लोगों की राय

आचार्य श्रीराम शर्मा >> गायत्री साधना क्यों और कैसे

गायत्री साधना क्यों और कैसे

श्रीराम शर्मा आचार्य

डॉ. प्रणव पण्डया

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :60
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15490
आईएसबीएन :00000

Like this Hindi book 0

5 पाठक हैं

गायत्री साधना कैसे करें, जानें....

उपासना के साथ साधना भी आवश्यक


गायत्री उपासना में जप-ध्यान आदि की क्रिया तो दिन में कुछ समय तक ही चलती है। इतने भर से गायत्री साधना पूरी नहीं हो जाती। इसके लिए उपासना के साथ साधना को भी अनिवार्य रूप से जोड़ना पड़ता है। जिस प्रकार अन्न और जल, रात और दिन, गर्मी और सर्दी, स्त्री और पुरुष का जोड़ा होता है, उसी प्रकार उपासना और साधना दोनों का एक पूरक जोड़ा है। बिना साधना के उपासना का क्रम अधूरा ही रह जाता है।

पूजा उपासना के साथ साधना के क्रम को चौबीसों घण्टे अपनाना पड़ता है। अपने हर विचार और हर क्रिया कलाप पर एक चौकीदार की तरह कड़ी नजर रखनी पड़ती है कि कहीं कुछ गड़बड़ी तो नहीं हो रही है। जिस प्रकार शत्रु सीमा पर तैनात जवानों को हर घड़ी शत्रु की चालों और बातों का पता लगाने और जूझने के लिए चौकस रहना पड़ता है, वैसे ही जीवन संग्राम के हर मोर्चे पर सतर्क और जागरूक रहने की जरूरत होती है। यही तत्परता साधना है। इसमें अपनी सोच, व्यवहार और स्वभाव को अधिकाधिक श्रेष्ठ व गुणवान् बनाने का लगतार प्रयास करना पड़ता है। खाली जप- ध्यान और उपासना को ही सब कुछ मान बैठने तथा जीवन साधना की ओर ध्यान न देने के कारण गायत्री साधना के लाभों से वंचित ही रहना पड़ता है।

साधना का शुभारम्भ सुबह उठते ही शुरू हो जाता है, इसमें विस्तर पर पड़े-पड़े ही अपने सच्चे रूप, जीवन लक्ष्य व उद्देश्य का चिंतन मनन किया जाता है। एक नये संकल्प के साथ दिन का शुभारम्भ किया जाय कि आज के दिन का बेहतरीन उपयोग करते हुए इसे सफल व सार्थक बनाएंगे। इसमें दिन भर के क्रिया-कलापों, चिंतनपद्धति व दिनचर्या की एक सुव्यवस्थित योजना बनाई जाती है, जिसमें - (१) इन्द्रिय संयम, (२) समय संयम (३) विचार संयम व (४) अर्थ संयम के चार व्यावहारिक सूत्रों का जागरूकता के साथ पालन किया जाता है।

इन्द्रिय संयम में जिह्वा व जननेन्द्रिय के दुरूपयोग पर अंकुश लगाना प्रमुख है। जिह्वा का चटोरापन मात्रा से अधिक खाने के लिए मजबूर करता है, जो पेट में सड़न पैदा करके शरीर में तरह-तरह के विकार पैदा करता है और व्यक्ति के स्वास्थ्य व संतुलन को भारी नुकसान पहुँचाता है। जननेन्द्रिय की यौन लिप्सा के वशीभूत होकर व्यक्ति अपनी जीवनीशक्ति को फुलझड़ी की तरह जलाकर नष्ट करने पर उतारू हो जाता है। इसकी ज्यादती व्यक्ति के शरीर व मन को नींबू की तरह निचोड़कर रख देती है। शरीर जर्जर व मन तरह-तरह के विकारों से ग्रस्त हो जाता है। वाणी का दुरुपयोग अनावश्यक कड़वाहट और झगड़ों का कारण बनता है। यह अपनी को पराया और मित्र को दुश्मन बना देता है। इन्द्रिय संयम के अन्तर्गत जिहा के चटोरेपन, वाणी व जननेन्द्रिय के दुरुपयोग पर अंकुश लगाया जाता है।

समय संयम के अर्न्तगत ऐसी व्यस्त दिनचर्या बनानी पड़ती है कि आलस्य, प्रमाद व अनर्थ भरी हरकतों में समय बरबाद होने की गुंजाइश न बचे। समय ही जीवन है। इसका सही-सही उपयोग करके ही हम मनचाही वस्तु व उपलब्धि हासिल कर सकते हैं। अत: एक संतुलित और सुव्यस्थित दिनचर्या अपनाते हुए दिन के हर पल का श्रेष्ठतम उपयोग किया जाए। अति उत्साह में ऐसी योजना न बनाएं कि जिसे पूरा करना कठिन पड़े और अपना संतुलन ही डगमगा झाए।

अर्थ संयम में औसत भारतीय स्तर के जीवन निर्वाह व सादा जीवन-उच्च विचार के आदर्शों का पालन करना पड़ता है। अनावश्यक संग्रह, फिजूल खर्ची और दुरुपयोग से धन-साधन को बचा लेने पर ही यह बात निभ पाती है।

विचार संयम में चिंतन को निरर्थक नीच व दुष्ट कल्पनाओं से हटाकर उपयोगी व श्रेष्ठ योजनाओं-कल्पनाओं और भावनाओं के दायरे में ही रखना होता है। समय-समय पर बड़े ओछे, संकीर्णता व स्वार्थपूर्ण विचार मन में उठते रहते हैं। इनको हटाने के लिए पूर्व योजना बनाकर विरोधी व श्रेष्ठ विचारों की सशस्त्र-सेना तैयार कर लेनी पड़ती है। इस विषय में अच्छे साहित्य का स्वाध्याय अत्यन्त सहायक एवं उपयोगी है। इसे जीवन क्रम का अभिन्न अंग बना लेना चाहिए। वातावरण में फैले दूषित विचारों की छाया मन पर अनायास ही पड़ती रहती है। इसकी सफाई के लिए भी स्वाध्याय एक अचूक उपाय है। अच्छी पुस्तक के अध्ययन द्वारा हम सीधे-सीधे महापुरुषों के विचारों के सम्पर्क में आते है व उनके सत्संग जैसा लाभ उठा सकते हैं। इसके प्रकाश में मन के अंधेरे कोने में छिपे दोष-दुर्गुणों और बुराइयों के दर्शन और स्पष्ट रूप से होते हैं। उनको सुधारने का क्रम भी और जोर पकड़ता है। जीवन लक्ष्य स्पष्ट होने लगता है व आगे बढ़ने के लिए आवश्यक प्रेरणा व मार्ग दर्शन प्राप्त होता है।

रात को सोते समय दिन भर की समीक्षा, प्रात: निर्धारित क्रिया पद्धति में सुधार व अगले दिन को और बेहतर ढंग से जीने की योजना बनाई जाती है। इसमें १. आत्मचिंतन २. आत्मसुधार ३. आत्मनिर्माण व ४. आत्मविकास के सूत्रों को अपनाया जाता है।

आत्मचिंतन में, अपने दिन भर के चिंतन, व्यवहार व दिनचर्या का विश्लेषण किया जाता है। इसमें हुई चूक व कमियों की ढूँढ़-खोज, निरीक्षण व परीक्षण किया जाता है।

आत्म सुधार के अंतर्गत, योजना बनायी जाती है कि अभ्यास में आए हुए दोष-दुर्गुणों से कैसे छुटकारा पाया जाए।

आत्म निर्माण में, उन सदगुणों को अभ्यास में लाने की योजना बनाई जाती है, जो अब तक उपलब्ध नहीं थे, किन्तु जिनकी अपने विकास एवं प्रगति के लिए आवश्यकता है।

आत्म विकास में अपने आपको ईश्वर का अंश मानते हुए सारा विश्व अपना परिवार की उच्च भावना को व्यवहार मे लाने का अभ्यास किया जाता है। इसका शुभारम्भ परिवार स्तर पर सद्‌भाव, सहिष्णुता, उदारता, सेवा जैसे सद्‌गुणों के साथ किया जाता है और क्रमश: - समाज, राष्ट्र व विश्व तक विस्तार दिया जाता है।

प्रात: उठने से सोते समय तक इन संयम-नियमों का पालन करने से व्यावहारिक तप साधना का उद्देश्य पूरा हो जाता है। उपासना और साधना के इस क्रम का सजगता एवं ईमानदारी के साथ पालन करते हुए सोते समय गुरुसत्ता एवं इष्ट का स्मरण करते हुए निद्रा देवी की गोद में विश्राम करें।

युगशक्ति गायत्री से जुड़ कर जीवन धन्य बनाएँ-हर युग में मनुष्य को संकट से उबारने के लिए गायत्री महाशक्ति विविध रूपों में अवतरित हुई है। दुर्गाशक्ति, महाकाली, माँ सीता आदि इसी के अलग-अलग रूप थे। बुद्ध के परिव्राजक ईसा के पुरोहित, चाणक्य के धर्माचार्य, गाँधी के सत्याग्रही आदि इसी महाशक्ति के यंत्र बने थे।

आज विनाशकारी संकट के दौर में सबसे बड़ी आवश्यकता मनुष्य के विचारों को सही दिशा में मोड़ने की है। गायत्री साधना इसी काम को पूरा करने वाला विशेष उपचार हैं। गायत्री महामंत्र के चौबीस अक्षरों में बीज रूप में वे सभी तत्त्व भरे पड़े हैं, जो उपासक के हृदय अन्तःकरण में, जीवन को स्वस्थ, समर्थ और समझदार बनानेवाला प्रकाश जाग्रत् करते हैं। अनेक तरह की दार्शनिक मान्यताओं के रहते हुए भी उपासना के प्रति आदिकाल से ही ऋषि, मनीषी व महापुरुष सभी एकमत रहे हैं। जितने भी अवतार हुए हैं, सभी ने उपासना के रूप में आदिशक्ति भगवती गायत्री को ही इष्टदेव चुना है।

मनुष्य जाति की वर्तमान समस्याओं का समाधान एक मात्र विवेक और सद्ज्ञान द्वारा ही संभव है। इस युग में जबकि असुरता ने मन और बुद्धि को पूरी तरह से ढँक कर रखा है, तब इसकी आवश्यकता और भी अधिक हो जाती है। इस तरह युग की सबसे पहली आवश्यकता सदबुद्धि जगाने वाली गायत्री है। उसकी शिक्षा प्राणी मात्र के लिये कल्याणकारी है। यह लोक और परलोक सुधारने-संवारने वाली है। ऐसी कोई दूसरी तप-साधना नहीं है। यह कोई जादू चमत्कार नहीं, बल्कि शब्द शक्ति और भाव शक्ति का प्रत्यक्ष विज्ञान है। इसे श्रद्धालु-अश्रद्धालू तार्किक-अतार्किक कोई भी अपनाकर अपनी बिगड़ी स्थिति को सुधार कर और सुधरे को और संवार कर अपने जीवन को सफल बना सकता है।

युग संकट के मूल में सक्रिय दुर्बुद्धि को ठीक करने के लिए पुन: गायत्री का अवतरण युग शक्ति के रूप में हुआ है। संस्कृति के अन्य पहलुओं की तरह यह विद्या भी अंधकार में खो गयी थी। एक तो व्याख्याएँ और प्रतिपादन मिलते ही नहीं थे और जो मिलते भी थे, वे इतने उलझे हुए थे कि आम आदमी की समझ से बाहर थे। यदि किसी को बात समझ में आ भी जाती थी, तो स्वार्थी लोगों ने इस महान विद्या को इस तरह बन्दी बना रखा था कि कोई उसकी साधना का साहस नहीं कर सकता था। गायत्री केवल ब्राह्मणों के लिए स्त्रियाँ प्रतिबंधित हैं, ये कान में कहा जाने वाला मन्त्र है, गायत्री शाप ग्रस्त है, ऐसी न जाने कितनी मूढ़ मान्यताओं ने इस उपयोगी हीरे को जंग लगा दिया था।

युग निर्माण योजना के सूत्र संचालक पं. श्रीराम शर्मा आचार्य ने अपनी प्रचण्ड तप-साधना द्वारा इस हीरे को तराशा। अपने भागीरथी पुरुषार्थ द्वारा गायत्री रूपी ज्ञानगंगा को पूरी मानव जाति की भलाई के लिए धरती पर अवतरित कराया। गायत्री उपासना को इतना सरल, स्पष्ट व सुबोध बनाया कि यह शिक्षित-अशिक्षित, आस्तिक-नास्तिक स्त्री-पुरुष, स्वस्थ-बीमार सभी की श्रद्धा का पात्र बनी। इस तरह जन-जन के बीच गायत्री महाविद्या युगशक्ति के रूप में प्रकट हुई। यह अवतरण देश- संस्कृति व समूची मानव जाति के सौभाग्य के सूर्य के उगने जैसा रहा।

इस को अपना कर अब तक लाखों लोग अपने उज्ज्वल भविष्य के निर्माण की ओर बढ़ रहे हैं। गायत्री परिवार ऐसे ही गायत्री साधकों का विराट् समूह है। इसका केन्द्र हरिद्वार के सप्तऋषि क्षेत्र में, पावन गंगा के तट पर हिमालय के द्वार शान्तिकुंज में स्थित है। पुरातन समय में यह पावन स्थल ऋषि विश्वामित्र की तपस्थली रह चुका है। इस युग में आचार्य श्री एवं वन्दनीया माताजी की प्रचण्ड तप-साधना द्वारा जाग्रत् एवं अनुप्राणित होकर यह युग तीर्थ एवं गायत्री सिद्ध पीठ के रूप में उभर कर सामने आया है। गायत्री की प्राण ऊर्जा से ओत-प्रोत इस जीवन्त तीर्थ में साधना करने वाले साधक मनोवांछित कामनाएँ ही पूरी नहीं करते, वरन् एक नया विश्वास, शक्ति और प्रकाश लेकर लौटते हैं। नौ दिवसीय गायत्री साधना प्रधान शिविरों की श्रृंखला यहाँ अनवरत रूप से चल रही है। इसमें भाग लेकर कोई भी भावनाशील व्यक्ति गायत्री महाशक्ति के तत्व ज्ञान को हृदयंगम करके व युगशक्ति से जुड़ कर अपने जीवन को धन्य बना सकता है।

 

* * * *

...Prev |

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book