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आचार्य श्रीराम शर्मा >> गायत्री साधना क्यों और कैसे

गायत्री साधना क्यों और कैसे

श्रीराम शर्मा आचार्य

डॉ. प्रणव पण्डया

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :60
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15490
आईएसबीएन :00000

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गायत्री साधना कैसे करें, जानें....

गायत्री मंत्र के 9 शब्द


यज्ञोपवीत के नौ धागे, तीन गठित-तीन व्याइतियां (भू: भुवः स्व:) और एक बड़ी गांठ बह्मग्रन्थि प्रणव-ॐ की प्रतीक है। गायत्री रूपी परमात्मा की शक्ति को कन्धे, हृदय, कलेजे व पीठ पर धारण करने वाले प्रत्येक जनेऊधारी को यह विश्वास करना चाहिए कि वह चारों ओर भगवान की महाशक्ति द्वारा घिरा-बंधा है, इसलिए इसे ऐसा शानदार जीवन जीना चाहिए जो भगवान की इच्छा और प्रसन्नता के अनुरूप हो। यज्ञोपवीत गले में बंधा हुआ एक धर्म रस्सा है वो याद दिलाता रहता है कि व्यक्ति को धर्म-नीति और सदाचार के बन्धनों में बंधे रहकर मानवीय मर्यादाओं के भीतर जीवन जीना चाहिए।

शिखा-इसी तरह देव संस्कृति में आदर्शों पर चलने के लिए संकल्पित व्यक्तियों का अनिवार्य प्रतीक चिढ़ है। यह हमारे मस्तिष्क रूपी किले पर गड़ा हुआ धर्म-ध्वज है। जिस प्रकार सरकारी इमारतों पर तिरंगा झण्डा फहराता रहता है, वैसे ही हर गायत्री उपासक के मस्तिष्क रूपी दुर्ग पर देव संस्कृति की विजय पताका, शिखा के रूप में फहराती है। उपासना के समय शिखा वन्दन की क्रिया एक तरह से झण्डा-अभिवादन जैसी ही है।

इसकी स्थापना का उद्देश्य यही है कि हर देव संस्कृति के अनुयायी का मस्तिष्क श्रेष्ठ विचारों व उच्च आदर्शों का ही केन्द्र रहना चाहिए। उनमें गंदे, ओछे व दुष्ट-अनैतिक विचारों को कोई स्थान न मिले। जिस राजा का किला होता है उसमें उसी की सेना या प्रजा निवास करती है। शत्रु सैनिकों को उसमें एक कदम भी नहीं रखने दिया जाता। उसी प्रकार जिस मस्तिष्क रूपी दुर्ग पर सद्‌विचार की धर्म ध्वजा शिक्षा के रूप में फहराती है, उसके संरक्षकों का आवश्यक कर्त्तव्य है कि नीच व दुष्ट विचारों को अपने विचार क्षेत्र में प्रवेश न करने दें और अपने आचरण स्वभाव व चिंतन को आदर्श के अनुरूप ढालते जांए।

मस्तिष्क विद्या के आचार्यों ने शिखा स्थान को मस्तिष्क की नाभि कहा है, दूसरे शब्दों में इसे मस्तिष्क का हृदय भी कह सकते हैं। योग विज्ञान के अनुसार भी यहां सूक्ष्म शक्तियों का केन्द्र सहस्रार चक्र विद्यमान है। यह केन्द्र अदृश्य शक्तियों के साथ व्यक्ति की चेतना को उसी प्रकार जोड़ता है, जैसा फल व डण्ठल का सम्बन्ध रहता है। इस कोमल स्थान को किसी प्रकार की चोद सर्दी, गर्मी आदि के कारण हानि न पहंचे, इसलिए भी शिखा आवश्यक है।

इस तरह जहाँ विचारों को पवित्र रखने की प्रेरणा शिखा में छिपी हैं, वहीं शरीर व कर्म को पवित्र रखने की दृढ़ता यज्ञोपवीत पैदा करता है। यह जहाँ गायत्री की कर्म प्रतिज्ञा है शिखा गायत्री की ज्ञान प्रतिज्ञा है। कर्म और ज्ञान दोनों के मिलन से ही मनुष्य जीवन को पूर्णता मिलती है। इस तरह यज्ञोपवीत और शिखा की स्थापना प्रत्येक गायत्री साधक को आवश्यक ही नहीं अनिवार्य भी बताई गई है। इनमें छिपे सन्देशों व प्रेरणाओं को धारण करने वाला व्यक्ति पशु से इन्सान, इन्सान से महान और महान से भगवान बन जाता है।

गायत्री मंत्र दीक्षा एवं गुरु वरण-यज्ञोपवीत, गायत्री मंत्र दीक्षा के साथ गुरुवरण का क्रम अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ है। गायत्री को गुरुमंत्र भी कहा गया है। प्राचीनकाल में बालक जब गुरुकुल में विद्या पढ़ने जाते थे, तो उन्हें वेदारंभ संस्कार के समय गुरुमंत्र के रूप में गायत्री मंत्र की ही दीक्षा दी जाती थी। आज के नामधारी गुरु नाना प्रकार के उटपटांग मंत्र पढ़कर गुरुदीक्षा की लकीर पीटते हैं, किन्तु प्राचीन काल में गायत्री मंत्र के अतिरिक्त और कोई दीक्षा मंत्र नहीं था।

गुरु के माध्यम से ही व्यक्ति अपनी श्रद्धा और विश्वास को विकसित करता है। गायत्री साधना की सफलता में इन्हीं बातों का सबसे महत्वपूर्ण स्थान है इनके बिना गायत्री साधना में आशाजनक सफलता की उम्मीद नहीं की जा सकती। बिना श्रद्धा के बाहरी कर्मकाण्ड प्रतीक-पूजा भर रह जाते हैं। गुरु और शिष्य के बीच जो श्रद्धा के सूत्र का मजबूत सम्बन्ध रहता है, वही-सभ्य तक पहुँचाने और साधना को सफल बनाने में समर्थ सिद्ध होता है। जैसे शुरू में छोटे तीर-कमान का अभ्यास करने वाला योद्धा बड़ा होने पर प्रचण्ड धनुष बाणों का प्रयोग करने में समर्थ हो जाता है, उसी प्रकार गुरु पर जमाया हुआ श्रद्धा-विश्वास बढ़ते-बढ़ते ईश्वर भक्ति और प्रेम का रूप ले लेता है।

गायत्री मंत्र पर वसिष्ठ और विश्वामित्र ऋषियों के शाप का उल्लेख आता है और कहा जाता है कि जो इस शाप का उत्कीलन कर लेता है, उसी की साधना सफल होती है। इस आलंकारिक वर्णन में गायत्री साधना को विधिवत् रूप से अनुभवी एवं योग्य मार्गदर्शक के संरक्षण में ही करने का रहस्य छिपा है। वसिष्ठ का अर्थ है-विशेष रूप से श्रेष्ठ। प्राचीन काल में जो व्यक्ति सवा करोड़ गायत्री जप करते थे उन्हें वसिष्ठ की पदवी दी जाती थी। वसिष्ठ शाप मोचन का तात्पर्य यह कि इस प्रकार के किसी अनुभवी उपासक से गायत्री दीक्षा लेनी चाहिए। विश्वामित्र का अर्थ है-सबकी भलाई करने वाला, कर्त्तव्यनिष्ठ एवं सच्चरित्र गायत्री का शिक्षक केवल वसिष्ठ गुणों वाला ही होना पर्याप्त नहीं। उसे विश्वामित्र भी होना चाहिए। ऐसे ही व्यक्ति से गायत्री की विधिवत् शिक्षा-दीक्षा लेने पर ही इस महामंत्र से सही-सही लाभ उठाना सम्भव होता है। अपने आप मन चाहे तरीकों से कुछ न कुछ करते रहने से अधिक लाभ नहीं प्राप्त हो सकता। जिसने ऐसा पथ-प्रदर्शक पा लिया, उसकी साधना की आधी मंजिल पार हो गई समझ लेना चाहिए। यही शाप मोचन-उत्कीलन का रहस्य है, अन्यथा गायत्री जैसी विश्व जननी महाशक्ति को कोई भी सत्ता शाप देने मे समर्थ नहीं है।

गुरुदीक्षा के साथ शुरू की गई गायत्री साधना विशेष रूप से फलवती होती है। इस विषय में गायत्री के सिद्ध साधक पं. श्रीराम शर्मा आचार्य गायत्री महामंत्र की गुरुदीक्षा के लिए हर कसौटी पर खरे उतरते हैं। उनका जीवन गायत्री उपासना और कठोर तप साधना में लीन रहा है। उनके चिंतन और क्रिया कलाप विश्व कल्याण की भावनाओं से ओत प्रोत रहा है। लुप्तप्राय गायत्री महाविद्या का पुन: उद्धार करने वाले गायत्री माता के इस वरद पुत्र को आधुनिक युग का विश्वामित्र कहे तो गलत न होगा। स्थूल शरीर के न रहते हुए भी वे सूक्ष्म व कारण शरीर में और भी अधिक शक्ति व प्रचण्डता के साथ सक्रिय हैं। भावना शील शिष्य, भक्त और जिज्ञासु जब-तब उनके संरक्षण, अनुग्रह और मार्ग दर्शन का अनुभव करते हैं। उनके सुयोग्य प्रतिनिधियों द्वारा गायत्री मंत्र की दीक्षा का क्रम जारी है। जिनसे दीक्षा लेकर गायत्री महाशक्ति की विधिवत् उपासना व साधना की शुरुआत की जा सकती है।

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