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आचार्य श्रीराम शर्मा >> गायत्री का ब्रह्मवर्चस

गायत्री का ब्रह्मवर्चस

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :60
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15481
आईएसबीएन :00000

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गायत्री और सावित्री उपासना

 

गायत्री और सावित्री को समन्वित साधना - ब्रह्मवर्चस्

इस विराट विश्व का जो भी स्वरूप परिलक्षित होता है उसमें मूलत: दो तत्वों का अनिवार्य संयोग है। एक है चेतना, और दूसरा है पदार्थ। इसी सत्य को शास्त्रकारों ने ब्रह्म और प्रकृति के रूप में समझाने का प्रयास किया है। शिव और शक्ति, ईश्वर और माया आदि के नामों से भी इसी तथ्य की व्याख्या की गई। राम-सीता, कृष्ण-राधिका के विग्रह के तात्विक विवेचना में भी इसी सिद्धान्त की झलक पाई जाती है।

यह दोनों तत्व अपने-अपने क्रम से क्रियाशील रहते हैं। दोनों के अपने-अपने नियम हैं, सिद्धान्त हैं। चेतना से सम्बन्धित बोध जिससे होता है उसे ज्ञान तथा पदार्थ का बोध जिससे होता है उसे विज्ञान कहते हैं।

जड़ चेतन का ज्ञान विज्ञान का विस्तार गायत्री मन्त्र के आलोक में भली प्रकार देखा समझा जा सकता है। ज्ञान और विज्ञान की उभय पक्षीय दिव्य धाराएँ गायत्री और सावित्री के रूप में लोक व्यवहार में आती हैं। इनका अबलम्बन यदि ठीक तरह किया जा सके तो मनुष्य देवत्व के उच्च शिखर पर पहुँच सकता है। आत्म कल्याण और लोक कल्याण के दोनों। पक्ष स्वार्थ-परमार्थ इससे ठीक तरह सध सकते हैं।

गायत्री को ही ब्रह्मविद्या कहा गया है। ऋतम्भरा प्रज्ञा उसी का नाम है। जीवन, मुक्ति, भाव, समाधि का आनन्द उसी से मिलता है। योग और तप द्वारा उसी राजहंस, परमहंस जैसी मनोभूमि को प्राप्त किया जाता है। यही जीवन का परम लक्ष्य है। इसी की पूर्णता को मुक्ति कहते हैं। आत्मा और परमात्मा का मध्यवर्ती मिलन संयोग इसी महान उपलब्धि का नाम है। इसी को चरमोत्कर्ष कहते हैं। परमानन्द की प्राप्ति इसी सोपान तक पहुँचाने वालों की उपलब्ध होती है।

भौतिक प्रयोजनों के लिए की गई साधना की सावित्री उपासना कहा जाता है। उसका प्रयोगात्मक रूप कुण्डलिनी है। इसके साधना विधानों को तन्त्र विज्ञान के अन्तर्गत लिया जाता है। योग विज्ञान विशुद्ध रूप से भाव विज्ञान है। उसके समस्त क्रिया-कलाप आत्म शोधन से संचालित हैं। भाव पक्ष ही उसमें प्रधान है। यम नियम के द्वारा चरित्र चिन्तन का और आसन प्राणायाम द्वारा स्वास्थ्य संरक्षण का उपक्रम किया जाता है। इसके बाद उच्चस्तरीय उत्तरार्ध प्रत्याहार धारणा ध्यान और समाधि का आता है। यह चारों ही विधान विशेष रूप से चिन्तन परक ध्यान परक हैं। इस संदर्भ की समस्त क्रियाएँ मानसिक होती हैं। धारणा ही उसमें प्रधान है। धियः तत्व का इस उपक्रम से क्रमिक अभिवर्धन होता है। गायत्री उपासना की परिधि यही है। सावित्री उपासना से प्राण ऊर्जा को उभारा जाता है और उसे परिपुष्ट बनाकर इस योग्य बनाया जाता है कि भौतिक प्रयोजनों की पूर्ति में उसका समुचित लाभ लिया जा सके।

सावित्री की कुण्डलिनी साधना का केन्द्र विन्दु यही प्राण तत्व है। यह चेतना के साथ जुड़ा होने और प्रकृतित: ऊर्जा वर्ग का होने से आधा जड़, और आधा चेतन है। यों प्राण का प्रभाव एवं सम्बन्ध चेतना के साथ भी है। किन्तु वह मूलतः शरीर के अंग प्रत्यंगों में सन्निहित है। कोशिकाओं के मध्यवर्ती नाभिक से लेकर हृदय और मस्तिष्क में मुखर रहने वाले जीवन। तत्व में उसी का दर्शन, अनुभव एवं मूल्यांकन किया जाता है। यह प्राण ऊर्जा मानवी काया में प्रचर परिमाण में भरी पड़ी है। स्वभावत: वह प्रसुप्त स्थिति में पड़ी रहती है। आवश्यकता अनुभव करने वाले पुरुषार्थ पूर्वक उसे जगाते, उठाते हैं और उपयोग उपचार के द्वारा उच्चस्तरीय लाभ उठाते हैं। यह सारा प्रयोग उपचार कुण्डलिनी साधना के अन्तर्गत आता है। सावित्री साधना यही है। तन्त्र विज्ञान इसी की विवेचना एवं प्रयोग प्रक्रिया का समग्र शास्त्र है।

सावित्री साधना के लिए किये गये उपचार अभ्यासों में प्रधानता उनकी ही है जो प्राण शक्ति के जागरण, सम्बर्धन में योग दान देते हैं। प्राप्त ऊर्जा का उत्थान, उत्कर्ष एवं उन्नयन ही प्रकारान्तर से कुण्डलिनी जागरण है। प्राण शक्ति को पाँच भागों में विभक्त किया गया है। उसे प्राण, अपान, व्यान, उदान, समान नामों से जाना जाता है। उन्हीं की प्रेरणा से पाँच ज्ञानेन्ट्रियाँ पाँच कमेन्द्रियाँ काम करती हैं। शब्द, रूप, रस, गंध, स्पर्श की पाँच तन्मात्रायें इन्ही पाँच प्राणों की इन्द्रियजन्य अनुभूतियाँ हैं। पाँच तत्वों को जड़ माना जाता है किन्तु उस जड़ता में भी अग्नि, जल, पृथ्वी, पवन एवं आकाश में जो गतिशीलता देखी जाती है, उसे प्राण प्रवाह की प्रेरणा ही कहना चाहिए। निरूपण कर्ताओं ने पाँच तत्वों को पाँच प्राणों का नी प्रत्यक्ष प्रतीक माना है। जड़ जगत पाँच तत्वों से और चेतन जगत पाँच प्राणों से बना माना जाता है। इस जगती के अधिष्ठाता पाँच देवता माने गये हैं। प्रकारान्तर से यह समस्त विवेचन पंचाधि प्राण शक्ति का ही है। सावित्री के पाँच मुख माने गये हैं। यह अलंकारिक स्थापना है। प्राणी जगत में किसी भी जीवधारी के अनेक मुख नहीं होते। हाथ पैर ही अनेक हो सकते हैं। मुख अनेक होने पर तो किसी जीव धारी की विचित्र स्थिति हो सकती है, उसका निर्वाह क्रम ही अटपटा सकता है। देवताओं के अनेक मुखों का होना कोई यथार्थता नहीं, उनके साथ जुड़े हुए रहस्यों का इस अंग विविधता, वाहन, शस्त्र, उपकरण आदि के माध्यम से प्रतिपादन भर किया गया है। पहेली बुझौबल की शैली से जानने-जनाने का प्रयत्न किया गया है कि इन पाँच प्रतीकों के पीछे सूक्षम रहस्यों की अवधारणा क्या है? सावित्री और कुण्डलिनी शक्ति एक है। गायत्री और वेदमाता एक। गायत्री ज्ञान पक्ष है। सावित्री विज्ञान पक्ष। गायत्री साधना में धियः और धीमहि प्रधान हैं। उसमें विचारणा और भावना की प्रज्ञा और श्रद्धा को उभारा जाता है। इसलिए यह समस्त चिन्तन ब्रह्मविद्या के अन्तर्गत आता है। गायत्री ही ब्रह्मविद्या है। सावित्री इसी महा विज्ञान का कर्म पक्ष है। उसे व्यवहार साधना भी कह सकते हैं। यह तप प्रधान है। सविता का भर्ग इसका उत्पादन केन्द्र है। इसकी उपासना से प्राण ऊर्जा को प्रचण्ड बनाया जाता है। प्रसुप्ति को हटाकर जागृति में परिणत किया जाता है। इसी प्रयास को कुण्डलिनी जागरण कहते हैं। कुण्डलिनी जागरण और सावित्री साधना एक ही बात है।

सावित्री से शक्ति प्राप्त होती है गायत्री से प्रज्ञा। दोनों के सम्मिश्रण से ही पूर्ण आत्मबल ब्रेनता है। एकांगी साधना अधूरी रहती है। बिजली के दोनों तार मिलने पर विद्युत प्रवाह गतिशील होता है। दो गैसें मिलने से पानी बनता है। नर और नारी का मिलन सन्तानोत्पादन के लिए आवश्यक है। गायत्री और सावित्री के संयुक्त समन्वय की आवश्यकता सदा से समझी जाती रही है। एकांगी बने रहने से अपूर्णता बनी रहती है। ज्ञान और कर्म का सम्मिश्रण ही उपलब्धियों का सृजन करता है। इनमें से कोई अकेला रहने पर अपूरा एवं अशक्त ही रहेगा। गायत्री ज्ञान है और सावित्री कर्म। गायत्री योग है और सावित्री तप। दोनों के मिलजाने से ज्ञान रूपी कृष्ण और कर्म रूपी अर्जुन का समन्वय होता है और महाभारत विजय का आधार बनता है।

गायत्री को ब्रह्म कहा गया है और सावित्री को वर्चस्। दोनों का समन्वय ही ब्रह्मवर्चस है। उस समग्र क्षमता को प्राप्त करने के लिए साधना क्षेत्र में तत्चदर्शों प्रबल प्रयत्न करते रहते हैं। अतिवादी एकांगी होते हैं। वे समन्वय की आवश्यकता नहीं समझते और एक पक्षीय हठवाद पर अड़े रहते हैं। फलतः उनकी सफलता भी अधूरी और एक पक्षीय बनी रहती है।

ब्रह्मविद्या और ब्रह्मतेज का समन्वय ही ब्रह्मवर्चस् है। दूरदर्शी साधकों का यही इष्ट होता है। वे ज्ञान और कर्म का सम्मिश्रण आवश्यक समझते हैं। अतएव अपने प्रयासों में भी योग और तप का समान समावेश करते हैं। इसी को इन शब्दों मे भी कहा जा सकता है कि गायत्री और सावित्री की उपासना का समन्वय करके चला जाता है। इसी मार्ग पर चलते हुए आत्म कल्याण की विभूतियाँ और लोक कल्याण की समृद्धियाँ उपलब्ध होती हैं। इन्हीं दोनों का नाम ऋद्धि-सिद्धि है। प्रज्ञा और पराक्रम का धियः और कार्य की संयुक्त साधना ही उस स्थिति को उत्पन्न करती है जिससे आत्म कल्याण, लोक कल्याण, के दोनों साधन सधते हैं। शक्ति और शिव का, काली और महाकाली का युग्म यही है। उनका समन्वय यही है।

विश्वामित्र ने भगवान राम को यज्ञ रक्षा के बहाने बुलाकर बला और अतिबला नामक दो विद्यायें सिखाई थीं। इन्हें गायत्री और सावित्री की समवेत साधना कह सकते हैं। एक से वरदान देने की क्षमता उपलब्ध होती है दूसरी से शाप देने की। एक से आनन्द प्राप्त होता है दूसरी से वैभव। एक का फल मुक्ति है दूसरी का शक्ति। एक को ऋद्धि कहते हैं दूसरी को सिद्धि। इन दोनों का समन्वय उतना ही आवश्यक है जितना प्राण और शरीर का संयोग। जब तक दोनों सम्मिलित हैं तब तक जीवन का चमत्कारी स्वरूप बना रहेगा। इसके अलग होने पर दोंनो की स्थिति दयनीय हो जाती है। समर्थ ऋषि योगाभ्यास भी करते थे और तप साधना भी यह सर्व विदित है। इसी को ब्रह्मवर्चस कहते हैं। परशुराम, द्रोणाचार्य, गुरुगोविन्दसिंह इसी परम्परा के थे। कृष्ण का गीता ज्ञान और चक्र सुदर्शन इसी समन्वय का बोध कराते हैं। भगवान के सभी अवतारों ने धर्म संस्थान और अधर्म निराकरण का उभयपक्षीय प्रयोजन पूरा किया है। धर्म स्थापना के लिए सदभावनायें और अधर्म निराकरण के लिए प्रचण्ड समर्थता की आवश्यकता होती है।

प्राय: सभी अवतार इन दोनों ही शिष्टताओं से संयुक्त रहे हैं। इन दोनों का ही समग्र प्रयोग करके वे देवताओं को सहकार और असुरों को दण्ड देकर संतुलन बनाने का आत्म उद्देश्य पूरा कर सके हैं।

प्राचीन अध्यात्म में उपरोक्त दोनों ही तत्वों का समुचित समावेश है। उसके द्वारा प्राप्त होने वाली उपलब्धियाँ ब्रह्मवर्चस के नाम से जानी जाती थीं। तपस्वी को ओजस्वी, तेजस्वी और मनस्वी भी होना चाहिए। एकाकी अतिवादी से लाभ कम और हानि अधिक है। आगम और निगम, योग और तप मिलकर चलें तभी कल्याण है। असुरों ने भौतिक पक्ष तन्त्र अपनाया और आत्मपक्ष से मुँह मोड़ लिया फलतः वे समर्थ तो बने पर अपने और दूसरों के लिए अभिशाप ही सिद्ध हुए। देवता जब एकाकी सात्विकता तक सीमित हो गये तो उन्हें अपना वर्चस्व गँवाना पड़ा और असुर उन पर हावी हो गये। परित्राण का मार्ग उन्हें तभी मिला जब शक्ति की उपेक्षा छोड़कर उसकी आराधना में निरत हुए। भगवती के अवतरण की कथा, गाथा का जिन्हें परिचय है वे जानते हैं कि महिषासुर, मधुकैटभ, शुभ, निशंभ, रक्तबीज जैसे संकटों से पार होना तेजस्विता की प्रतीक सशक्तता का अवलम्बन मिलने पर ही सम्भव हो पाया था।

पौराणिक गाथा के अनुसार ब्रह्माजी की दो पत्नियाँ हैं। एक गायत्री और दूसरी सावित्री। दोनों प्रगाढ़ स्नेह सहयोग के साथ अपने अधिष्ठाता की सेवा साधना करती हैं। इन तीनों का समन्वय त्रिवेणी जैसा कल्याण कारक होता है। सत् चित आनन्द के सत्यं शिवं सुन्दरं की अनुभूति इसी संयोग के माध्यम से उपलब्ध होती है। समर्थता, सजगता, सरसता का संचार उन्हीं के माध्यम से होता है। स्थूल सूक्ष्म और कारण शरीरों की अपनी आवश्यकता है, इन्ही तीनों की सहायता से पूरी हो सकती है।

ब्रह्मवर्चस् साधना में चिर पुरातन तत्व ज्ञान एवं अध्यात्म विज्ञान को चिर नवीन के अनुरूप बताया गया है। उसमें गायत्री और सावित्री दोनों का समन्वय है। एक मुखी ब्रह्म गायत्री के अन्तर्गत, ब्रह्मी, वैष्णवी, शांभवी, वेदमाता, देवमाता, ब्रह्मविद्या, ऋतुम्भरा आदि की दक्षिणी मार्गी योगपरक साधना की जाती है। पंचमुखी में उसे वाममार्गी तन्त्र पक्ष के निमित्त प्रयुत किया जाता है। शक्ति साधना और कुण्डलिनी जागरण की साधना उसी वर्ग में आती है। दुर्गा, काली, मातंगी, त्रिपुरा, शाकभरी, भैरवी, कालाग्नि आदि का विधि विधान प्रकारान्तर से सावित्री साधना का ही बिस्तार है। ब्रह्मवर्चस कके गायत्री शक्ति पीठ में दोनों का ही समन्वय किया गया है ताकि साधक को समग्र आत्मबल सम्पादित करने और आत्मिक तथा भौतिक प्रगति का समन्वित मार्ग उपलब्ध हो सके।

यह साधनाएँ समय साध्य होंगी, जो लोग अधिक समय तक रह सकेंगे वह इनका अधिक लाभ प्राप्त करेंगे, मध्यवर्ती एक माह की साधना का उद्देश्य साधना के वह विधि विधान न केवल समझा देना अपितु उनके अभ्यास की जानकारी भी दे देना है ताकि वे अपने घरों पर रहकर भी वह अभ्यास कर सकें। इतनी अवधि में हर व्यक्ति की शारीरिक, मानसिक स्थिति को परखना भी संभव हो जायगा, सो उसी के अनुरूप उन्हें उच्चस्तरीय साधनाओं की जानकारी भी दे दी जायेगी, जो साधनाऐं उनके लिए उपयुक्त न बैठती हों उनके अभ्यास रोक देने और शेष में समुचित सावधानियाँ बरतने को बता दिया जायगा।

इतने पर भी ब्रह्मवर्चस शोध साधनाओं का लाभ अत्यल्प व्यक्ति ही प्राप्त कर सकेंगे। इस कठिनाई को दूर करने के लिए १०-१० दिन के लघु संस्करण साधना सत्र चलते रहेंगे। उन शिवरों का स्वरूप एक माह के शिवरों जैसा ही होगा किन्तु उसमें कम समय में थोड़ी ही अभ्यास कराया जाना सम्भव होगा। किन्तु यहाँ के वातावरण समर्थ सानिध्य का इतना सशक्त बीजारोपण उन अन्त:करणों में कर दिया जायेगा जो घरों में जाकर सामान्य साधना क्रम से भी पुष्पित पल्लवित होता रहेगा।

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