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आचार्य श्रीराम शर्मा >> गायत्री की मंत्र की विलक्षण शक्ति

गायत्री की मंत्र की विलक्षण शक्ति

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :60
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15486
आईएसबीएन :00000

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गायत्री मंत्र की विलक्षण शक्तियों का विस्तृत विवेचन

गायत्री-तत्त्वदर्शन

किसी वस्तु के संबंध में विचार करने के लिए यह आवश्यक है कि उसकी कोई मूर्ति हमारे मन: क्षेत्र में हो। बिना कोई प्रतिमूर्ति बनाये मन के लिए किसी भी विषय में सोचना असम्भव है। मन की प्रक्रिया ही यही है कि पहले वह किसी वस्तु का आकार निर्धारित कर लेता है, तब उसके बारे में कल्पना शक्ति काम करती है। समुद्र भले ही किसी ने न देखा हो, पर जब समुद्र के बारे में कुछ सोच-विचार किया जाएगा, तब एक बड़े जलाशय की प्रतिमूर्ति मन: क्षेत्र में अवश्य रहेगी। भाषा-विज्ञान का यही आधार है। प्रत्येक शब्द के पीछे आकृति रहती है। 'कुत्ता' शब्द जानना तभी सार्थक है, जब 'कुत्ता' शब्द उच्चारण करते ही एक प्राणी विशेष की आकृति सामने आ जाए। न जानी हुई विदेशी भाषा को हमारे सामने कोई बोले तो उसके शब्द कान में पड़ते हैं, पर वे शब्द चिड़ियों के चहचहाने की तरह निरर्थक जान पड़ते हैं। कोई भाव मन में उदय नहीं होता। कारण यह है कि शब्द के पीछे रहने वाली आकृति का हमें पता नहीं होता। जब तक आकृति सामने न आए तब तक मन के लिए असम्भव है कि उस संबंध में कोई सोच विचार करे।

ईश्वर या ईश्वरीय शक्तियों के बारे में भी यही बात है। चाहे उन्हें सूक्ष्म माना जाए या स्थूल, निराकार माना जाए या साकार, इन दार्शनिक और वैज्ञानिक झमेलों में पड़ने से मन को कोई प्रयोजन नहीं। उससे यदि इस दिशा में कोई सोच-विचार का काम लेना है, तो कोई आकृति बनाकर उसके सामने उपस्थित करनी पड़ेगी। अन्यथा वह ईश्वर या उसकी शक्ति के बारे में कुछ भी न सोच सकेगा। जो लोग ईश्वर को निराकार मानते हैं, वे भी 'निराकार' का कोई न कोई आकार बनाते हैं। आकाश जैसा निराकार, प्रकाश जैसे तेजोमय, अग्नि जैसा व्यापक, परमाणुओं जैसा अदृश्य। आखिर कोई न कोई आकार उस निराकार का भी स्थापित करना ही होगा। जब तक आकार की स्थापना न होगी, मन, बुद्धि और चित्त से उसका कुछ भी संबंध स्थापित न हो सकेगा।

इस महासत्य को ध्यान में रखते हुए निराकार, अचित्य बुद्धि से, अलभ्य, वाणी से अतीत, परमात्मा का मन से संबंध स्थापित करने के लिए भारतीय आचार्यों ने ईश्वर की आकृतियाँ स्थापित की हैं। इष्टदेवों के ध्यान की सुन्दर, दिव्य प्रतिमाएँ गढ़ी हैं। उनके साथ दिव्य आयुध, दिव्य वाहन, दिव्य गुण, स्वभाव एवं शक्तियों का संबंध किया है। ऐसी आकृतियों का भक्तिपूर्वक ध्यान करने से साधक उनके साथ एकीभूत होता है, दूध और पानी की तरह साध्य और साधक का मिलन होता है। भृङ्गी, झींगुर को पकड़ कर ले जाती है और उसके सामने भिनभिनाती है, झींगुर उस गुंजन को सुनता है और उसमें इतना तन्मय हो जाता है कि उसकी आकृति बदल जाती है और झींगुर भृङ्गी बन जाता है। दिव्य कर्म स्वभाव वाली देवाकृति का ध्यान करते रहने से साधक में भी उन्हीं दिव्य शक्तियों का आविर्भाव होता है। जैसे रेडियो यन्त्र को माध्यम बनाकर सूक्ष्म आकाश मे उड़ती फिरने वाली विविध ध्वनियों को सुना जा सकता है, उसी प्रकार ध्यान में देवमूर्ति की कल्पना करना आध्यात्मिक रेडियो स्थापित करना है, जिसके माध्यम से सूक्ष्म जगत् में विचरण करने वाली विविध ईश्वर शक्तियों को साधक पकड़ सकता है। इसी सिद्धान्त के अनुसार अनेक इष्टदेवों की अनेक आकृतियाँ, साधकों को ध्यान करने के लिए बताई गई हैं। इन देव आकृतियों का स्वतंत्र विज्ञान है। अमुक देवता की अमुक प्रकार की आकृति क्यों रखी गई है? इसका एक क्रमबद्ध रहस्य है। इसकी चर्चा तो एक स्वतंत्र पुस्तक में करेंगे, यहाँ तो इतना ही जान लेना पर्याप्त होगा कि अमुक प्रयोजन के लिए अमुक ईश्वरीय शक्तियों को अपनी ओर आकर्षित करने के लिए जो आकृति योगी लोगों को ठीक सिद्ध हुई है, वही आकृति उस देवता की घोषित कर दी गई है।

जहाँ अन्य प्रयोजनों के लिए अन्य देवाकृतियाँ हैं वहाँ इस विश्व ब्रह्माण्ड को ईश्वरमय देखने के लिए 'विराट्‌रूप' परमेश्वर की प्रतिमूर्ति विनिर्मित की गई है। मनुष्य की सारी आत्मोन्नति और सुख-शान्ति इस बात पर निर्भर है कि उसका आन्तरिक और बाहय जीवन पवित्र एवं निष्पाप हो, समस्त प्रकार के क्लेश, दु:ख, अभाव एवं विक्षोभों के कारण मनुष्य के शारीरकि और मानसिक पाप हैं। यदि वह इन पापों से बचता जाता है तो फिर और कोई कारण ऐसा नहीं जो उसकी ईश्वर प्रदत्त अनन्त सुख-शान्ति में बाधा डाल सके। पापों से बचने के लिए ईश्वरीय भय की आवश्यकता होती है। ईश्वर सर्वत्र व्यापक है इस बात को जानते तो सब हैं, पर अनुभव बहुत कम लोग करते हैं। जो मनुष्य यह अनुभव करेगा कि ईश्वर मेरे चारों ओर छाया है और वह पाप का दण्ड अवश्य देता है-जिसके यह भावना अनुभव में आने लगेगी, वह पाप न कर सकेगा। जिस चोर के चारों ओर सहस्र पुलिस घेरा डाले खड़ी हो और हर तरफ से उस पर ओखें गडी हुई हों, वह ऐसी दशा में भला किस प्रकार चोरी करने का साहस करेगा?

परमात्मा की आकृति चराचरमय ब्रह्माण्ड में देखना ऐसी साधना है, जिसके द्वारा परमात्मा के अनुभव करने की चेतना जागृत हो जाती है। यही विश्वमानव की पूजा है, इसे ही विराट् दर्शन कहते हैं। रामायण में भगवान् राम ने अपने जन्म-काल में कौशल्या को विराट् रूप दिखलाया था उत्तराखण्ड में काकभुशुण्ड जी के संबंध में वर्णन है कि वे भगवान् के मुख में चले गये तो वहाँ सारे ब्रह्माण को देखा। भगवान कृणा ने भी इसी प्रकार कई बार विराट् रूप दिखाये। मिट्‌टी खाने के अपराध से मुँह खुलवाते समय यशोदा को विराट् रूप दिखाया, महाभारत के उद्योग पर्व में दुर्योधन ने भी ऐसा ही रूप देखा। अर्जुन को भगवान् ने युद्ध के समय विराट्‌रूप दिखाया, जिसका गीता के ११ वें अध्याय में सविस्तार वर्णन किया गया है।

इस विराट्‌रूप को देखना हर किसी केलिए सम्भव है। अखिल विश्व ब्रह्माण्ड में परमात्मा की विशालकाय मूर्ति देखना और उसके अन्तर्गत-उसके अंग-प्रत्यके के रूप में समस्त पदार्थें को देखने, प्रत्येक स्थान को ईश्वर से ओत-प्रोत देखने की भावना करने से भगवद् बुद्धि जागृत होती है और सर्वत्र प्रभु की सत्ता से व्याप्त होने का सुदृढ़ विश्वास होने से मनुष्य पाप से छूट जाता है। फिर उससे पाप कर्म नहीं बन सकते। निष्पाप होना इतना बड़ा लाभ है कि उसके फलस्वरूप सब प्रकार के दुःखों से छुटकारा मिल जाता है। अन्धकार के अभाव का नाम है-प्रकाश और दुःख के अभाव का नाम है-आनन्द। विराट् दर्शन के फलस्वरूप निष्पाप हुआ व्यक्ति सदा अक्षय आनन्द का उपभोग करता है।

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