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आचार्य श्रीराम शर्मा >> क्या धर्म अफीम की गोली है ?

क्या धर्म अफीम की गोली है ?

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :103
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15527
आईएसबीएन :0

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क्या धर्म अफीम की गोली है ?

धर्म धारणा से यथार्थ बोध


धर्म किन्हीं विशेष अभिरुचि के या फालतू समय वालों के मन बहलाव का माध्यम है अथवा उसका कोई सार्वजनिक उपयोग भी है? इस प्रश्न के उत्तर में हमें धर्म का स्वरूप और उद्देश्य समझने का प्रयत्न करना होगा और यह जानना होगा कि क्या तथाकथित धर्माध्यक्षों द्वारा अपने-अपने ढंग से किया गया बहुमुखी प्रतिपादन ही धर्म है अथवा उसके पीछे व्यक्ति और समाज के उपयोगी मार्गदर्शन की तथ्यपूर्ण क्षमता भी है।

सर जूलियस हक्सले ने अपने ग्रंथ 'रिलीजन विदाउट रिविलेशन' में धर्म संप्रदायों के सम्मिलित सत्य और असत्य की समीक्षा करते हुए लिखा है कि सत्य, ज्ञान और सौंदर्य की अभिव्यक्तित्वों से जो धर्म जितना पिछड़ा हुआ है, उसे उतना ही झूठा और नीचा समझा जाना चाहिए। सालोमन रीनाइक की यह उक्ति एक खीज भर है, जिसमें उन्होंने धर्म पर 'मानवीय क्षमताओं पर रोक लगाने' का आक्षेप किया है। वस्तुतः वैसा है नहीं। धर्म की मूलात्मा न्याय, कर्तव्य एवं औचित्य का समर्थन करती है। प्रथा-परंपराएँ तो धर्म के आवरण मात्र हैं, जिन्हें समय-समय पर बदले जाने की आवशयकता पड़ती है।

देशभक्ति ही सब कुछ नहीं है। विश्वभक्ति उससे भी ऊपर है। समाज का कितना ही महत्त्व क्यों न हो, बहुमत की मान्यताओं के समर्थन में कुछ भी क्यों न कहा जाता रहे, अंततः विवेक ही सबसे ऊपर है। उसे देशभक्ति से भी ऊँचा स्थान मिलना चाहिए। ‘बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय' के आधार पर विधान कुछ भी क्यों न बनते रहें, उच्च आदर्शों का स्थान सबसे ऊँचा है, भले ही उनके समर्थन में नीतिनिष्ठ व्यक्तियों की थोड़ी-सी ही संख्या क्यों न हो ?

धर्म दुधारी तलवार है, यदि वह अपरिपक्व दर्शन और संकीर्ण सांप्रदायिकता का समर्थन भर करता है तो वह हानिकारक है, किंतु यदि उसमें नीति, निष्ठा का समुचित समावेश है तो उसके द्वारा मनुष्य और समाज का हितसाधन ही होगा।

विज्ञान और धर्म के शोध-विषय पृथक हैं। एक पदार्थ की गहराई को खोजता है। दूसरा चेतना के मर्मस्थल को। इतने पर भी दोनों का मूल प्रयोजन एक है-सत्य की शोध। इसके लिए आवश्यक है कि मस्तिष्क को किन्हीं पूर्वाग्रहों से जकड़कर न रखा जाए। पिछले लोग क्या सोचते, क्या कहते और क्या करते रहे हैं? इसकी जानकारी उत्तम है, उसके सहारे तथ्यों तक पहुँचना पड़ता है, पर यह मानकर नहीं चला जा सकता कि जो जाना या माना गया है, उसमें संशोधन या सुधार की गुंजाइश नहीं है। तथ्यों को स्वीकार करने की शोधदृष्टि में यह साहस रहता है कि यदि प्रचलित स्वीकृतियों से भिन्न प्रकार के तथ्य सामने आते हैं तो उनके स्वीकार करने में इसलिए असमंजस न करना पड़ेगा कि अब तक के चिंतन को झुठलाना पड़ेगा।

तर्कहीन मन:स्थिति का नाम धार्मिकता नहीं है। आँखें बंद करके किसी के भी वचन को गले नहीं उतारना चाहिए। अपने लोग कहते हों या पराए-बात संस्कृत या अरबी भाषा में कही गई है अथवा बोल-चाल की भाषा में, इससे कुछ बनता-बिगड़ता नहीं। स्वीकार करने योग्य वही है, जिनमें तथ्य जुड़े हुए हों और जिसे विवेक की कसौटी पर खरा सिद्ध किया जा सके। बिना खोज-परख के जो धर्म के नाम पर किसी मान्यता या प्रथा को स्वीकार कर ले, वह स्वस्थ दृष्टि नहीं है। धार्मिक मन सत्य का उपासक होता है, उसे औचित्य के अतिरिक्त और कुछ नहीं चाहिए। भले ही इसके लिए उन्हें पूर्वजों की अथवा उपदेशकों, ग्रंथों अथवा साथियों की ही अवहेलना क्यों न करनी पड़े!

जीवन का अर्थ है- संघर्ष, परिस्थितियों का आरोह, अवरोह, जिसे परिवर्तन भी कहा जा सकता है। अर्थात परिवर्तन ही जीवन है और जीवन ही परिवर्तन। जीवन में दैत्यता, कुटिलता के आकस्मिक एवं अप्रत्याशित आक्रमणों को सहन करना अस्वाभाविक नहीं। परेशानियों, कष्टों और आपदाओं की आँधी आती है तो मानव शक्ति को कुंठित कर देती है। फलस्वरूप बुद्धि निष्क्रिय हो जाती है, नैराश्यपूर्ण मानसिकता मनुष्य को किंकर्तव्यविमूढ़ बना देती है, ऐसी विषम परिस्थिति में, असहाय, निरुपाय व्यक्ति यह चिंतन करता है। कि हमारा सहायक कौन हो सकता है? हमारी रक्षा कौन कर सकता है ? हमारा उद्धार कौन कर सकता है? साथ ही सतपथ का ज्ञान कौन करा सकता है? उत्तर एक ही है-धर्म। सुख-शांति की परिस्थितियों का जनक भी धर्म है। कहना न होगा कि जिस दिन इस जगत से धर्म की समाप्ति हो जाएगी उस दिन सर्वनाश को कोई न रोक सकेगा। पाश्चात्य मनीषी थामसने अपनी समष्टि दृष्टि से धर्म को परिभाषित करते हुए कहते हैं-'संपूर्ण विश्व मेरा देश है, संपूर्ण मानवता मेरा बंधु है और संपूर्ण भलाई ही मेरा धर्म है।''

वर्तमान युग में धर्म के प्रति लोगों की अनास्था बढ़ रही है, जिसका परिणाम यह हो रहा है कि नैतिक एवं सांस्कृतिक मूल्यों, मान्यताओं में भी अवमूल्यन निरंतर होता जा रहा है। अधर्माचरण के कारण मनुष्य की सुख-शांति भंग होती जा रही है, सर्वत्र असंतोष का वातावरण व्याप्त है।

चतुर्दिक भटकने के उपरांत, दृष्टि में एक ही उपाय परित्राण में सहायक सिद्ध हो सकता है-'धर्म' वेद, उपनिषद्, स्मृति, पुराण आदि धर्मशास्त्रों में इसी तत्त्व का निरूपण हुआ है। धर्मप्रधान युग अर्थात सत्प्रवृत्तियों की बहुलता वाला युग ‘सतयुग' कहलाता है, सतयुग में सुख और संपन्नता का आधार धर्म है।

भगवान राम जब वन-गमन के लिए तत्पर हुए तो जीवनरक्षा की कामना से उन्होंने माता कौशल्या से आशीर्वाद की आकांक्षा व्यक्त की। विदुषी माता ने उस समय यह कहा-“हे राम! तुमने जिस धर्म की रीति और नियम का पालन किया है, जिसके अनुसरण से तुम वन जाने को तत्पर हुए हो, वही धर्म तुम्हारी रक्षा करेगा।''

जो व्यक्ति धर्म का पालक-पोषक होता है वही सच्चा धर्मात्मा कहलाने का अधिकारी है। धर्मनिष्ठ व्यक्ति के अंत:करण में वह शक्ति होती है जो असंख्य विघ्न-बाधाओं, प्रतिगामी शक्तियों को पराजित कर देती है। धार्मिक मनुष्य के जीवन में एक विशेष प्रकार का विलक्षण आह्लाद भरा रहता है, वह सर्वत्र सौरभ बिखेरता चलता है, उसकी उमंग एवं उल्लास से आस-पास का वातावरण भी प्रभावित होता है। धर्म की प्राणसत्ता निर्जीव को भी सजीव बनाने में समर्थ होती है। 'जीवट' सच्चे धार्मिक का प्रधान लक्षण होता है। वस्तुतः धर्म मनुष्य का वह अग्नि तेज है जो प्रकाश उत्पन्न करता है, उसमें क्रियाशीलता एवं जिजीविषा जाग्रत् रखता है। धर्मशील व्यक्ति विभिन्न विपदाओं, विघ्न-बाधाओं में भी हिमालय के समान अटल एवं समुद्र के सदृश धीर-गंभीर रहता है। संक्षेप में कहा जाए तो धर्म जीवन का प्राण और मानवीय गरिमा का पर्याय है, उससे ही मानव जाति की सुख-शांति और व्यवस्था अक्षुण्ण रह सकती है।

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