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आचार्य श्रीराम शर्मा >> गायत्री पंचमुखी और एकमुखी

गायत्री पंचमुखी और एकमुखी

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :60
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15488
आईएसबीएन :00000

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गायत्री की पंचमुखी और एकमुखी स्वरूप का निरूपण

(१) अन्नमय कोश


गायत्री के पाँच मुखों में, आत्मा के पाँच कोशों में प्रथम का नाम अन्नमय कोश है। अन्न का तात्त्विक अर्थ है - पृथ्वी का रस। पृथ्वी से जल, अनाज, फल, तरकारी, घास आदि पैदा होती है। उन्हीं से दूध, घी, मांस आदि भी बनते हैं। यह सब अन्न कहे जाते हैं। इन्हीं के द्वारा रज-वीर्य बनते हैं और इन्हीं से इस शरीर का निर्माण होता है। अन्न द्वारा ही देह बढ़ती और पुष्ट होती है तथा अन्न रूपी पृथ्वी में ही भस्म होकर या सड़-गल कर मिल जाती है। अन्न से उत्पन्न होने वाला और उसी में मिल जाने वाला यह देह इसी प्रधानता के कारण 'अन्नमय कोश' कहा जाता है।

यहाँ एक बात ध्यान रखने की है कि हाड़-मांस का जो पुतला दिखाई देता है, वह अन्नमय कोश की आधीनता में है, पर उसे ही अन्नमय कोश न समझ लेना चाहिए। मृत्यु हो जाने पर देह तो नष्ट हो जाती है पर अन्नमय कोश नष्ट नहीं होता वह जीव के साथ रहता है। बिना शरीर के भी जीव भूतयोनि में या स्वर्ग-नरक में उन भूख, प्यास, सर्दी, गर्मी, चोट, दर्द आदि को सहता है जो स्थूल शरीर से सम्बन्धित हैं। इसी प्रकार उसे उन इन्द्रिय भोगों की चाह रहती है जो शरीर द्वारा ही भोगे जाने सम्भव हैं। भूतों की इच्छाएँ वैसी ही आहार-विहार की रहती है जैसी कि शरीरधारी मनुष्यों की होती हैं। इससे प्रकट है कि अन्नमय कोश शरीर संचालक, कारण, उत्पादक, उपभोक्ता आदि तो है, पर उससे पृथक् भी। इसे सूक्ष्म शरीर भी कहा जा सकता है।

रोग हो जाने पर डाक्टर, वैद्य, उपचार, ओषधि, इन्जेक्शन, शल्यक्रिया आदि द्वारा उसे ठीक करते हैं। चिकित्सा पद्धतियों की पहुँच स्थूल शरीर तक ही है, इसलिए यह केवल उन्हीं रोगों को दूर कर पाते हैं जो कि हाड़, मांस, त्वचा आदि के विकारों के कारण उत्पन्न होते हैं। परन्तु कितने ही रोग ऐसे भी हैं जो अन्नमय कोश की विकृति के कारण उत्पन्न होते हैं, उन्हें शारीरिक चिकित्सक लोग ठीक करने में प्रायः असमर्थ रहते हैं। ऐसे रोगों का समाधान अन्नमय कोश की साधना द्वारा ही सम्भव हो सकता है।

अन्नमय कोश की स्थिति के अनुसार शरीर का ढाँचा और रंग-रूप बनता है, उसी के अनुसार इन्द्रियों में शक्ति आती है। बालक जन्म से ही कितनी शारीरिक त्रुटियाँ, अपूर्णताएँ या विशेषताएँ लेकर आता है। किसी की देह आरम्भ से ही मोटी, किसी की जन्म से ही पतली होती है। आँखों की दृष्टि, वाणी की विशेषता, मस्तिष्क का भोंडा या तीव्र होना, किसी विशेष अंश का निर्बल या न्यून होना अन्नमय कोश की स्थिति के अनुरूप होता है। माता-पिता के रज-वीर्य का भी उसमें थोड़ा प्रभाव होता है, पर विशेषता अपने कोश की रहती है। कितने ही बालक माता-पिता की अपेक्षा अनेक बातों में बहुत भिन्न पाये जाते हैं।

शरीर अन्न से बनता और बढ़ता है। अन्न के भीतर सूक्ष्म जीवनतत्त्व रहता है वह अन्नमय कोश कहलाता है। जैसे शरीर में पाँच कोश हैं वैसे ही अन्न में तीन कोश हैं- स्थूल, सूक्ष्म, कारण। स्थूल में स्वाद और भार, सूक्ष्म में प्रभाव और गुण तथा कारण के कोश में संस्कार रहता है। जिह्वा से केवल भोजन का स्वाद मालूम होता है। पेट उसके बोझ का अनुभव करता है, रस से उसकी मादकता, उष्णता आदि प्रकट होती है। आश्रय कोश पर उसका संस्कार जमता है। मांस आदि अनेक अभक्ष्य पदार्थ ऐसे हैं जो जीव को स्वादिष्ट लगते हैं, देह को मोटा बनाने में भी सहायक होते हैं, पर उनमें सूक्ष्म संस्कार ऐसे होते हैं जो अन्नमय कोश को विकृत कर देता है और उसका परिणाम अदृश्य रूप से आकस्मिक रोगों के रूप में तथा जन्म-जन्मान्तरों तक कुरूपता एवं शारीरिक अपूर्णता के रूप में चलता है। इसलिए आत्मविद्या के ज्ञाता सदा सात्त्विक, सुसंस्कारी अन्न पर जोर देते हैं, ताकि स्थूल शरीर में बीमारी, कुरूपता, अपूर्णता, आलस्य एवं कमजोरी की बढ़ोतरी न हो। जो लोग अभक्ष्य खाते हैं, वे अब नहीं तो भविष्य में ऐसी आन्तरिक विकृति से ग्रस्त हो जाएँगें जो उनको शारीरिक सुख से वंचित रखे रहेगी। अन्नमय कोश के आवरण की, उसे परिपुष्ट एवं समुन्नत करने की अनेक साधनाएँ हैं। इस परिचय पुस्तिका में उनका वर्णन सम्भव नहीं। गायत्री महाविज्ञान द्वितीय भाग में उनका वर्णन किया जा चुका है। यहाँ तो इसका इतना ही समझना पर्याप्त है कि आहार शुद्धि से, सतोगुणी अन्न खाने से इस कोश का परिशोधन होता है। ईमानदारी का कमाया हुआ, स्वच्छतापूर्वक बनाया हुआ, शान्तचित्त से खाया हुआ और औषधि की भावना से भगवान् का प्रसाद समझ कर नियत समय पर, उचित मात्रा में ग्रहण किया हुआ सात्त्विक प्रकृति का आहार ही अन्नमय कोश की उन्नति में सहायक होता है।

अन्नमय कोश की साधना से मनुष्य निरोग, दीर्घजीवी, सुन्दर, सुदृढ़, आकर्षक एवं प्रभावशाली बनता है। ऐसा शरीर धारण किये रहने वाला जीव जीवन के जिस क्षेत्र में भी प्रवेश करता है, अपने प्रभावपूर्ण व्यक्तित्व के कारण सफलता ही प्राप्त करता चला जाता है।

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