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आचार्य श्रीराम शर्मा >> हारिए न हिम्मत

हारिए न हिम्मत

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :60
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15492
आईएसबीएन :00000

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प्रेरक वाक्यों का संग्रह

15492_Haariye Na Himmat - a Hindi Book by Sriram Sharma Acharya

माता भगवती स्वचालित पुस्तकालय।

यह पुस्तक आद्यशक्ति माँ गायत्री की कृपा से आपके पास आई है। इसे पवित्र स्थान पर रखकर परिवार के सब सदस्य अवश्य पढ़ें। मुख्य अंश नोट कर लें और उनका अनुकरण अपने जीवन में करें। पढ़कर पुस्तक किसी अन्य पात्र व्यक्ति को दे दें ताकि ज्ञान का आलोक जन-जन के जीवन को प्रकाशित करता चले। दीप से दीप जलता चले।

हारिये न हिम्मत

  • जो लोग आध्यात्मिक चिंतन से विमुख होकर केवल लोकोपकारी कार्य में लगे रहते हैं, वे अपनी ही सफलता पर अथवा सद्गुणों पर मोहित हो जाते हैं। वे अपने आपको लोक सेवक के रूप में देखने लगते हैं। ऐसी अवस्था में वे आशा करते हैं कि सब लोग उनके कार्यों की प्रशंसा करें, उनका कहा मानें। उनका बढ़ा हुआ अभिमान उन्हें अनेक लोगों का शत्रु बना देता है। इससे उनकी लोक सेवा उन्हें वास्तविक लोक सेवक न बनाकर लोक विनाश का रूप धारण कर लेती है।

  • आध्यात्मिक चिंतन के बिना मनुष्य में विनीत भाव नहीं आता और न उसमें अपने आपको सुधारने की क्षमता रह जाती है। वह भूलों पर भूल करता चला जाता है और इस प्रकार अपने जीवन को विकल बना लेता है।

  • हम जिस भारतीय संस्कृति, भारतीय विचारधारा का प्रचार करना चाहते हैं उससे आपके समस्त कष्टों का निवारण हो सकता है। राजनीतिक शक्ति द्वारा आपके अधिकारों की रक्षा हो सकती है। पर जिस स्थान से हमारे सुख-दुख की उत्पत्ति होती है उसका नियंत्रण राजनीतिक शक्ति नहीं कर सकती। यह कार्य आध्यात्मिक उन्नति से ही संपन्न हो सकता है।

  • मनुष्य को मनुष्य बनाने की वास्तविक शक्ति भारतीय संस्कृति में ही है। यह संस्कृति हमें सिखाती है कि मनुष्य मनुष्य से प्रेम करने को पैदा हुआ है, लड़ने-मरने को नहीं। अगर हमारे सभी कार्यक्रम ठीक ढंग से चलते रहे तो भारतीय संस्कृति का सूर्योदय अवश्य होगा।

  • यदि तुम शांति, सामर्थ्य और शक्ति चाहते हो तो अपनी अंतरात्मा का सहारा पकड़ो। तुम सारे संसार को धोखा दे सकते हो किंतु अपनी आत्मा को कौन धोखा दे सका है। यदि प्रत्येक कार्य में आप अंतरात्मा की सम्मति प्राप्त कर लिया करेंगे तो विवेक पथ नष्ट न होगा। दुनियां भर का विरोध करने पर भी यदि आप अपनी अंतरात्मा का पालन कर सके तो कोई आपको सफलता प्राप्त करने से नहीं रोक सकता।

  • जब कोई मनुष्य अपने आपको अद्वितीय व्यक्ति समझने लगता है और अपने आपको चरित्र में सबसे श्रेष्ठ मानने लगता है तब उसका आध्यात्मिक पतन होता है।

  • मन में सबके लिए सद्भावनाएं रखना, संयमपूर्ण सच्चरित्रता के साथ समय व्यतीत करना, दूसरों की भलाई बन सके उसके लिए प्रयत्नशील रहना, वाणी को केवल सत्प्रयोजनों के लिए ही बोलना, न्यायपूर्ण कमाई पर ही गुजारा करना, भगवान का स्मरण करते रहना, अपने कर्तव्य पर आरूढ़ रहना, अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियों में विचलित न होना - यही नियम हैं जिनका पालन करने से जीवन यज्ञमय बन जाता है । मनुष्य जीवन को सफल बना लेना ही सच्ची दूरदर्शिता और बुद्धिमत्ता है।

  • जब तक हम में अहंकार की भावना रहेगी तब तक त्याग की भावना का उदय होना कठिन है।

  • उठो ! जागो !! रुको मत !!! जब तक कि लक्ष्य न प्राप्त हो जाए।

  • कोई दूसरा हमारे प्रति बुराई करे या निंदा करे, उद्वेगजनक बात कहे तो उसको सहज करने और उसे उत्तर न देने से बैर आगे नहीं बढ़ता। अपने ही मन में कह लेना चाहिए कि इसका सबसे अच्छा उत्तर है। मौन। जो अपने कर्तव्य कार्य में जुटा रहता है और दूसरों के अवगुणों की खोज में नहीं रहता उसे आंतरिक प्रसन्नता रहती है।

  • जीवन में उतार-चढ़व आते ही रहते हैं। हँसते रहो, मुस्कराते रहो। ऐसा मुख किस काम का जो हँसे नहीं, मुस्कराए नहीं।

  • जो व्यक्ति अपनी मानसिक शक्ति स्थिर रखना चाहते हैं उनको दूसरों की आलोचनाओं से चिढ़ना नहीं चाहिए।

  • तुम्हें यह सीखना होगा कि इस संसार में कुछ कठिनाइयां हैं जो तुम्हें सहन करनी हैं। वे पूर्व कर्मों के फलस्वरूप तुम्हें अजेय प्रतीत होती है। जहां कहीं भी कार्य में घबराहट थकावट और निराशाएं हैं, वहां अत्यंत प्रबल शक्ति भी है। अपना कार्य कर चुकने पर एक ओर खड़े होओ। कर्म के फल को समय की धारा में प्रवाहित हो जाने दो।

  • अपनी शक्ति भर कार्य करो और तब अपना आत्मसमर्पण करो। किन्हीं भी घटनाओं में हतोत्साहित न होओ। तुम्हारा अपने ही कर्मों पर अधिकार हो सकता है। दूसरों के कर्मों पर नहीं। आलोचना न करो, आशा न करो, भय न करो, सब अच्छा ही होगा। अनुभव आता है और जाता है। खिन्न न होओ। तुम दृढ़ भित्ति पर खड़े हुए हो।

  • साक्षात्कार संपन्न परुष न तो दूसरों को दोष लगाता है और न अपने को अधिक शक्तिमान वस्तुओं से आच्छादित होने के कारण वह स्थितियों की अवहेलना करता है।

  • अहंकार से उतना ही सावधान रहो जितना एक पागल कुत्ते से। जैसे तुम विष या विषधर सर्प को नहीं छूते, उसी प्रकार सिद्धियों से अलग रहो और उन लोगों से भी जो इनका प्रतिवाद करते हैं। अपने मन और हृदय की संपूर्ण क्रियाओं को ईश्वर की ओर संचारित करो।

  • दूसरों का विश्वास तुम्हें अधिकाधिक असहाय और दुखी बनाएगा। मार्गदर्शन के लिए अपनी ही ओर देखो, दूसरों की ओर नहीं। तुम्हारी सत्यता तुम्हें दृढ़ बनाएगी। तुम्हारी दृढ़ता तुम्हें लक्ष्य तक ले जाएगी।

  • जो कुछ हो, होने दो। तुम्हारे बारे में जो कहा जाए उसे कहने दो ! तुम्हें ये सब बातें मृगतृष्णा के जल के समान असार लगनी चाहिए। यदि तुमने संसार का सच्चा त्याग किया है तो इन बातों से तुम्हें कैसे कष्ट पहुंच सकता है। अपने आपकी समालोचना में कुछ भी कसर मत रखना तभी वास्तविक उन्नति होगी।

  • प्रत्येक क्षण और अवसर का लाभ उठाओ। मार्ग लंबा है। समय वेग से निकला जा रहा है। अपने संपूर्ण आत्मबल के साथ कार्य में लग जाओ, लक्ष्य तक पहुंचोगे।

  • किसी बात के लिए भी अपने को क्षुब्ध न करो। मनुष्य में नहीं, ईश्वर में विश्वास करो। वह तुम्हें रास्ता दिखाएगा और सन्मार्ग सुझाएगा।

  • सहिष्णुता का अभ्यास करो। अपने उत्तरदायित्व को समझो। किसी के दोषों को देखने और उन पर टीका-टिप्पणी करने के पहले अपने बड़े बड़े दोषों का अन्वेषण करो। यदि अपनी वाणी का नियंत्रण नहीं कर सकते तो उसे दूसरों के प्रतिकूल नहीं बल्कि अपने प्रतिकूल उपदेश करने दो।

  • सबसे पहले अपने घर को नियमित बनाओ क्योंकि बिना आचरण के आत्मानुभव नहीं हो सकता। नम्रता, सरलता, साधुता, सहिष्णुता ये सब आत्मानुभव के प्रधान अंग हैं।

  • दूसरे तुम्हारे साथ क्या करते हैं इसकी चिंता न करो। आत्मोन्नति मंत तत्पर रहो। यदि यह तथ्य समझ लिया तो एक बड़े रहस्य को पा लिया।

  • तुम्हें अपने मन को सदा कार्य में लगाए रखना होगा। इसे बेकार न रहने दो। जीवन को गंभीरता के साथ बिताओ। तुम्हारे सामने आत्मोन्नति का महान कार्य है। और पास में समय थोड़ा है। यदि अपने को असावधानी के साथ भटकने दोगे तो तुम्हें शोक करना होगा और इससे भी बुरी स्थिति को प्राप्त होगे।

  • धैर्य और आशा रखो तो शीघ्र ही जीवन की समस्त स्थिति का सामना करने की योग्यता तुममें आ जाएगी।-अपने बल पर खड़े होओ। यदि आवश्यक हो तो समस्त संसार को चुनौती दे दो। परिणाम में तुम्हारी हानि नहीं हो सकती। तुम केवल सबसे महान से संतुष्ट रहो। दूसरे भौतिक धन की खोज करते हैं और तुम अंत:करण के धन को ढूंढ़ो।

  • महान व्यक्ति सदैव अकेले चले हैं और इस अकेलेपन के कारण ही दूर तक चले हैं। अकेले व्यक्तियों ने अपने सहारे ही संसार के महानतम कार्य संपन्न किए हैं। उन्हें एकमात्र अपनी ही प्रेरणा प्राप्त हुई है। वे अपने ही आंतरिक सुख से सदैव प्रफुल्लित रहे हैं। दूसरे से दूख मिटाने की उन्होंने कभी आशा न रखी। निज वृत्तियों में ही उन्होंने सहारा देखा।

  • अकेलापन जीवन का परम सत्य है। किंतु अकेलेपन से घबराना, जी तोड़ना, कर्तव्यपथ से हतोत्साहित या निराश होना सबसे बड़ा पाप है। अकेलापन आपके निजी आंतरिक प्रदेश में छिपी हुई महान शक्तियों को विकसित करने का साधन है। अपने ऊपर आश्रित रहने से आप अपनी उच्चतम शक्तियों को खोज निकालते हैं।

  • जिस दिन तुम्हें अपने हाथ-पैर और दिल पर भरोसा हो जावेगा, उसी दिन तुम्हारी अंतरात्मा कहेगी कि बाधाओं को कुचल कर तू अकेला चल अकेला।

  • जिन व्यक्तियों पर तुमने आशा के विशाल महल बना रखे हैं वे कल्पना के व्योम में विहार करने के समान हैं। अस्थिर सारहीन खोखले हैं। अपनी आशा को दूसरों में संश्लिष्ट कर देना स्वयं अपनी मौलिकता का ह्रास कर अपने साहस को पंगु कर देना है। जो व्यक्ति दूसरों की सहायता पर जीवन यात्रा करता है वह शीघ्र अकेला रह जाता है।

  • दूसरों को अपने जीवन का संचालक बना देना ऐसा ही है जैसा अपनी नौका को ऐसे प्रवाह में डाल देना जिसके अंत का आपको कोई ज्ञान नहीं।

  • प्रेम ही एक ऐसी महान शक्ति है जो प्रत्येक दिशा में जीवन को आगे बढ़ाने में सहायक होती है। बिना प्रेम के किसी के विचारों में परिवर्तन नहीं लाया जा सकता। विचार तर्क-वितर्क की सृष्टि नहीं है।

  • विचारणा तथा विश्वास बहकाल के सत्संग से बनते हैं। अधिक समय की संगति का ही परिणाम प्रेम है। इसलिए विचार धारणा अथवा विश्वास प्रेम का विषय है।

  • यदि हम दूसरों पर विजय प्राप्त करके उनको अपनी विचारधारा में बहाना चाहते हैं, उनके दृष्टिकोण को बदल कर अपनी बात मनवाना चाहते हैं तो प्रेम का सहारा लेना चाहिए। तर्क और बुद्धि हमें आगे नहीं बढ़ा सकते हैं। विश्वास रखिए कि आपकी प्रेम और सहानुभूतिपूर्ण सभी बातों को सुनने के लिए दुनियां विवश होगी।

  • हम दूसरों को बरबस अपनी तरह विश्वास, मत, स्वभाव एवं नियमों के अनुसार कार्य करने और जीवन व्यतीत करने के लिए बाध्य करते हैं। दूसरों को बरबस सुधार डालने, अपने विचार या दृष्टिकोण को जबरदस्ती थोपने से न सुधार होता है न आपका ही मन प्रसन्न होता है।

  • यदि हम अमुक व्यक्ति को दबाए। रखेंगे तो अवश्य परोक्ष रूप से हमारी उन्नति हो जाएगी। अमुक व्यक्ति हमारी उन्नति में बाधक है। अमुक हमारी चुगली करता है, दोष निकालता है, मानहानि करता है। अत: हमें अपनी उन्नति न देखकर पहले अपने प्रतिपक्षी को रोके रखना चाहिए-ऐसा सोचना और दूसरों को अपनी असफलताओं का कारण ! मानना, भ्रममूलक है।

  • जब मन में पुरानी दुखद स्मृतियां सजग हों तो उन्हें भुला देने में ही श्रेष्ठता है। अप्रिय बातों को भुलाना आवश्यक है। भुलाना उतना ही जरूरी है जितना अच्छी बात का स्मरण करना। यदि तुम शरीर से, मन से और आचरण से स्वस्थ होना चाहते हो तो अस्वस्थता की सारी बातें भूल जाओ।

  • माना कि किसी 'अपने' ने ही तुम्हें चोट पहुंचाई है, तुम्हारा दिल दुखाया है, तो क्या तुम उसे लेकर मानसिक उधेड़बुन में लगे रहोगे। अरे भाई ! उन कष्टकारक अप्रिय प्रसंगों को भुला दो, उधर ध्यान ने देकर अच्छे शुभ कर्मों से मन को केंद्रीभूत कर दो।

  • चिंता से मुक्ति पाने का सर्वोत्तम उपाय दुखों को भूलना ही है।

  • तुम सुख, दुख की अधीनता छोड़ उनके ऊपर अपना स्वामित्व स्थापन करो और उसमें जो कुछ उत्तम मिले उसे लेकर अपने जीवन को नित्य नया रसयुक्त बनाओ। जीवन को उन्नत करना ही मनुष्य का कर्तव्य है इसलिए तुम भी उचित समझो सो मार्ग ग्रहण कर इस कर्तव्य को सिद्ध करो।

  • प्रतिकूलताओं से डरोगे नहीं और अनुकूलता ही को सर्वस्व मान कर न बैठे रहोगे तो सब कुछ कर सकोगे। जो मिले उसी से शिक्षा ग्रहण कर जीवन को उच्च बनाओ। यह जीवन ज्यों ज्यों उच्च बनेगा त्यों त्यों आज जो तुम्हें प्रतिकूल प्रतीत होता है वह सब अनुकल दीखने लगेगा और अनुकूलता आ जाने पर दुख मात्र की निवृत्ति हो जावेगी।

  • ‘हमारी कोई सुनता नहीं, कहते कहते थक गए पर सुनने वाले कोई सुनते नहीं अर्थात उन पर कुछ असर ही नहीं होता'-मेरी राय में इसमें सुनने वाले से अधिक दोष कहने वाले का है। कहने वाले करना नहीं जानते। वे अपनी ओर देखें। आत्म निरीक्षण कार्य की शून्यता की साक्षी दे देगा। वचन की सफलता का सारा दारोमदार कर्मशीलता में है। आप चाहे बोलें नहीं, थोड़ा ही बोलें पर कार्य में जुट जाइए। आप थोड़े ही दिनों में देखेंगे कि लोग बिना कहे आपकी ओर खिंचे आ रहे हैं। अत: कहिए कम, करिए अधिक। क्योंकि बोलने का प्रभाव तो क्षणिक होगा और कार्य का प्रभाव स्थाई होता है।

  • साहस ने हमें पुकारा है। समय ने, युग ने, कर्तव्य ने, उत्तरदायित्व ने, विवेक ने, पौरुष ने हमें पुकारा है। यह पुकार अनसुनी न की जा सकेगी। आत्म निर्माण के लिए, नव निर्माण के लिए हम कांटों से भरे रास्तों का स्वागत करेंगे और आगे बढ़ेंगे। लोग क्या कहते हैं और क्या करते हैं, इसकी चिंता कौन करे। अपनी आत्मा ही मार्गदर्शन के लिए पर्याप्त है। लोग अंधेरे में भटकते हैं, भटकते रहें। हम अपने विवेक के प्रकाश का अवलंबन कर स्वतः आगे बढ़ेंगे। कौन विरोध करता है, कौन समर्थन ? इसकी गणना कौन करे। अपनी अंतरात्मा, अपना साहस अपने साथ है और वही करेंगे जो करना अपने जैसे सजग व्यक्तियों के लिए उचित और उपयुक्त है।

  • सुधारवादी तत्वों की स्थिति और भी उपहासास्पद है। धर्म, अध्यात्म, समाज एवं राजनीतिक क्षेत्रों में सुधार एवं उत्थान के नारे जोर-शोर से लगाए जाते हैं। पर उन क्षेत्रों में जो हो रहा है, जो लोग कर रहे हैं, उसमें कथनी और करनी के बीच जमीन आसमान जैसा अंतर देखा जा सकता है। ऐसी दशा में उज्ज्वल भविष्य की आशा धूमिल ही होती चली जा रही है।

  • क्या हम सब ऐसे ही समय की प्रतीक्षा में, ऐसे ही हाथ पर हाथ रखकर बैठे रहें। अपने को असहाय, असमर्थ अनुभव करते रहें और स्थिति बदलने के लिए किसी दूसरे पर आशा लगाए बैठे रहें। मानवी पुरुषार्थ कहता है ऐसा नहीं होना चाहिए।

  • लोभों के झोंके, मोहों के झोंके, नामवरी के झोंके, यश के झोंके, दबाव के झोंके ऐसे हैं कि आदमी को लंबी राह पर चलने के लिए मजबूर कर देते हैं और कहां से कहां घसीट ले जाते हैं। हमको भी घसीट ले गए होते। ये सामान्य आदमियों को घसीट ले जाते हैं। बहुत से व्यक्तियों में जो सिद्धांतवाद की राह पर चले इन्हीं के कारण भटक कर कहां से कहां जा पहुंचे।

  • आप भटकना मत्। आपको जब कभी भटकन आए तो आप अपने उस दिन की उस समय की मन:स्थिति को याद कर लेना जबकि आपके भीतर से श्रद्धा का एक अंकुर उगा था। उसी बात को याद रखना कि परिश्रम करने के प्रति जो हमारी उमंग और तरंग होनी चाहिए उसमें कमी तो नहीं आ रही।

  • लगन आदमी के अंदर हो तो सौ गुना काम करा लेती है। इतना काम करा लेती है। कि हमारे काम को देखकर आपको आश्चर्य होगा। इतना साहित्य लिखने से लेकर इतना बड़ा संगठन खड़ा करने तक और इतनी बड़ी क्रांति करने से लेकर के इतने आश्रम बनाने तक जो काम शुरू किए हैं वे कैसे हो गए ? यह लगन और श्रम है।

  • यदि हमने श्रम से जी चुराया होता तो उसी तरीके से घटिया आदमी होकर के रह जाते जैसे कि अपना पेट पालना ही जिनके लिए मुश्किल हो जाता है। चोरी से, ठगी से, चालाकी से जहां कहीं भी मिलता पेट भरने के लिए, कपड़े पहनने के लिए और अपना मौज-शौक पूरा करने के लिए पैसा इकट्ठा करते रहते पर हमारा यह बड़ा काम संभव न हो पाता।

  • दूसरे के छिद्र देखने से पहले अपने छिद्रों को टटोलो। किसी और की बुराई करने से पहले यह देख लो कि हममें तो कोई बुराई नहीं है। यदि हो तो पहले उसे दूर करो। दूसरों की निंदा करने में जितना समय देते हो उतना समय अपने आत्मोत्कर्ष में लगाओ। तब स्वयं इससे सहमत होगे कि परनिंदा से बढ़ने वाले द्वेष को त्याग कर परमानंद प्राप्ति की ओर बढ़ रहे हो।

  • संसार को जीतने की इच्छा करने वाले मनुष्यो ! पहले अपने को जीतने की चेष्टा करो। यदि तुम ऐसा कर सके तो एक दिन तुम्हारा विश्व विजेता बनने का स्वप्न पूरा होकर रहेगा। तम अपने जितेंद्रिय रूप से संसार के सब प्राणियों को अपने संकेत पर चला सकोगे। संसार का कोई भी जीव तुम्हारा विरोधी नहीं रहेगा।

  • क्या करें, परिस्थितियां हमारे अनुकूल नहीं हैं, कोई हमारी सहायता नहीं करता, कोई मौका नहीं मिलता आदि शिकायतें निरर्थक हैं। अपने दोषों को दूसरों पर थोपने के लिए इस प्रकार की बातें अपनी दिल जमाई के लिए कही जाती हैं। लोग कभी प्रारब्ध को मानते हैं, कभी देवी देवताओं के सामने नाक रगड़ते हैं। इस सबका कारण है। अपने ऊपर विश्वास का न होना।

  • दूसरों को सुखी देख कर हम परमात्मा के न्याय पर उंगली उठाने लगते हैं। पर यह नहीं देखते कि जिस परिश्रम से इन सुखी लोगों ने अपने काम पूरे किए हैं क्या वह हमारे अंदर है। ईश्वर किसी के साथ पक्षपात नहीं करता उसने वह आत्मशक्ति सबको मुक्त हाथों से प्रदान की है जिसके आधार पर उन्नति की जा सके।

  • जब निराशा और असफलता को अपने चारों ओर मंडराते देखो तो समझो कि तुम्हारा चित्त स्थिर नहीं, तुम अपने ऊपर विश्वास नहीं करते।

  • वर्तमान दशा से छुटकारा नहीं हो सकता जब तक कि अपने पुराने सड़े गले विचारों को बदल न डालो। जब तक यह विश्वास न हो जाए कि तुम अपने अनुकूल चाहे जैसी अवस्था निर्माण कर सकते हो तब तक तुम्हारे पैर उन्नति की ओर बढ़ नहीं सकते। अगर आगे भी न संभलोगे तो हो सकता है कि दिव्य तेज किसी दिन बिलकुल ही क्षीण हो जाए। यदि तुम अपनी वर्तमान प्रिय अवस्था से छुटकारा पाना चाहते हो तो अपनी मानसिक निर्बलता को दूर भगाओ। अपने अंदर आत्मविश्वास जागृत करो।

  • इस बात का शोक मत करो कि मुझे बार बार असफल होना पड़ता है। परवाह मत करो क्योंकि समय अनंत है। बार बार प्रयत्न करो और आगे की ओर कदम बढ़ाओ। निरंतर कर्तव्य करते रहो, आज नहीं तो कल तुम सफल होकर रहोगे।

  • सहायता के लिए दूसरों के सामने मत गिड़गिड़ाओ क्योंकि यथार्थ में किसी में भी इतनी शक्ति नहीं है जो तुम्हारी सहायता कर सके। किसी कष्ट के लिए दूसरों पर दोषारोपण मत करो, कयोंकि यथार्थ में कोई भी तुम्हें दुख नहीं पहुंचा सकता। तुम स्वयं ही अपने मित्र हो और स्वयं ही अपने शत्रु हो। जो कुछ भली बरी स्थितियां सामने हैं। वह तुम्हारी ही पैदा की हुई हैं। अपना दृष्टिकोण बदल दोगे तो दूसरे ही क्षण यह भय के भूत अंतरिक्ष में तिरोहित हो जायेंगे।

  • आपके विषय में, आपकी योजनाओं के विषय में, आपके उद्देश्यों के विषय में अन्य लोग जो कुछ विचार करते हैं उस पर अधिक ध्यान देने की आवश्यकता नहीं है। अगर वे आपको कल्पनाओं के पीछे दौड़ने वाला उन्मुक्त अथवा स्वप्न देखने वाला कहें तो उसकी परवाह मत करो। तुम अपने व्यक्तित्व पर श्रद्धा को बनाए रहो। किसी मनुष्य के कहने से, किसी आपत्ति के आने से अपने आत्म विश्वास को डगमगाने मत दो। आत्मश्रद्धा को कायम रखोगे और आगे बढ़ते रहोगे तो जल्दी या देर में संसार आपको रास्ता देगा ही।

  • आगे भी प्रगति के प्रयास तो जारी रखे ही जाएं पर वह सब खिलाड़ी भावना से ही किया जाए।

  • समझदारी और विचारशीलता का तकाजा है कि संसार चक्र के बदलते क्रम के अनुरूप अपनी मन:स्थिति को तैयार रखा जाए। लाभ, सुख, सफलता, प्रगति, वैभव, आदि मिलने पर अहंकार से ऐंठने की जरूरत नहीं है। कहा नहीं जा सकता कि वह स्थिति कब तक रहेगी। ऐसी दशा में रोने-झींकने, खीजने, निराश होने में शक्ति नष्ट करना व्यर्थ है। परिवर्तन के अनुरूप अपने को ढालने में, विपन्नता को सुधारने में सोचने, हल निकालने और तालमेल बिठाने में मस्तिष्क को लगाया जाए तो यह प्रयत्न रोने और सिर धुनने की अपेक्षा अधिक श्रेयस्कर होगा।

  • बुद्धिमानी इसी में है कि जो उपलब्ध है। उसका आनंद लिया जाय और संतोष भरा संतुलन बनाए रखा जाए।

  • एक साथ बहुत सारे काम निबटाने के चक्कर में मनायोग से कोई कार्य पूरा नहीं हो पाता। आधा-अधूरा कार्य छोड़कर मन दूसरे कार्यों की ओर दौड़ने लगता है। यहीं से श्रम, समय की बर्बादी प्रारंभ होती है तथा मन में खीझ उत्पन्न होती है। विचार और कार्य सीमित एवं संतुलित कर लेने से श्रम और शक्ति का अपव्यय रुक जाता है और व्यक्ति सफलता के सोपानों पर चढ़ता चला जाता है।

  • कोई भी काम करते समय अपने मन को उच्च भावों से और संस्कारों से ओतप्रोत रखना ही सांसारिक जीवन में सफलता का मूल मंत्र है। हम जहां रह रहे हैं उसे नहीं बदल सकते पर अपने आपको बदल कर हर स्थिति में आनंद ले सकते हैं।

  • दूसरों से यह अपेक्षा करना कि सभी हमसे होंगे और हमारे कहे अनुसार चलेंगे, मानसिक तनाव बने रहने का, निरर्थक उलझनों में फंसे रहने का मुख्य कारण है। इससे छुटकारा पाने के लिए यह आवश्यक है कि हम चुपचाप शांतिपूर्वक अपना काम करते चलें और लोगों को अपने हिसाब से चलने दें। किसी व्यक्ति पर हावी होने की कोशिश न करें और न ही हर किसी को खुश रखने के चक्कर में अपने अमूल्य समय और शक्ति का अपव्यय ही करें।

  • यह सोचना निरर्थक है कि कोई हमारी ही बात माने, उसी के अनुसार चले, हममें ही रुचि ले और हमारी ही सहायता करे। यह चाहनाएं गलत भी हैं और हानिकारक भी। दूसरों पर भावनात्मक रूप से आश्रित न होना ही श्रेयस्कर है।

  • अपने दोष दूसरों पर थोपने से कुछ काम न चलेगा। हमारी शारीरिक एवं मानसिक दुर्बलताओं के लिए दूसरे उत्तरदायी नहीं वरन हम स्वयं ही हैं। दूसरे व्यक्तियों, परिस्थितियों एवं प्रारब्ध भोगों का भी प्रभाव होता है। पर तीन चौथाई जीवन तो हमारे आज के दृष्टिकोण एवं कर्तव्य का ही प्रतिफल होता है। अपने को सुधारने का काम हाथ में लेकर हम अपनी शारीरिक और मानसिक परेशानियों को आसानी से हल कर सकते हैं।

  • प्रभाव उनका नहीं पड़ता जो बकवास तो बहुत करते हैं पर स्वयं उस ढांचे में ढलते नहीं। जिन्होंने चिंतन और चरित्र का समन्वय अपने जीवन क्रम में किया है, उनकी सेवा साधना सदा फलती-फूलती रहती है।

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