसी कोई बात इस मार्ग पर चलने से नहीं मिलती। फिर भी समझदारी की सीमाओं का उल्लंघन करके कदम उठाए जाते हैं, जिसे व्यवहार-बुद्धि अपने भौतिकवादी गणित के सहारे मूर्खता ही सिद्ध करेगी। इतने पर भी सारे तर्कों का उल्लंघन करके कोई आंतरिक उमंग ऐसी उठती है और उच्चस्तरीय भावसंवेदना की भूख बुझाने के लिए त्याग, बलिदान की माँग करती है। और अनेकों सद्भाव संपन्न उसकी पूर्ति भी करते हैं।
यह संवेदना ही अग्नि है। जब वह आदर्शों के अपनाए रहने की परिपक्वावस्था में होती है तो उसे श्रद्धा कहते हैं। अपने लिए कल्याणकारी कर्तव्य यही है। इसका सुनिश्चित निर्धारण विश्वास कहलाता है। श्रद्धा को भवानी की और विश्वास को शंकर की उपमा दी गई है और कहा गया है कि इन्हीं दोनों की सहायता से अंतरात्मा में ओत-प्रोत परमात्मा का दिव्य दर्शन होता है। आदर्शवादी संवेदनाओं की यह समूची परिधि धर्मक्षेत्र के नाम से जानी जाती है। इसी की उमंगें कर्मक्षेत्र पर छाई रहती हैं। आस्थाओं की प्रेरणा से विचारतंत्र को दिशा मिलती है और विचारों की कर्म के रूप परिणति होती है। इसी क्षेत्र में जब प्रखरता आती है तो अतींद्रिय ज्ञान जाग्रत् होता है। और दूरदर्शन, दूर श्रवण, प्रकृति के रहस्यों का उद्घाटन, भावी संभावनाएँ जैसी वे जानकारियाँ मिलती हैं, जो सामान्य इंद्रिय क्षमता की पकड़ से बाहर हैं।
अंत: संस्थान के शांत, सुस्थिर एवं परिष्कृत करने की विधिव्यवस्था का नाम योग है। योगाभ्यास में जिस समाधि की चर्चा की जाती है, वह मस्तिष्क की घुड़दौड़ शांत करके अंतःकरण की भावसंवेदनाओं को उभारने की प्रक्रिया है। चित्तवृत्तियों का निरोध इसी को कहा गया है। यह स्थिति प्राप्त होने पर अपने अस्तित्व में आत्मा की उपस्थिति अनुभव होती है और उसके अनुशासन को स्वीकार करने की सहज स्वीकृति जाग्रत् होती है। आत्मसमर्पण के क्षण इन्हीं भावनाओं से भरे होते हैं। दिव्यत्व में अंत:करण का सराबोर हो जाना इतना आनंदयुक्त होता है कि उसे ईश्वर दर्शन के संबंध में किए गए समस्त वर्णन यथार्थता के रूप में अनुभव होते हैं।
धर्म को भीरुता से जोड़ा जाता है। जीवन संघर्ष से कतराने वाले धर्माडंबरों में उलझे रहते हैं। यह कहा जाता है, पर वस्तुत: बात ऐसी है नहीं। यह साहसी-शूरवीरों का मार्ग है। मन और अंत:करण का संघर्ष स्पष्ट है। मन सुविधाओं में रमता है और अंत:करण को वे भाव-संवेदनाएँ चाहिए, जो उत्कृष्टता अपनाने के मूल्य पर ही उपलब्ध होती हैं। लोक-प्रवाह और अपने संचित संस्कार मनोकामनाओं की पूर्ति की दिशा में खींचते और मनमानी करने के लिए उकसाते हैं। इसके ठीक विपरीत वह क्षेत्र है, जिसे आत्मा की पुकार कहते हैं। यहाँ सब कुछ दूसरे ही तरह का है। यहाँ वैभव बेचकर संतोष खरीदा जाता है। इतना बड़ा सौदा करना जुआरी द्वारा अपना सर्वस्व बाजी पर लगा देने जैसा है, जिसमें प्रत्यक्षत: घाटा-ही-घाटा है। ऐसा बड़ा कदम उठाना सती-शूरमाओं जैसा दुस्साहस है, जिसमें प्रत्यक्ष का उत्सर्ग करके परोक्ष के उपलब्ध होने का सुनिश्चित विश्वास आवेश की तरह अंतराल के कण-कण में छाया होता है। ऐसी स्थिति प्राप्त करने में केवल साहसी शूरवीर ही सफल होते हैं। भावनाओं के परिपोषण में कामनाओं की बलि चढ़ा देना जिनसे बन पड़ता है, वस्तुत: वे ही धर्मात्मा हैं। कहा जाता है कि धार्मिकता स्वर्ग के लालचियों और नरक से भयभीत लोगों को छिपाए रहने वाली माँद भर है, पर बात ऐसी है नहीं। कुछ उथले धर्माडंबरियों या धर्मभीरुओं के लिए यह बात भले ही लागू होती हो, पर वस्तुतः धर्म एक सत्साहस और प्रबल पुरुषार्थ है, जिसमें अंतरात्मा को सर्वोपरि माना जाता है और उत्कृष्टता भरी भाव-संवेदनाओं के समर्थन की सुख-सुविधाओं से लेकर स्वजनों को पुष्ट करने तक का ऐसा साहस प्रदर्शित किया जाता है, जिसे आलौकिक एवं असाधारण कहा जा सके।
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