आचार्य श्रीराम शर्मा >> गायत्री का ब्रह्मवर्चस गायत्री का ब्रह्मवर्चसश्रीराम शर्मा आचार्य
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गायत्री और सावित्री उपासना
तीर्थ परम्परा का पुनर्जीवन शक्तिपीठ के रूप में
भारत में इन दिनों तीर्थों का स्वरूप प्रायः पर्यटन केन्द्रों जैसा बन गया है। उनका स्थान चयन ऐसा हुआ है जहाँ प्राकृतिक सौन्दर्य का आनन्द मिल सके। नदी, सरोवर, पर्वत, पुरातत्व सन्दर्भ, ऐतिहासिक घटना-क्रम आदि के जुड़े रहने से वे स्थान सहज आकर्षण के केन्द्र हैं। चिरकाल से यात्रियों का आना-जाना उधर बना रहता है। इसलिए ठहराने, घूमने, देखने आदि की वे सुविधाएँ भी विकसित होती चली आई हैं। उन्हें देखने से पर्यटक की प्रसन्नता होती है। सम्पन्न लोगों ने धर्म श्रद्धा अथवा यश कामना से प्रेरित होकर इन स्थानों में भव्य मन्दिर भी बना दिये हैं। धर्माध्यक्ष भी श्रद्धालु जन मानस से अधिक सम्पर्क बनाने और अधिक लाभ उठाने की दृष्टि से अपने डेरे इन्हीं स्थानों में डाले रहते हैं, इन्हीं सवके समन्वय से वह स्थिति बनी है जो आज के तीर्थस्थानों में देखी जाती है।
तीर्थयात्रियों की संख्या हर साल बढ़ती जाती है। इसका कारण लोगों की श्रद्धा अथवा तीर्थों की उपयोगिता का बढ़ना नहीं, वरन् यह है कि पर्यटन के लिए इन्हीं परम्परागत स्थानों के अतिरिक्त और कोई अधिक उपयुक्त दीख नहीं पड़ते। फिर पर्यटक को यह कहने समझाने का भी अवकाश तो मिल जाता है कि उन्होंने धर्म प्रयोजन के लिए समय और पैसा खर्च किया है। सरकार इस सन्दर्भ में आर्थिक दृष्टि से सोचती है। अधिक टैक्स मिलने एवं अधिक लोगों को अधिक काम मिलने, अधिक बिक्री होने से समृद्धि बढ़ने जैसे लाभों को देखते हुए सरकारी तन्त्र पर्यटन को प्रोत्साहन देते हैं और पर्यटकों के लिए कई तरह की सुविधा उत्पन करते हैं। व्यवसायी क्षेत्रों के प्रोत्साहन से ऐसे मेले-ठेले इन तीर्थों में जुड़ते रहते हैं, जिनमें अधिक भीड़ पहुँचने से अधिक बिक्री होने और अधिक लाभ उठाने का अवसर मिले। तीर्थयात्री उनकी व्यवस्था से लाभ उठाते और सुविधा अनुभव करते हैं।
ऊपर की पंक्तियों में उन प्रयोजनों की चर्चा की गई है, जिनके आधार पर आज की तीर्थ यात्रा एवं तीर्थ स्थानों की महिमा का ढाँचा खड़ा है।
चलते हुए पर्यटन प्रवाह को ही तीर्थ श्रद्धा कहा जा सकता है। इसमें जन साधारण की मनोवैज्ञानिक आवश्यकता पूरी होती है। इस उत्साह से लाभ उठाने वाले अन्यान्य वर्ग उसे किसी न किसी रूप में प्रोत्साहित करते रहते हैं। फलत: तीर्थों का विस्तार और आकर्षण बढ़ता जाता है। भोड़ें भी अपेक्षाकृत अधिक होने लगी हैं।
इस स्थिति को धर्म और अध्यात्म के उन सिद्धान्तों के साथ संगति बिठाने पर निराशा ही हाथ लगती है। पर्यटन उपक्रम तो संसार के अन्य देशों में भी चलता है, उसे तो विनोद प्रेमी अन्यत्र भी पूरे उत्साह के साथ अपनाये हुए हैं, फिर भारत में ही उसे पुण्य परमार्थ का प्रतीक क्यों माना जाय? धर्म श्रद्धा के आधार पर उत्पन्न हुई उमंगों का जब अन्य प्रकार से श्रेयस्कर उपयोग हो सकता है, तो क्यों उसे ऐसे ही खोटे मनोरंजन के लिए अस्त-व्यस्त होने दिया जाय। पर्यटन अपनी जगह पर एक उपयोगी कृत्य है। वह अपने स्थान पर यथावत् बना रहे और अपने ढरें पर चलता रहे, उसमें किसी को कोई आपत्ति नहीं हो सकती। असमंजस इस बात का है कि धर्म श्रद्धा के पुण्य परमार्थ के जिस मूलभूत उद्देश्य को लेकर तत्वदर्शों ऋषियों ने इन पुनीत धर्म केन्द्रों की स्थापना की थी और उनके आकाश-पाताल जैसे महात्म्य बताकर जनमानस को उनके साथ सम्बद्ध होने के लिए आकर्षित किया था, उस महान लक्ष्य की पूर्ति का क्या हुआ, उन उद्देश्यों की पूर्ति कहाँ हुई? देवताओं के दर्शन एवं जलाशयों के स्नान से तो आत्म लाभ नहीं मिल सकता। उन्हें प्राप्त करने के लिए तो ऐसी प्रेरणायें चाहिए जो अन्तरात्मा में उच्चस्तरीय आदर्शों के लिए गहन श्रद्धा उत्पन कर सकें। अस्त-व्यस्त और विक्षुब्ध मनः स्थिति को सान्त्वना और दिशा देने के उद्देश्य। से तीर्थ बने थे। इस प्रयोजन की पूर्ति के लिए किस तीर्थ में कितनी व्यवस्था है? यह खोजने पर निराशा ही हाथ लगती है :
ऋषियों ने तीर्थों को प्राकृतिक सौन्दर्य तथा ऐतिहासिक स्थलों पर स्थापित इसलिए किया था कि आगन्तुकों को प्रकृति के सानिध्य के अतिरिक्त। ऐतिहासिक प्रेरणाओं का लाभ भी मिलता रहे। यह बाह्य प्रयोजन हुआ, मूल उद्देश्य यह था कि उपयोगी वातावरण में कुछ समय ठहर कर अपनी अस्त-व्यस्त मनः स्थिति को संतुलित करलें तकि भविष्य के लिए अधिक महत्वपूर्ण प्रेरणाएँ प्राप्त कर सकने का बहुमूल्य लाभ मिले। इसके लिए परामर्श प्रवचन का व्यवस्थित क्रम तो चलना ही था, उससे भी बड़ी बात उस वातावरण की थी जिसमें कुछ दिन ठहर जाने पर ही मनुष्य नवजीवन के लिए उपयुक्त प्रेरणाएँ ग्रहण करता था। लोग तीर्थस्थानों में व्रत, अनुष्ठान करने जाते थे। वहाँ रहकर प्रायश्चित करते और आत्म चिन्तन के आधार पर भावी जीवन क्रम का नव निर्माण करते थे। तीर्थ पुरोहित इस सन्दर्भ में उन्हें पूरा-पूरा सहयोग करते थे। इन स्थानों में ऋषिकल्प मनीषियों के द्वारा संचालित आरण्यकों की विशेष व्यवस्था थी जिनमें ठहर कर तीर्थ यात्री अपना आन्तरिक कायाकल्प करने में, व्यक्तित्व को परिष्कृत परिमार्जित करने में उत्साहवर्धक सफलता प्राप्त कर सकें। इन्हीं उपलब्धियों में तीर्थ सेवन का महात्म्य और पुण्य फल केन्द्री भूत रहता था। इस उद्दश्य में जो जितना सफल होता था, वह उतने ही बड़े पुण्य फल से प्रत्यक्ष लाभान्वित होता था। आत्म साधना करने और उच्चस्तरीय प्रेरणा ग्रहण करने की उपलब्धि की तीर्थ यात्रा की आत्मा समझा जा सकता है। जलाशयों का मीत, देवालयों का दर्शन तो उस पुण्य प्रयोजन का ब्राह्म कलेवर एवं शोभा श्रृंगार जैसा है।
जन कल्याण के जिस उद्देश्य से तीर्थों की स्थापना की गई और उसकी सफलता के लिए उत्साहित होकर अधिक लोगों को वहाँ पहुँचने की प्रेरणा दी गई, यह बात सामान्य नहीं असामान्य थी। यदि पर्यटन जैसा छोटा लाभ ही प्रतीत होता हो तो दूरदर्शों ऋषि इस झंझट में स्वयं न पड़ते अपनी सारी प्रतिभा की दवि पर लगाकर तीर्थों का वह भावनास्तर और दर्शनीय ढाँचा खड़ा न करते, जिसमें उनका अजम पुरुषार्थ और सघन मनोबल लगा हुआ है। आद्य शंकराचार्य ने देश के चारों कोनों पर चार 'धाम' स्थापित किये। वे प्रकारान्तर से सत्रीय विश्व विद्यालय थे। बौद्ध काल में नालन्दा, तक्षशिला जैसे विश्वविद्यालय बने थे और उनमें प्रशिक्षण प्राप्त करके संसार भर में परिव्राजकों के जत्थे धर्म चक्र प्रवर्तन के लिए पहुँचते थे। जन साधारण को भी अनेकानेक बौद्ध बिहारों में रहकर उच्चस्तरीय जीवन यापन की शिक्षा मिलती थी। तीर्थों का असली स्वरूप भी यही था। भगवानु बुद्ध ने प्राचीन तीर्थों का जिस उपयोगी ढंग से पुनर्निर्माण किया उसी का अनुकरण हिन्दू धर्मानुयायियों ने भी अपने-अपने ढंग से किया और तीर्थों की उपयोगिता आवश्यकता को समझते-समझाते हुए उनकी स्थापना का उत्साह उत्पन्न किया। धनिकों के सहयोग से एक के बाद एक तीर्थ बनते चले गये। शक्तिपीठ, ज्योतिलिंगधाम इसी स्तर के धर्म संस्थान थे। आद्य शंकराचार्य द्वारा विनिर्मित चारों धामों को इस सन्दर्भ में विशिष्ट गणना की जाती है। देश के प्रायः सभी धर्म सम्प्रदायों ने अपने-अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए सामथ्यानुसार छोटे-बड़े तीर्थों की स्थापनाएँ की हैं।
तीर्थों के निमित्त भारत की अपार जनशक्ति और धनशक्ति नियोजित है। देखना यह है कि इतनी सुविस्तृत शक्ति का जिस उद्देश्य के लिए उपयोग हुआ है वह पूरा हुआ या नहीं?
धर्म तन्त्र के विशाल कलेवर में तीर्थ प्रक्रिया का अति महत्वपूर्ण स्थान है। उसमें प्रतिगामिता का घुस पड़ना समाज में अवांछनीयता के अभिवर्धन का द्वार खोलता है। मात्र पर्यटक केन्द्रों के रूप में उनका ढोंग ढकोसला, खड़ा रहना एक प्रकार से धर्मत्व का उपहास है। समय की माँग है कि यथा स्थिति वही ही रहनी चाहिए। अवांछनीयता और अनुपयोगिता देर तक जीवित नहीं रह सकती। विवेकशील जागरूकता-जब भी अँगड़ाई लेगी उन्हें उलट कर रख देगी।
समय रहते विकृतियों का सुधार कर लेने में ही बुद्धिमानी है। धर्मतन्त्र में यदि प्रतिगामिता घुसी रही उसने व्यक्ति और समाज की सुख शान्ति में कोई योगदान न दिया तो यह भी निश्चित है कि श्रम और धन का अपव्यय जन विवेक को सहन न हो सकेगा और अनौचित्य के प्रति उभरने वाला आक्रोश उसे उलट कर रख देगा, तब तीर्थ स्थानों की गरिमा भी जीवित न रह सकेगी, लोग देव मन्दिरों की प्रतिमाएँ अजायबघर में रख देंगे, उनकी इमारत तथा सम्पत्ति का लोकपयोगी कार्यों में उपयोग करने लगेंगे। यह कार्य आक्रोश पूर्वक होगा तो धर्म तन्त्र की तीर्थ परम्परा के विरुद्ध ऐसे आरोप लगेंगे कि आन्त जनमानस में घुसी हुई घृणा, धर्म तन्त्र को चिरकाल के लिए अश्रद्धा के गर्त में धकेल देगी। ऐसी स्थिति का उत्पन्न होना असंभव नहीं है। आज के बुद्धिवादी युग में धर्मतन्त्र की तीर्थ प्रक्रिया की अवांछनीयता देर तक जन आक्रोश से बची नहीं रह सकती। आक्रामक परिवर्तन से हटाया गया धर्मानुशासन मनुष्य समाज की इतनी बड़ी क्षति करेगा जिसकी कल्पना मात्र से आखों के आगे अँधरा छा जाता है।
चेतने का ठीक समय यही है। विलम्ब एक क्षण का भी भारी पड़ेगा। उचित यही है कि धर्म तन्त्र की उसके वास्तविक स्वरूप में रखा जाय और प्राचीन काल की तरह समग्र मानवी प्रगति के लिए उच्चस्तरीय अनुदान दे सकने की स्थिति में उसे फिर से प्रतिष्ठित किया जाय। भारत में धर्म-तन्त्र और तीर्थ परिकर एक प्रकार से अति घनिष्ठ हो गये हैं। दोनों की स्थिति एक प्रकार से अन्योन्याश्रित जैसी बन गई है। ऐसी दशा में उचित यही है कि इस पुण्य परम्परा के चिर प्राचीन स्वरूप को चिरनवीन के साथ मिलाकर ऐसी प्रेरणा उत्पन्न की जाय जिससे धर्मतत्व के प्रति लोक श्रद्धा में कमी न आ सके। उसकी उपयोगिता पर कोई उंगली न उठा पाये। उसकी आवश्यकता से किसी को इंकार न करते बन पड़े।
समय की माँग को पूरा करने के लिए युग परिवर्तन की इस पुण्य वेला में गायत्री तीर्थ को ऐसा स्वरूप दिया गया है जिससे इस उद्देश्य की पूर्ति हो सके, जिसके लिए महा मनीषियों ने इस परम्परा का प्रचण्ड मनोबल और समर्थ पुरुषार्थ के आधार पर प्रचलन किया था। वह प्रचलन अभी जीवित है, मरम्मत कर देने भर से अभी काम चल सकता है, वह स्थिति अभी नहीं आ पाई है कि तीर्थ परम्परा को खण्डहर में धकेल दिया जाय और उसके मलवे के हटाने की व्यवस्था बनाई जाय।
ब्रह्मवर्चस् आरण्यक की पहली मंजिल में गायत्री शक्तिपीठ की स्थापना की गई है। उसमें इस महामन्त्र के २४ अक्षरों में सन्निहित प्रेरणाओं एवं सामथ्यों की प्रतीक २४ शक्ति प्रतिमाएँ स्थापित की गई हैं। सामान्यतया अन्य देवालयों की तरह उसमें भी पूजा अर्चन एवं दर्शन-झाँकी का क्रम चलेगा, पर इसे प्रेरणा परिचय माना जायगा और प्रयत्न यह किया जायगा कि सम्पक में आने वाले हर व्यक्ति को गायत्री की प्रेरणा ऋतम्भरा-प्रज्ञा को हृदयंगम करने का अवसर मिले, साथ ही वह मार्ग भी मिले जिससे प्रगति पथ पर चलने की प्रचण्ड प्रेरणा एवं समर्थता की प्रचुर परिमाण में उपलब्धि होती है। शिक्षा और साधना के दोनों तत्व प्राचीनकाल की तीर्थ यात्रा के साथ जुड़े रहते थे। ब्रह्मवर्चस की शक्तिपीठ के सानिध्य में जो थोड़ा या बहुत समय तक रह सकेगे, वे उसी अनुपात में उपयोगी ज्ञान एवं आत्म बल उपलब्ध कर सकेंगे-ऐसी सुनियोजित व्यवस्था बनाई गई है। प्राचीन काल की ऋषि प्रणीत परम्परा का जीवन्त स्वरूप सर्व साधारण के सामने प्रस्तुत रह सके, इसी सामयिक आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए गायत्री शक्ति पीठ की। रीति-नीति एवं गतिविधि का निर्धारण किया गया है।
इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए गायत्री शक्तिपीठ में निम्न व्यवस्थाएँ विशेष रूप से रहेंगी :-
(१) हर यात्री दर्शक को गायत्री तत्वज्ञान की जानकारी एवं उसे अपनाने की प्रेरणा देने का प्रभाव पूर्ण क्रम
(२) अपने सामान्य जीवन क्रम के साथ चलाई जा सकने वाली सुगम उपासना का मार्ग दर्शन
(३) उपासना करने के इच्छुक व्यक्तियों को गायत्री माता का छोटा चित्र एवं उपासना विधि भेंट में देने का क्रम
(४) विशेष रूप से लिखे गये सुबोध एवं प्रेरणाप्रद गायत्री साहित्य के सस्ते मूल्य पर मिलने की व्यवस्था
(५) जो व्यक्ति सामान्य गायत्री उपासना का क्रम चलाते हैं उन्हें विशिष्ट साधना के लिए वहाँ रहकर साधना करने, मार्ग दर्शन पाने की व्यवस्था। ब्रह्मवर्चस और उसके अन्तर्गत सारे देश में बन रहे २४ गायत्री शक्तिपीठों की स्थापना के पीछे यही उद्देश्य सन्निहित हैं, उन्हें पूरा करने का प्राणपण से प्रयास रहा है।
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