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आचार्य श्रीराम शर्मा >> गायत्री की युगांतरीय चेतना

गायत्री की युगांतरीय चेतना

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :60
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15483
आईएसबीएन :00000

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गायत्री साधना के समाज पर प्रभाव

गायत्री महाशक्ति से नवयुग की संरचना


नवयुग के अनुरूप सुखद परिस्थितियाँ उत्पन्न करने के लिए तदनुरूप मनःस्थिति का उत्पन्न किया जाना आवश्यक है। कर्म अनायास ही नहीं हो जाते, उसका बीज-तत्व विचारों में रहता है। बीज अंकुर के रूप में प्रस्Hgटित होता है तब कहीं वृक्ष का अस्तित्व प्रकाश में आता है। उज्ज्वल भविष्य की संरचना का स्वरूप धरती पर स्वर्ग के अवतरण जैसा निर्धारित किया गया है। समाज में सत्प्रवृत्तियाँ चल पड़ने और पारस्परिक व्यवहार में शालीनता का समावेश होने पर ही यह सम्भव हो सकेगा। समृद्धि और कुछ नहीं सदुद्देश्य भरे पुरुषार्थ का ही प्रतिफल है। प्रगति का अर्थ अधिक उपार्जन ही नहीं उपलब्धियों का सदुपयोग करने को थमता भी है। धरती पर स्वर्ग के अवतरण का अभिप्राय ऐसी ही परिस्थितियाँ उत्पन्न करना है।

स्पष्ट है कि भली या बुरी परिस्थितियाँ आसमान से नहीं टपकती, वे मानवी मनःस्थिति की प्रक्रिया भर होती हैं। सुखद परिस्थितियों, अनुकूल साधन-सुविधायें उत्पन्न करनी हों तो चिन्तन और चरित्र को सृजनात्मक सतयोजनों में लगाने के अतिरिक्त और कोई उपाय है नहीं। व्यक्ति का अन्तराल निकृष्टता की कीचड़ में धँसा रहे तो उसकी विचारणा और क्रियाशक्ति के दोनों ही शक्तिसोत विनाश की विभीषिकाएँ रचते रहेगे। उनकी दुखद प्रतिक्रिया चित्र-विचित्र समस्याओं और विपत्तियों के रूप में सामने आती रहेंगी। प्रगति के क्रम पर किए गये उपचार यत्किंचित उत्पादन भले ही कर लें पर आतरिक निकृष्टता के बने रहने पर न उलझनें सुलझेंगी और न संकट टलेगे। अन्त-क्षेत्र में भरी हुई दुष्प्रवृत्तियों को साधनों का सहारा मिलने लगा तो वे सौंप के दूध पीने पर बढ़ने वाले विष की तरह आत्मघात और परपीड़न के ही सरंजाम खड़े करेगी।

धरती पर स्वर्गीय परिस्थितियाँ उत्पन्न करने की, उज्ज्वल भविष्य के सपनों को साकार बनाने की प्रक्रिया प्रत्यक्षत: तो बड़े हुए साधनों और प्रचलन में सुव्यवस्था के रूप में दिखाई देगी, पर उसका आधार उथला नहीं गहरा होगा। परिपुष्ट शालीनता ही इतना कुछ कर सकने में समर्थ होगी, इसी को मनुष्य में देवत्व का उदय कहा गया है। नैतिक, बौद्धिक और सामाजिक दृष्टि से सुसंस्कृत व्यक्ति ही देवता कहे जाते हैं। उच्चस्तरीय संकल्प और चरित्र का समन्वय ही प्रतिभा है। प्रतिभा के सहारे प्रतिकूलताओं और अभावों के घिरे रहने पर भी व्यक्ति आगे बढ़ सकता है और महामानवों जैसा श्रेय पा सकता है। वह स्वयं आगे बढ़ता और सम्पर्क के वातावरण तथा समुदाय को भी ऊँचा उठाता है। युग निर्माण का लख सुखद परिस्थितियाँ उत्पन्न करना है। उसकी पूर्ति मनुष्य में देवस्तर का व्यक्तित्व उत्पन्न करने से ही होगी। इसी बीज से उत्पन्न हुए अंकुर समयानुसार श्रेय संभावनाओं के रूप में हरे-भरे लहलहाते और फले-फूले दिखाई देगे।

तथ्यों को गम्भीरतापूर्वक समझने के उपरान्त इस निष्कर्ष पर पहुंचना होगा कि व्यक्तियों को परिस्कृत कैसे किया जाय? इस सम्बन्ध में किये गये तत्व-चिन्तन से यही जाना जा सकेगा कि विचारणा और आस्थाओं के मर्मस्थल में घुस पड़ने वाली विकृतियों का निराकरण किया जाये, उनके स्थान पर सत्प्रवृत्तियों की स्थापना की जाय। जनमानस का परिष्कार इसी को कहते हैं। धर्मतंत्र से लोक-शिक्षण का अभियान इसी आवश्यकता की पूर्ति के लिए चल रहा है। नये युग की संरचना के आधारभूत तथ्यों का केन्द्र-बिन्दु इन्हीं प्रयासों में सन्निहित है। महाकाल की सामयिक प्रेरणा जागृत- आत्माओं को इन्हीं गतिविधियों में संलग्न होने के लिए घसीटती-धकेलती दृष्टिगोचर हो रही है।

प्रचार प्रशिक्षण को विचार-विस्तार का माध्यम माना जाता है। जहाँ तक नैतिक शिक्षण का सम्बन्ध है वहाँ तक उस आधार को उथला ही माना जायेगा। जानकारियाँ बढ़ाने और कला-कौशल सिखाने में सामान्य शिक्षण की व्यवस्था कर देने से काम चल जाता है पर जहाँ तक चरित्र निर्माण और व्यक्तित्व के परिष्कार का सम्बन्ध है वहाँ इस उपचार द्वारा कुछ कारगर परिणाम नहीं निकलते दीखते। नैतिकता और आदर्शवादिता की दुहाई देने वाले धर्मोंपदेशक, समाज-सुधारक, राजनेता साहित्यकार आदि मूर्धन्य वर्ग के लोगों को भी जब व्यक्तिगत व्यवहार में अजइतिरत देखते है तो आश्चर्य होता है कि जो लोग दूसरों को सदाचरण की शिक्षा इतने जोर-शोर से देते हैं, वे स्वयं अपने ही प्रतिपादन के सर्वथा प्रतिकूल आचरण कैसे कर रहे हैं?

नीति और सदाचरण के सिद्धांतों का जहाँ तक प्रश्न है-इस सम्बन्ध में सर्वसाधारण को पर्याप्त जानकारी है। यहाँ तक कि प्रसंग आने पर अनाचारी भी सदाचरण का ही पक्ष-समर्थन करता है। ऐसी दशा में किंकर्तव्य विमूढ़ रह जाना पड़ता है कि प्रचार प्रशिक्षण द्वारा नीति-शिक्षा कैसे दी जाय? जगे हुओं को कैसे जगाया जाय? माने हुए को कैसे मनाया जाय? प्रचार तंत्र का उद्‌देश्य तो जानकारी देना भर है। जिन्हें पहले से ही जानकारी प्राप्त है उन्हें उन्हीं बातों पर बार-बार बताते चलने से पिसे को पीसने जैसी उपहासास्पद स्थिति ही बनी रहती है। अस्तु मात्र प्रचार तंत्र के सहारे मनुष्य में देवत्व उत्पन्न करने वाली आस्थाओं की प्रतिष्ठापना संभव न हो सकेगी। उस स्तर के प्रयासों से कुछ उत्साह भले ही उत्पन्न कर लिया जाय। नीतिमत्ता के पक्ष में वाणी और लेखनी से प्रचार-कृत्य पहले भी होता था और अब भी हो रहा है। परिणामों का पर्यवेक्षण करने से निराश ही होना पड़ता है। इतने भर से कोई बड़ा प्रयोजन पूरा हो सकने की आशा बेंधती नहीं है।

आस्थाओं में निकृष्टता का घुस पड़ना ही वर्तमान युग की समस्त विपन्नताओं का एक मात्र कारण है। उसके निवारण का उपाय आस्थाओं के स्तर को परिष्कत करने के अतिरिक्त अन्य कोई है नहीं। ब्रह्मविद्या का तत्वज्ञान, तपश्चर्या का आदर्शवादी कष्ट सहन, दोनों को मिला देने से वह आधार बनता है जो अन्तराल की गहराई तक प्रवेश कर सके। उस क्षेत्र में आवश्यक परिवर्तन-परिष्कार इसी माध्यम से सहज संभव हो सकता है। यों अपवाद तो ऐसे भी हैं कि बिना किसी अध्यात्म साधना के कितनों ने अपनी उच्चस्तरीय आस्थाएँ जगाई और परिपक्व बनायीं। सर्वसुलभ-सर्वजनीन उपाय एक ही है कि जनमानस में उच्चस्तरीय आस्थाओं की स्थापना का व्यापक अभियान चलाया जाय। उसका आधार-कार्यक्रम उत्कृष्टता के तत्वज्ञान और तप-साधना के समन्वय से बनाया जाये। प्रस्तुत गायत्री आन्दोलन को इसी दृष्टि से देखा जा सकता है, उसका प्रारूप इन दोनों तथ्यों का समुचित समन्वय करके बनाया गया है। अपेक्षा की जानी चाहिए कि यदि तथ्य को सही रूप से समझा और अपनाया गया तो इसके दूरगामी परिणाम होगे। मनुष्य में देवत्व का उदय और धरती पर स्वर्ग के अवतरण की साध सँजोये हुए प्रयासों की प्रगति और सफलता का आधार क्या हो सकता है? क्यों हो सकता है? इस तथ्य को यदि जनसाधारण द्वारा ठीक तरह समझा जा सके तो वह असमंजस दूर हो जायेगा जिसके कारण यह सन्देह उत्पन्न होता है। नवनिर्माण और गायत्री अभियान की परस्पर संगति बैठतीं भी है या नहीं?

सोचा जा सकता है कि गायत्री जप के पूजा कृत्य की बात तो पुरानी है। उसे भजन-पूजन करने वालों में से बहुत जानते-मानते भी है फिर नये अभियान के रूप में इतनी विशालकाय तैयारी नये सिरे से क्यों करनी पड़ रही है? यहाँ यह समझना होगा कि प्रचलित परम्परा में मात्र गायत्री मन्त्र के जप का प्रचलन दैव अनुग्रह प्राप्त करने की दृष्टि से करने भर की मान्यता है। सांसारिक मनोकामनाओं की पूर्ति संकटों की निवृत्ति, परलोक में स्वर्ग-मुक्ति के प्रति ऋद्धि-सिद्धियों की चमत्कारिकता जैसे छोटे-बड़े वैयक्तिक लाभ ही उससे सोचे जाते हैं। भजन-पूजन के क्रिया-कृत्य प्राय: इन्ही प्रयोजनों की पूर्ति के लिए किए जाते रहते हैं। सामान्य व्यक्ति इतना ही सोच सकता है और उसका 'प्रिय' इतनी छोटी परिधि तक ही केन्द्रित हो सकता है। इसलिए स्वार्थों की पूर्ति के लिए उतना आधार भी आकर्षक ही लगेगा। किन्तु स्मरण रखने योग्य यह भी है कि गायत्री महाशक्ति के विशाल कलेवर का यह एक बहुत छोटा अंश है उसकी समग्रता वैयक्तिक स्वार्थ पूर्ति की तुच्छ परिधि में समेटी नहीं जा सकती। युग-शक्ति के रूप में. गायत्री का परिचय जन-साधारण को कराना होगा और जो कुछ अविदित-अनभ्यस्त पड़ा है, उस अद्‌भुत को सर्वसाधारण की जानकारी में लाना होगा। यदि ऐसा सम्भव हो सके तो बुद्धिजीवियों से लेकर मूढ़मति लोगों तक को यह स्वीकार करने में यह कठिनाई न होगी कि नवयुग अवतरण की सामयिक आवस्थकता की पूर्ति में गायत्री का तत्वज्ञान और शक्तिसंधान किस प्रकार उपयोगी हो सकता है।

नवयुग के अवतरण की इस प्रभातवेला में क्रान्तिकारी परिवर्तन के सरंजाम खड़े करने के लिए जिस शक्ति की आवश्यकता है उसे गायत्री के तत्वदर्शन, विधि-विधान और प्रयोग-उपचार द्वारा पाया जा सकता है। यह तध्य जनमानस में पूरी तरह प्रतिष्ठापित कराया जाना चाहिए, स्थिति ऐसी उत्पन्न की जानी चाहिए कि केवल तथ्यों को स्वीकारा ही न जाये वरन् अपना सर्वोत्तम-सर्वतोमुखी हित साधन भी इस अवलम्बन को अपनाने में समझा जाय। इस स्थिति को उत्पन्न करना प्रस्तुत गायत्री अभियान का सामाजिक उद्‌देश्य है उसे अपनाने से संकट टल सकेगा और उज्ज्वल भविष्य का आधार खड़ा हो सकेगा।

युग परिवर्तन में चरित्र निष्ठा और समाज निष्ठा को उत्कृष्ट आदर्शवादिता की लोक-परम्परा, जन-मान्यता और सर्वजनीन रुचि-आकांक्षा का रूप देना होगा। इसके लिए एक सर्वतोमुखी संविधान की, आचार-शास्त्र की आवश्यकता पड़ेगी। यह ऐसा होना चाहिए कि तर्क और तथ्यों को हर कसौटी पर कसने से सही सिद्ध हो सके। यह ऐसा होना चाहिए जिस पर आप्त पुरुषों के शास्त्रकारों के अनुभव, अभ्यास, प्रतिपादन की छाप हो, जिसे भूतकाल में प्रयोग-परायणों के द्वारा सही पाया गया हो-ऐसा बीजमंत्र गायत्री के रूप में अनादिकाल से उपलब्ध है। उसे संसार का सबसे सारगर्भित धर्मशास्त्र कह सकते हैं इसमें वैयक्तिक महानता और सामाजिक सद्‌भावना के सारे सूत्र-संकेतों का समावेश है। नये युग की वैयक्तिक और सामाजिक मर्यादाओं का निर्माण-निर्धारण करने की जब आवध्यकता पड़ेगी तब चिर प्राचीन और चिरनवीन का समन्वय तलाश किया जायेगा। अतीत की श्रद्धा और भविष्य की आशा का एकीकरण करते समय प्रखर वर्तमान की संरचना करनी होगी। यह कार्य गायत्री मंत्र के अक्षरों में सन्निहित सूत्र-संकेतों के सहारे जितनी अच्छी तरह सम्पन्न हो सकता है उतना और किसी प्रकार नहीं।

मध्यकालीन अन्धेरगर्दी ने अराजकता उत्पन्न की और सनातन आचार संहिता को अस्त-व्यस्त करके रख दिया। व्यक्ति के चिंतन और चरित्र को सुसंस्कृत बनाये रखने के लिए ब्रह्मविद्या और धर्मशास्त्र की सुनियोजित परम्परा मानी उत्कर्ष के आदिकाल में ही बनी थी और, उसका प्रचलन स्वर्णिम अतीत का आधार बनाये रहा। इसी प्रकार समाज व्यवस्था के लिए नीतिशास्त्र और न्याय-अनुशासन का संविधान विद्यमान था। धर्मतंत्र व्यक्तित्वों को देवोपम बनाये रखने के लिए और राजतंत्र समाज व्यवस्था का सुनियोजन किए रहने के लिए अपनी-अपनी भूमिका निभाते थे और इसी संसार? में सुख-शान्ति की स्वर्गीय परिस्थितियाँ दसों दिशाओं में बिखरी फिरती थीं। मध्यकाल का स्वेच्छाचार ही देव-दानव की तरह अतीत की गौरव-गरिमा को उदरस्थ कर गया है। उलटे को उलटने से ही सीधी स्थिति प्राप्त होती है। अनाचार को सदाचार में परिणत करने का महाप्रयास ही युग परिवर्तन है। इसके लिए उन प्राचीन आधारों को ढूँढ़ना होगा जो नवीन परिस्थितियों में भी सही और सार्थक सिद्ध हो सके। पतन के प्रवाह को उत्थान की दिशा में मोड़-मरोड़कर रख सके।

आज साधनों की उतनी आवश्यकता नहीं है जितनी भावनाओं की। समय की आवश्यकता पूरी कर सकने वाली भावनात्मक सम्पदा का विपुल भण्डार गायत्री मंत्र के छोटे से कलेवर में विद्यमान देखा जा सकता है। उसमें वैयक्तिक गरिमा को बनाये रहने वाला भावनात्मक आधार मौजूद है। इस आधार को प्राचीनकाल से वेद कहा जाता है। वेद की पुस्तकों में व्यक्तित्व में देवत्व भर देने वाला तत्वदर्शन है। वेद का मूल गायत्री है इसलिए उसे वेदमाता-देवमाता कहा जाता है। इसे धर्म पक्ष की परिधि कह सकते हैं। दूसरा पक्ष है-समाज व्यवस्था, परम्परा एवं जन अनुशासन। इसकी पृष्ठभूमि भी गायत्री मन्त्र में उसकी व्याख्या परिभाषाओं में मौजूद है, इसी आधार पर उसे विश्वमाता कहा जाता है। विश्व की सुख-शान्ति और प्रगति-समृद्धि किस प्रकार असुण्ण रह सकती है आगे बढ़ सकती है इसका आलोकदर्शन गायत्री मन्त्र में जितनी अच्छी तरह मौजूद है उतना अन्य किसी आधार पर अन्यत्र कहीं पाया जा सकना सम्भव नहीं है।

भूतकाल में महामनीषियों द्वारा किए गये प्रथनों, प्रतिपादनों और अनुभवों का सूत्र-'संकेत गायत्री बीज-मन्त्र के अति संक्षिप्त कल्वर में स्तर रूप से विद्यमान है। उसी पुरातन का नवीन उपयोग इन दिनों विश्व के नवनिर्माण का महान् प्रयोजन पूरा करने के लिए करना होगा। गायत्री महाशक्ति के अवलम्बन से ही इतना बड़ा महान प्रयोजन पूरा हो सकता है। भारतीय संस्कृति की महानता का इतिहास उसकी साक्षी देता और पुष्टि करता है। भारतीय तत्वज्ञान के आधार वेद हैं और वेदों का बीज तत्व गायत्री मन्त्र है। इसी महामंत्र के चार चरणों से चार बेद बने हैं। उनकी व्याख्या में धर्म और अध्यात्म का विशालकाय कलेवर खड़ा किया गया।

नबयुग के अवतरण की पुण्यवेला में गायत्री की ज्ञानगंगा को फिर से प्रवाहमान बनाने के लिए इन दिनों भागीरथ प्रयास चल रहे हैं। इन्हें अधिक मर्मज्ञ, व्यापक और सफल बनाने के लिए जागृत आत्माओं के पुरुषार्थ में अधिक प्रखरता उत्पन्न होनी चाहिए। युग परिवर्तन के महान कार्य में जिस आध्यत्मिक ऊर्जा का उत्पादन करना पड़ेगा, उसके लिए गायत्री में सन्निहित तत्वज्ञान और साधना-विज्ञान को अधिकाधिक जनमानस की गहराई तक पहुँचाने के लिए इन दिनों तत्परतापूर्वक प्रबल प्रयत्न किये जाने चाहिए, यही युग धर्म है। युग साधना के रूप में गायत्री ही अपने समय की आवश्यकता पूरी करेगी। युगशक्ति के रूप में उसका उदय प्रभातकालीन अरुणोदय के रूप में प्रत्यक्ष देखा जा सकता है।

धरती पर युगान्तरीय चेतना के रूप में गायत्री महाशक्ति का अभिनव अवतरण होते हुए देखा तो चिरकाल से जा रहा है। जन मानस में परोक्ष प्रेरणा से उसके प्रति सहज आकर्षण बढ़ा है। गायत्री परिवार के प्रयत्नों को भी उसके लिए यत्किंचित श्रेय मिल सकता है किन्तु तथ्य यह है कि ज्ञानगंगा का अवतरण दैवी प्रेरणा से ही हो रहा है।

 

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