आचार्य श्रीराम शर्मा >> गायत्री प्रार्थना गायत्री प्रार्थनाश्रीराम शर्मा आचार्य
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गायत्री प्रार्थना
वंदनीया माता भगवती देवी शर्मा
वंदनीया माताजी के जन्म के साथ ही भविष्यवक्ताओं ने बताया कि एक दैवी सत्ता शक्ति रूप में उनके घर आई है। साधारण से असाधारण बनती हुई यह ऐसे उत्कर्ष को प्राप्त होगी कि करोड़ों व्यक्तियों की श्रद्धा का पात्र बनेगी। हजारों-लाखों व्यक्ति इस अन्नपूर्णा के द्वार पर भोजन करेंगे। कोई भी, कभी भी इसका आशीर्वाद पा लेगा, तो वह खाली हाथ नहीं जाएगा।
एक ऐश्वर्यशाली संपन्न घर में जन्म लेने के बावजूद सादगी भरा जीवन ही उन्हें पसंद था। रेशमी कीमती वस्त्रों की तुलना में गाँधी बाबा की बात कहकर सभी को खादी अपनाने की प्रेरणा देतीं और स्वयं भी वही पहनतीं। औरों को भोजन कराने, उनका आतिथ्य करने, उनके साथ सम्मानपूर्वक व्यवहार में वे सबसे आगे बढ़कर चलतीं। जिसने भी एक बार उनके हाथों प्यार भरे स्पर्श के साथ भोजन कर लिया, वह उन्हें सदा। याद रखता। विवाह के बाद बड़ी प्रतिकूल परिस्थितियों में वे उस जमींदार घराने में पहुँची, जहाँ आचार्य जी ओढ़ी हुई गरीबी का जीवन जी रहे थे। जैसा पति का जीवन, वैसा ही अपना जीवन। जहाँ उनका समर्पण, उसी के प्रति अपना भी समर्पण। यही संकल्प लेकर वे जुट गयीं, कंधे से कंधा मिलाकर पूर्व जन्मों के अपने आराध्य इष्ट के साथ। २४ वर्षों के २४ महापुरश्चरणों का उत्तरार्द्ध चल रहा था। जब गायत्री तपोभूमि की स्थापना का समय आया, तब पूज्य गुरुदेव १०८ कुंडीय यज्ञ कर २४ वर्षीय अनुष्ठान की पूर्णाहुति करना चाह रहे थे। स्वयं अपनी ओर से पहल करके वंदनीया माताजी ने अपने सारे जेवर अपने आराध्य के कार्य को सफल बनाने के लिए दे दिए। माताजी ने लिखा है-‘‘परिजनों की इस माँ ने अपने जीवन का हर क्षण एक समर्पित शिष्य की तरह जिया है। अपने आराध्य की हर इच्छा को पूरा करने का अथक प्रयास किया है। प्रत्यक्ष दृश्यपटल पर यदि हम दिखाई न भी पड़े, तो हमारा कृतित्व जो अब तक गुरुसत्ता की अनुकंपा से बन पड़ा है, सबके लिए प्रेरणा का केंद्र बना रहेगा एवं हमारे बच्चे उत्तराधिकारी बनते हुए आदर्शों के क्षेत्र में प्रतिस्पर्धा करते हुए उज्ज्वल भविष्य समीप लाते दिखाई पड़ेंगे, ऐसा हमारा दृढ़ विश्वास है।
गुरुदेव के तप की प्रभा जहाँ अपने तीव्र आकर्षण से चकाचौंध करती है, वहाँ वंदनीया माता जी का अपरिमित वात्सल्य हृदय की गहराइयों को तृप्त करता है। माता जी और गुरुदेव के रहस्यमय जीवन की अबूझ पहेली भले ही समझ में न आए, पर इतना अवश्य है कि यदि माता जी न होतीं, तो मिशन का इतना विस्तार संभवतः न होता। यानि कि शक्ति न होती, तो शायद शिव अपना लीला-विस्तार न कर पाते। पूज्य गुरुदेव ने लिखा, ‘‘माताजी भगवान के वरदान की तरह हमारे जीवन में आईं। उनके बगैर मिशन के उदय और विस्तार की कल्पना करना तक कठिन था। उन्होंने अपने आने के पहले दिन से ही स्वयं को तिल-तिल गलाने का व्रत ले लिया। विरोध का तत्त्व तो उनमें जैसे था ही नहीं। यदि वे चाहतीं, तो साधारण स्त्रियों की तरह मुझ पर रोज नई फरमाइशों के दबाव डाल सकती थीं। ऐसे में न तो तपश्चर्या बनतीं और न लोक सेवा के अवसर हाथ लगते। फिर जो कुछ आज तक हो सका, उसका कहीं नामोनिशान तक नहीं होता।"
वंदनीया माताजी ने लिखा है-‘‘जहाँ तक कष्ट सहने का प्रश्न है, सारा जीवन तितीक्षा के अभ्यास में ही लगा है। गुरुदेव की छाया में रहकर अधिक नहीं, तो इतना तो सीखा ही है कि आगत आपत्तियों के समय धैर्य, साहस और विवेक को दृढ़तापूर्वक अपनाए रहना चाहिए। व्यथा को इस तरह दबाए रहना चाहिए कि समीपवर्ती किसी अन्य को उसका आभास न होने पाए। मानव जीवन सुखों के साथ दुखों का भी युग्म है। संपत्ति ही नहीं विपत्ति भी भगवान मानव कल्याण के लिए भेजते हैं। गुरुदेव के संपर्क में ऐसे पाठ पढ़ती रही हूँ कि रुदन को मुस्कान में कैसे बदला जाना चाहिए।"
पूज्य गुरुदेव ने लिखा है-''माताजी का दर्जा ऊँचा बैठता है, क्योंकि उनका स्नेह सहयोग ही नहीं, वात्सल्य भी हमने। भरपूर पाया है। हमें वे बहुत उदारतापूर्वक परिपोषण देती रही हैं। उनका मूल्यांकन तुलनात्मक दृष्टि से कम नहीं किया जा सकता। वे अनवरत रूप से सहधर्मिणी रही हैं। उनके कारण हमें निजी जीवन में भी धर्म-धारणा पर अडिग रहने और दूसरों को उस दिशा में चला सकने में असाधारण सहायता मिली है। एक शब्द में उन्हें सजल श्रद्धा कहा जा सकता है। उनकी काया में है तो हाड़-माँस ही, पर कोई कण ऐसा नहीं है, जिसमें श्रद्धा कूट-कूट कर न भरी हो । संपर्क में आने वाले हमारी प्रज्ञा से निष्ठावान् नहीं बने हैं, वरन्. उनकी श्रद्धा के साथ वात्सल्य पाकर निष्ठावान् बने हैं। मिशन को अग्रगामी बनाने में किसने कितना योगदान किया, जब इसका लेखा-जोखा भगवान के घर लिया जाएगा, तो कदाचित मूर्धन्यों में माता जी का नाम ही अग्रणी होगा। कभी सोचते हैं कि यदि वे साथ न रही होतीं, तो इतना सब कर पाते क्या, जो कर सके। उनके वात्सल्य ने हमारी ही तरह समूचे गायत्री परिवार को, उनके माध्यम से दूरवर्ती वातावरण को कृतकृत्य किया है।"
महाप्रयाण के पूर्व माता जी ने कहा था, "निरंतर प्यार, ममत्व बाँटकर ही हमने यह संगठन खड़ा किया था। तुम सब इसी जिम्मेदारी को निभाना। मिशन का भविष्य निश्चित ही उज्ज्वल है। मुझे अपने पुत्र-पुत्रियों पर पूरा विश्वास है कि स्नेह की डोर में परस्पर बँधे इस मिशन के संस्थापकों व दैवी संचालन तंत्र के नियामक ऋषिगणों द्वारा निर्धारित लक्ष्य अवश्य पूरा होगा।"
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