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आचार्य श्रीराम शर्मा >> गायत्री की मंत्र की विलक्षण शक्ति

गायत्री की मंत्र की विलक्षण शक्ति

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :60
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15486
आईएसबीएन :00000

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गायत्री मंत्र की विलक्षण शक्तियों का विस्तृत विवेचन

गायत्री के २४ अक्षरों में सन्निहित शिक्षा


गायत्री के २४ अक्षरों में सन्निहित शिक्षा सर्वविदित है वरेण्य, भर्ग, देव गुण वाले सविता को आत्मा में धारण करने और सन्मार्ग पर प्रज्ञा को नियोजित करने का सन्देश एक स्पन्दन इन शब्दों में प्रतिध्वनित होता है। इस मंत्र नीति को अपनाने की शिक्षा इस महामंत्र में दी गई है। पर यह नहीं समझ लेना चाहिए कि इतना उपदेश देना मात्र ही उसका प्रयोजन है। यह २४ अक्षर जिस प्रकार गुँथे हुए हैं, उनकी वास्तविक विशेषता उनके द्वारा उत्पन्न होने वाले वैज्ञानिक प्रयोजनों में है। यदि ऐसा न होता, तो एक बार में उसका पाठ समझ लेना पर्याप्त होता। बार-बार उसका जप उच्चारण करने की कोई आवश्यकता न पड़ती। महामंत्र में सन्निहित अलौकिक एवं विलक्षण शक्तियों के बारे में शास्त्रकारों ने तत्त्वदर्शी महर्षियों ने बार - बार संकेत किया है और बताया है कि इन अक्षरों का, इन शब्दों का लिखने -बोलने से साधारण जो स्वरूप परिलक्षित होता है, उतना ही न समझा जाए। इन अक्षरों में रहस्य भी बहुत कुछ है। उस रहस्य में अलौकिकता भी प्रचुर परिमाण में छिपी पड़ी है।

गायत्री मंत्र यों याद तो कई व्यक्तियों को होता है, उसका अर्थ भी वेदव्यास ने महाभारत में यही प्रतिपादन किया है कि गायत्री का तत्व एवं रहस्य जानना चाहिए। जानकर उसे अपनाना चाहिए जो इस प्रकार प्रयत्न करेंगे; वे सर्वागीण प्रगति की दिशा में ही निरन्तर अग्रसर होंगे। अवनति का कोई ऐसा प्रसन्न उनके सामने न आयेगा।

य एतां वेद गायत्री पुण्यौ सर्वगुणान्विताम्।
तत्वेन भारतश्रेष्ठ! स लोके न प्रणश्यति।।

- महाभारत 

''जो इस पवित्र सर्वगुण सम्पन्न गायत्री तत्त्व को जानता है उसकी इस लोक में अवनति नहीं हो।''

गायत्री महामंत्र के अक्षरों को जानते, समझते हुए भी हम वस्तुत: उससे अनजान ही हैं। यदि उसे हम तत्त्वत: जानने, समझने और अपनाने में सफल हुए होते तो उस स्थिति में न होते जिसमें आज हैं, तब हमारी स्थिति कुछ और ही होती। हम ब्रह्मचेतन, पुण्यात्मा, कीर्तिमान् दिव्य विभूतियों से सुसम्पन्न निर्मल अन्तःकरण और परम श्रेय के अधिकारी बने हुए सुख-शान्तिपूर्ण स्वर्गीय -जीवन जी रहे होते। गायत्री उपनिषद् का प्रतिपादन है कि-

यो हवा एवं विन, स ब्रह्मवित्युण्यां च कीर्तिं लभते कभीश्च सुग्प्न्धान् सोऽपहतपाष्मानन्तां श्रियमश्नुते य एवं वेद यश्चैव विद्वानेवमेतां वेदानां मातरं सावित्रीसम्पद उपनिषदमुपास्त इति ब्राह्मणम्।

-गायत्री उपनिषद्

जो वेदमाता गायत्री को ठीक तरह जान लेता है, वह ब्रह्मवत् पुण्य कीर्ति एवं दिव्य विभूतियों को प्राप्त करता है और निर्मल अन्तःकरण होकर परम श्रेय का अधिकारी बनता है।

गोपथ ब्राह्मण में गायत्री के २४ अक्षरों को २४ स्तम्भों का दिव्य तेज बताया गया है। समुद्र में जहाजों का मार्गदर्शन करने के लिए जहाँ-तहाँ प्रकाश स्तम्भ खड़े रहते हैं। उनमें जलने वाले प्रकाश को देखकर नाविक अपने जलपोत को सही रास्ते से ले जाते हैं और चट्टानों से टकराने एवं कीचड़ आदि में धँसने से बच जाते हैं। इसी प्रकार गायत्री के २४ अक्षर २४ प्रकाश स्तम्भ बनकर प्रज्ञा की जीवन नौका को प्रगति एवं समृद्धि के मार्ग पर ठीक तरह चलते रहने की प्रेरणा करते हैं, आपत्तियों से बचाते हैं और अनिश्चितता को दूर करते हैं।

गोपथ के अनुसार गायत्री चारों वेदों की प्राण, सार, रहस्य एवं तन (साम) है। साम संगीत का यह 'रथन्तर' आत्मा के उल्लास को उद्वेलित करता है। जो इस तेज को अपने में धारण करता है, उसकी वंश परम्परा तेजस्वी बनती चली जाती है। उसकी पारिवारिक सन्तति और अनुयायियों की श्रृंखला में एक से एक बढ़कर तेजस्वी, प्रतिभाशाली उत्पन्न होते चले जाते हैं। श्रुति कहती है-

तेजो वै गायत्री छन्दसौ रथन्तरमं साम्राम् तेजश्चतुर्विंशस्ते माना तेज एवं तत्सम्यक् दधाति पुत्रस्य पुत्रस्तेजस्वी भवति।

- गोपथ 

''गायत्री सब वेदों का तेज है। सामवेद का यह रथन्तर छन्द ही २४ स्तम्भों का यह दिव्य तेज है। इस तेज को धारण करने वाले की वंश परम्परा तेजस्वी होती है।''

गायत्री को परा विद्या कहा है। साधारण विद्या के लाभों का परिचय सर्व साधारण को है; किन्तु परा विद्या का महत्त्व कोई विरले ही जानते हैं। जो जानते हैं, वे धन्य हो जाते हैं। परम तत्व में परमात्मा से दिव्य विभूतियों से- जीव का सीधा सम्बन्ध बनाने वाली परा विद्या मनुष्य की सबसे बड़ी श्रेय साधना है। गायत्री के २४ अक्षरों में बीजरूप से गायत्री विद्या का सारा रहस्य और तत्त्वज्ञान ओत-प्रोत हो रहा है। शास्त्रकारों ने इस रहस्य को जाना और प्रकट किया है-

गायत्री त्रिपदा देवी अक्षरी भुवनेश्वरी।
चतुर्विंशाक्षरा विद्या सा चैवाभीष्ट देवता।। 

- रुद्रयामल

''तीन पद वाली तथा तीन अक्षर (अ-उ-म्) वाली, समस्त भुवनों की अधिष्ठात्री २४ अक्षर वाली परा विद्यारूप गायत्री देवी-सबको इच्छित फल देने वाली है।''

रुद्रयामल तंत्र की भांति ही गायत्री तंत्र में भी इसी तथ्य का वर्णन है। उसका प्रत्येक अक्षर इस महाविज्ञान का सारगर्भित अध्याय ही कहा जाना चाहिए।

चतुर्विंशाक्षरी विद्या पर तत्त्व विनिर्मिता।
तत्कारात् याष्कारपर्यंत शब्द ब्रह्मस्वरूपिणि।।

-गायत्री तंत्र

''तत् से लेकर प्रचोदयात् के २४ अक्षरों वाली गायत्री तत्त्व अर्थात् परा विद्या से ओतप्रोत हो।''

गायत्री के २४ अक्षर आठ- आठ शब्दों के तीन पादों में विभाजित हैं। इन तीन पादों का अपना महत्त्व है। तीन पाद तीनों लोकों की समस्त विभूतियाँ अपने अंदर धारण किये हुए हैं। जो उन्हें ठीक तरह जान-समझ लेता है, उन्हें प्रयोग में लाने की प्रक्रिया समझ लेता है, वह त्रयलोक विजयी की तरह आनंदित होता है।

''भूमिरन्तरिक्षं द्यौरित्यष्टावक्षराण्यष्टा क्षर हवा एक गायत्र्यै पदमे तदुहै वास्या एतत्सयावदेषु त्रिषु लोकेषु तावद्ध जयति योउस्थाएतदेव पद वेद।''

-बृहदारण्यक ५.१४.१

अर्थात्-भूमि, अंतरिक्ष, द्यौ ये तीनों गायत्री के प्रथम पाद के आठ अक्षरों के बराबर हैं। जो गायत्री के इस प्रथम पाद को जान लेता है, सो तीनों लोकों को जीत लेता है।

बृहदारण्यक उपनिषद् में गायत्री के तीन चरण के द्वारा उपलब्ध हो सकने वाले प्रतिफलों का उल्लेख मिलता है। जिससे जाना जाता है कि इस महामंत्र का आश्रय लेने वाला साधक क्या कुछ प्राप्त करने में सफल हो सकता है?

तत्सवितुर्वरेण्यक मधुवाता क्रतायते मधुक्षरन्ति सिन्धव:। माध्वीर्न: सन्त्वोषधी:। भू: स्वाहा भर्गो देवस्य धीमहि। मधुनक्त मुतोषसो मधुमत्पार्थिव रज:। मधु द्यौ रस्तु न: पिता। भुव: स्वाहा धियो यो न: प्रचोदयात्। मधुमान्नो वनस्पतिर्मधु मां ३ अस्तु सूर्य: माध्वीर्गावो भवन्तु न:। स्व: स्वाहा। सर्वाश्च मधुमती रहमेवेद सर्वं भूयासं भूर्भुवः स्व: स्वाहा।

- ब्रहदारण्यक 

-(तत्सवितुर्वरेण्यं) मधुर वायु चले, नदी और समुद्र रसमय होकर रहें। औषधियाँ हमारे लिए सुखकारक हों।
-(भर्गो देवस्य धीमहि) रात्रि और दिन हमारे लिए सुखकारक हों। पृथ्वी की रज हमारे लिए मंगलमय हो। द्युलोक हमें सुख प्रदान करे।  
-(धियो यो न: प्रचोदयात्) वनस्पतियों हमारे लिए रसमयी हों। सूर्य हमारे लिए सुखप्रद हो, उसकी रश्मियाँ हमारे लिए कल्याणकारी हों। सब हमारे लिए सुखप्रद हों। मैं सबके लिए मधुर बन जाऊँ।

यों उपरोक्त मंत्र में प्रार्थना जैसी शब्दावली का प्रयोग हुआ है, पर उसमें जिस भावना का संकेत है, उसे सहज समझा जा सकता है। प्रथम पाद में वायु नदी, समुद्र, रस और औषधियों के, दूसरे पाद में दिन, रात्रि, पृथ्वी, समृद्धि एवं द्युलोक के, तीसरे पाद में धन- धान्य एवं ऋतुओं के अनुकूल होकर सुख, वैभव प्रदान करने की चर्चा है और साधक को इतना मधुर, सुसंस्कृत बन सकने का संदेश है, जिससे उसके लिए सब कोई अनुकूल एवं मधुर बन सके।

गायत्री मंत्र का एक-एक अक्षर एक-एक देवता का प्रतिनिधित्व करता है। इन २४ अक्षरों की शब्द शृंखला में बँ धे हुए २४ देवता माने गये हैं-

गायत्या वर्णमेकैकं साक्षात् देवरूपकम्।
तस्मात् उच्चारण तस्य त्राणयेव भविष्यति।।

-गायत्री संहिता

अर्थात्  गायत्री का एक-एक अक्षर साक्षात् देवस्वरूप है। इसलिए उसके उच्चारण से उपासक का कल्याण ही होता है।

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