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आचार्य श्रीराम शर्मा >> शक्तिवान बनिए

शक्तिवान बनिए

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :60
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15501
आईएसबीएन :00000

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जीवन में शक्ति की उपयोगिता को प्रकाशित करने हेतु

दूसरा सूत्र

मैं अविनाशी हूँ, इसे अध्यात्मवाद का दीक्षा मंत्र समझिए


मानव जीवन छोटा है, अस्थिर है और क्षणभंगुर है। आज स्वस्थ है, कल आरोग्यता खोकर अपाहिज हो सकता है। आज हँस बोल रहे हैं, कल मरघट की भूमि में अदृश्य हो सकते हैं, समय बीतते देर नहीं लगती। जीयें भी तो जीवन की सच्ची अवधि, यौवन की परिधि बहुत ही छोटी है। बालकपन और वृद्धावस्था में पराधीनता रहती है। कार्य शक्ति केवल यौवन में ही रहती है। यह यौवन चंद रोज है, दोपहर की धूप की तरह ढल जाता है। कोई विचारवान् व्यक्ति जब इस अस्थिर और क्षणिक जीवन पर विचार करने बैठता है, तो उसे बड़ी वेदना और निराशा होती है, आज हूँ कल न रहूँ, आज क्रियाशील हूँ, कल अशक्त हो जाऊँ, तो कहीं का न रहूँगा। उसका धैर्य टूट जाता है और चाहता है कि इस प्रकार के कार्य करने चाहिए, जिनका फल शीघ्र से शीघ्र मिल जाए, देर तक प्रतीक्षा न करनी पड़े।

दान-पुण्य की, पूजा-पाठ की बात अलग है। मृत्यु को पास खड़ा समझकर जल्द से जल्द दोनपुण्य कर ले, यह एक सामयिक और छोटी-सी समस्या है। कोई व्यक्ति न तो दिन-रात दान-पुण्य करता रह सकता है और न पूजा-पाठ। यह कभीकभी करने की बातें हैं। सारा समय तो उसे अपने और अपने आश्रितजनों की दैनिक जरूरतें पूरी करने में लगाना पड़ता है। जीवन निर्वाह की समस्या का हल करने में ही, साधारणत: अधिकांश समय और बल खर्च होता रहता है। जीवन की अस्थिरता, नश्वरता और क्षणभंगुरता के नग्न सत्य पर जब एक विचारवान् व्यक्ति दृष्टिपात करता है, तो उसके सामने दो कार्यक्रम उपस्थित होते हैं-पहला यह कि मुझे जिन्दगी का अधिक से अधिक मजा लूट लेना चाहिए। दूसरा यह कि संसार माया है, धोखा है, इसमें किसी से संबंध नहीं रखना चाहिए, अन्यथा व्यर्थ दुःख उठाना पड़ेगा। यह दोनों ही कार्यक्रम ऐसे हैं, जो जीवन का सारा सौन्दर्य नष्ट-भ्रष्ट कर डालते हैं।

चंद दिन जीना है, क्यों खट-खट पालें, क्यों किसी से प्यार-मुहब्बत जोड़ें, किससे बुराई बाँधे, दुनिया में क्या रखा है, कौन किसी का होता है, सब कब्र में पाँव लटकाये हुए हैं, सब यहीं पड़ा रह. जायेगा, जो मिलता है भाग्य से मिलता है, ईश्वर की इच्छा के बिना पत्ता भी नहीं हिलता, इस प्रकार के विचार रखने का यह अर्थ है कि यह व्यक्ति जीवन की नश्वरता से डरकर किंकर्तव्यविमूढ़ हो गया है और अपनी कार्य शक्ति के ऊपर से विश्वास खो बैठा। है। ऐसा व्यक्ति अपने को निराश, दीन-हीन, तुच्छ, असमर्थ समझता है और अपनी इन दुर्बलताओं पर मन ही मन झुंझलाता है। चिन्ता और बेचैनी से छुटकारा पाने का एक बहुत सस्ता उपाय है-जिसे कमजोर आदमी अक्सर काम में लाते हैं-वह यह कि अपने दोषों को दूसरों पर थोप दिया जाए। इन आत्मघातियों को ईश्वर एक ऐसा प्राणी मिल जाता है, जो सफाई देने के लिए सामने नहीं आता और उस पर चाहे जैसे इल्जाम लगाये जा सकते हैं। ईश्वर ने हमें यह नुकसान पहुँचाया, उसी की टेढ़ी नजर से हानि हुई , बिना ईश्वर की मर्जी के सुख नहीं मिल सकता, ईश्वर की कृपा से.पापी भी तर जाते हैं, जब ईश्वर को देना होगा तो छप्पड़ फाड़ कर देगा, ऐसी-ऐसी बातें बनाकर वे यह साबित करना चाहते हैं कि जो कुछ भला-बुरा करता है ईश्वर करता है; अपनी परिस्थितियों के लिए हम निर्दोष हैं। यह लोग काम करने की उपेक्षा करते हैं, कर्तव्यपालन को व्यर्थ बताते हैं, अजगर की तरह पड़ा रहना पसन्द करते हैं, संसार को मिथ्या बताते हैं। हरामखोरी में दिन नहीं कटता और पेट को अन्न की आवश्यकता होती है, तो भूखे कायर की तरह ढोंग रचकर काम चलाते हैं। धर्म की अंधी पोल में सुरक्षित रूप से घुस बैठते हैं और कामचलाऊ भोजन, वस्त्र प्राप्त करते रहते हैं, ऐसे लोगों की एक अच्छी भली पलटन बन गई है। ऋषियों के पवित्र नाम को बदनाम करते हुए यह आत्म हत्यारे संत, महन्त, ज्योतिषी, पंडित, पुजारी, भगत आदि का वेष बनाकर गाल बजाते, मटरगश्ती करते, मुफ्त का माल चरते इधर-उधर विचरण करते हैं।

'आत्मा की अमरता' का सिद्धान्त अध्यात्मवाद की आधारभूमि कही जाती है। यही वह सिद्धान्त है। जिसने जीवन निर्वाह की विवेचना में एक क्रान्ति उपस्थित कर दी। अनेक तर्क और प्रमाणों के साथ यह सिद्धान्त प्रकट किया गया कि शरीर के साथ ही जीवन का अन्त नहीं हो जाता, वरन् उसके पीछे भी कायम रहता है और वर्तमान जीवन के लिए किए हुए कर्मों का फल मृत्यु के उपरान्त भी प्राप्त होता है। शरीर की क्षणभंगुरता के कारण जो घातक दृष्टिकोण उत्पन्न होते थे, जो बेचैनी, व्याकुलता और निराशा उठती थी, इस सिद्धान्त ने उनका भली प्रकार समाधान कर दिया और मनुष्य को दूसरी तरह से सोच-विचार करने का मार्ग दिखाया। शरीर के साथ ही हमारा अस्तित्व समाप्त नहीं हो जाता और किए हुए कर्मों के भले-बुरे फल आगे भी मिलते हैं यह विश्वास, अधीरता और व्याकुलता मिटाते हैं। जब आगे भी जीना है तो जल्दबाजी की क्या जरूरत ? जीवन अनन्त है, तो मृत्यु से डरने, निराश होने या अल्प स्थायी भोगों के लिए व्याकुल होने का क्या प्रयोजन?

आध्यात्मिकता का पहला मंत्र यह है कि आत्मा को अमर मानो। इस सिद्धान्त पर विश्व के संपूर्ण धर्म एक मत हैं। आर्य, बौद्ध, ईसाई, मुसलमान, पारसी, यहूदी आदि सभी प्रमुख सम्प्रदायों के धर्मग्रंथ इस सिद्धान्त पर सारा जोर लगा देते हैं, कि आत्मा का अस्तित्व मरने के बाद भी रहता है और किए हुए कर्मों का फल भोगता है। फल प्राप्त होने की विधि व्यवस्था, स्वर्ग, नरक, पुनर्जन्म आदि की रूपरेखाओं के बारे में मतभेद पाया जाता है; पर अमरता के मूल तत्त्व से किसी को रत्ती भर भी विरोध नहीं है, वरन्। सभी एक समान समर्थन करते हैं।

धर्म ग्रंथों की रचना का तीन-चौथाई भाग परलोक की विवेचना करता है। 

१- मरने के बाद आत्मा जीवित रहती है। 
२- उसे फल भोगने पड़ते हैं। 
३- इन बातों का एक-दूसरे से संबंध स्थापित करने के लिए एक दैवी शासन मौजूद है। 

इन तीनों बातों को अनेकानेक दृष्टान्तों के द्वारा, अनेकानेक कल्पनाओं द्वारा सिद्ध करने के निमित्त धर्माचार्यों ने विशालकाय पुस्तकें लिखी हैं। यमदूत, फरिश्ते, वैतरणी, कुंभीपाक, ब्रह्मलोक, हूर, गिलमा, ईश्वर, देवी-देवता दण्ड-पुरस्कार, स्वर्ग-मुक्ति, पुनर्जन्म आदि के उपाख्यानों से भी मजहबों के पुराण ग्रंथ भरे पड़े हैं। मोटे तौर से देखने में उन ग्रंथों के लेखकों का उद्देश्य समझ में नहीं आता, कि उन्होंने तीन-चौथाई रचना अप्रत्यक्ष लोक के बारे में क्यों की, जबकि उन बातों को सिद्ध करने के लिए कोई मजबूत आधार नहीं है। यह भी आशंका उठती है कि प्रत्यक्ष जीवन के बारे में उन्होंने इतनी लापरवाही क्यों दिखाई, कि एक चौथाई स्थान उसे मुश्किल से मिला। इन शंकाओं के संबंध में मनन करने पर पता चल जाता है कि प्रत्यक्ष जीवन को सारी सफलता का श्रेय उन्होंने इस बात से माना है, कि मनुष्य मृत्यु के पश्चात् जीवन पर विश्वास करे; उस विश्वास को अधिकाधिक पुष्ट करने के लिए कथाओं, उपाख्यानों एवं दृष्टान्तों के रूप में पूरा प्रयत्न किया है। प्रत्यक्ष जीवन की तीनचौथाई सफलता अमरता के विश्वास पर अवलम्बित मानकर, उसी अनुपात से धर्मग्रंथों में उसको स्थान दिया है। जितनी भी कथा वार्ताएँ पुराणों में मिलेंगी, वे किसी न किसी रूप में, मृत्यु के उपरान्त जीवन, फल की प्राप्ति और शासनकर्ता या उसके कर्मचारियों का वर्णन करती होंगी। इस छोटे-से तथ्य को भलीभाँति हृदयंगम करा देने के लिए उसे नाना प्रकार के रूप-रंगों की सजावट के साथ उपस्थित किया है, मनष्य स्वभाव कौतहल जनक घटना वाली बातों को सुनने में विशेष दिलचस्पी लेता है, इसलिए अध्यात्म तत्त्व को मनोरंजन का पुट देते हुए इतने विस्तारपूर्वक लिखा गया है।

धर्माचार्यों ने अपनी सारी शक्ति लगाकर यह प्रयत्न किया है कि मनुष्य विश्वास करे कि वह अमर है, क्योंकि इसी में सारे समाज की शान्ति का बीज छिपा हुआ है। नास्तिकों की तीव्र भर्त्सना शास्त्रों में की गई है, उन्हें बहुत बड़ा पापी बताया गया है। वैसे अप्रत्यक्ष बात पर विश्वास न करना, कोई बुरी बात नहीं है; पर अमरता का सिद्धान्तजिसके ऊपर ईश्वर, धर्म, त्याग, तप, परोपकार के महल खड़े किये हैं, अविश्वस्त एवं मिथ्या ठहरा दिया जाए, तो उससे ऐसी विचारधारा उपज पड़ेगी, जो समाज को क्लेश, कलह और स्वर्ग का रौरव नरक बना देगी। नास्तिक सिद्धान्तवादी कहते हैं किईश्वर कोई नहीं है, प्रकृति के सब काम अपने आप चलते हैं। आत्मा कुछ नहीं है, पंच तत्त्वों की अमुक मात्रा के मिश्रण से एक सजीव विद्युत् धारा बहती है, जो शरीर के साथ ही समाप्त हो जाती है। वे अनेक तर्क और प्रमाणों से अपने मत को सिद्ध करते हैं। हम साइन्स द्वारा उनका समाधान करने की स्थिति में नहीं हैं; पर इतना अवश्य कहते हैं कि सामाजिक जीवन को शान्तिमय बनाये रखना है, तो अमरता को स्वीकार किए बिना काम न चलेगा।

अमरता की भावना के साथ अंतःकरण में एक स्थिरता और धैर्य का उद्भव होता है। विचार उठता है कि जब अनन्त काल तक जीना है, तो आज कष्ट उठाकर भी वह कमाई करनी चाहिए, जो आगे चलकर स्थायी सुख प्रदान करे। लोग खुशी-खुशी कठोर परिश्रम के साथ धन कमाते हैं, ताकि बुढ़ापे

को सुखपूर्वक बितायें। भविष्य की आशा में आज के कष्टों को भुलाया जा सकता है। दूसरे लोगों की सुविधा के लिए, अपनी सुविधाएँ त्यागना, यही तो पुण्य आचरण है। पुण्य के लिए त्याग करना पड़ता है, उस त्याग के लिए कोई तभी तैयार होगा, जब उसके सामने उज्ज्वल भविष्य हो। अमरता में उज्ज्वल भविष्य की आशा है, किन्तु नास्तिकता में भविष्य ही नष्ट हो जाता है, बिना भविष्य की आशा के कोई त्याग के लिए तैयार क्या होगा? जब अपने स्वार्थ को प्रधानता देने और दूसरों की सुविधा के लिए त्याग न करने की प्रवृत्ति बढ़ेगी, तो प्रेम भाव नष्ट हो जाएगा, सात्विक गुण नि:सार प्रतीत होने लगेंगे, खुदगर्जी की प्रधानता से पिशाच नगरी के दृश्य दिखाई देने लगेंगे। एक भी व्यक्ति चैन की नींद न सो सकेगा।

इसलिए अध्यात्मवाद की दीक्षा, अमरता पर विश्वास के साथ आरंभ होती है। जो सच्चे हृदय से अमरता पर विश्वास करता है, अपने को शरीर से भिन्न आत्मा मानता है, आत्महित को शरीर हित की अपेक्षा प्रधानता देता है, वह आध्यात्मिक व्यक्ति है। जो अपने को शरीर समझता है, शरीर हित को प्रधानता देता है, भोगों में शीघ्रता और अति के लिए आतुर है, वह नास्तिक है। जुबान से तोते की तरह कई मनुष्य आत्मा की अमरता स्वीकार करते हैं; पर भीतरी विश्वास के अभाव में जो कुछ विचारते एवं कार्य करते हैं, वह शरीर लाभ के लिए ही होते हैं। ऐसे लोग आस्तिक न कहे जा सकेंगे; क्योंकि आस्तिकता का संबंध जिह्वा से कही जाने वाली शब्दावली से नहीं, वरन् भीतरी विश्वास से है। सुदृढ़ विश्वासों से है। जिसने आत्मा के लाभ को प्रधानता देने की ओर प्रयत्न करना आरंभ किया है, असल में उसे ही अध्यात्मवाद का जिज्ञासु समझना चाहिए।

आप सच्चे हृदय से विश्वास कीजिए कि मैं अविनाशी हूँ। पग-पग पर दिखाई देने वाले भयों को मार भगाकर, निर्भयता प्रदान करने वाला यह मृत्युंजय बीज मंत्र है। रोग का भय, मृत्यु का भय, दुर्घटना का भय, शत्रु का भय, विपत्ति को भय, न जाने कितने भय प्रतिदिन हमें डराते हैं, चिंतित करते और दुःखी बनाते हैं। किसी भय की जरा-सी छाया दिखाई दी कि कलेजा धक्-धक् करने लगता है, क्योंकि जीवन नश्वर मालूम देता है। यदि हम मर गए, तो ऐसा अवसर फिर कहाँ मिलेगा। ऐसे विचार शरीर के प्रति असाधारण ममता उत्पन्न करते हैं और भयाक्रांत एवं ममताग्रस्त मनुष्य से महान् कर्तव्य धर्म का पालन हो नहीं सकता। जीवन को भस्मीभूत समझने वाला व्यक्ति बीमारों की सेवा करते हुए डरता है। कि कहीं छूत लगकर मैं मर न जाऊँ, वह यात्रा करते डरता है कि कहीं सवारी की दुर्घटना न हो जाए, वह चोर, डाकुओं और अत्याचारियों का मुकाबला करने से डरता है कि कहीं चोट न खा जाऊँ, ऐसे ही नाना प्रकार के भय मनष्य को बेचैन बनाते रहते हैं और उसे भीरु, डरपोक, कायर, बुजदिल एवं अशक्त बना देते हैं।

इस प्रकार निराशा और भय के झूले में झूलने वाले लोगों को, मैं अविनाशी हूँ, यह मंत्र जीवन संदेश देता है। वह कहता है- उठो कर्तव्य पथ पर प्रवृत्त होओ। तुम्हारा जीवन अखण्ड है। कपड़े बदल जायेंगे, पर तुम नहीं बदलोगे। शरीर बदल जायेंगे, पर जीवन नहीं बदलेगा। अपने ऊपर विश्वास करो, अपने जीवन पर विश्वास करो, आत्मा और परमात्मा पर विश्वास करो, तुम्हें कोई नष्ट नहीं कर सकता। हे अजर! अमर! अविनाशी! और अखण्ड आत्मा! उठ, अपने कर्तव्य में प्रवृत्त हो, गाण्डीव उठा और धर्मयुद्ध में पांचजन्य का तुमुल नाद कर। मृत्यु कोई वस्तु नहीं है। जीवन अखण्ड है। शरीर बदलने से हमारी मृत्यु कदापि नहीं हो सकती।

मैं जो पेड़ लगा रहा हूँ, उसका फल मुझे खाने को न मिलेगा, यह सोचना नास्तिकता है। अपने महान् कार्य को बिना किसी प्रकार का भय या संकोच किए आरंभ करो। कई जन्मों में तो वह पूरा हो ही जायेगा। उसका फल तुम्हें ही मिलना है। अपने जीवन को अखण्ड समझो, अपने को अविनाशी मानो, निर्भय, रहो, निर्द्वन्द्व विचरो यह अध्यात्मवाद का पहला उपदेश है। आप इस पुण्य पथ पर आगे बढ़िए और सच्चे हृदय से अपनी अमरता पर विश्वास करिए।

मनुष्य पुरुषार्थ का पुतला है। उसकी शक्ति और सामर्थ्य का अंत नहीं। वह बड़े से बड़े संकटों से लड़ सकता है और असंभव के बीच संभव की अभिनव किरणें उत्पन्न कर सकता है। शर्त यही है। कि वह अपने को समझे और अपनी सामर्थ्य को मूर्त रूप देने के लिए साहस को कार्यान्वित करे।

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