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आचार्य श्रीराम शर्मा >> बोलती दीवारें (सद्वाक्य-संग्रह)

बोलती दीवारें (सद्वाक्य-संग्रह)

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :60
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15477
आईएसबीएन :00000

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सद् वाक्यों का अनुपम संग्रह

पूज्यवर की लेखनी से...

सद् वाक्य लेखन

 

यह तो नहीं कहा जा सकता कि जो भी कोई अच्छे वाक्यों को पढ़ेगा, वह निहित प्रेरणाओं पर आचरण भी अवश्य ही करेगा; पर यह सफलता तो सुयोग्य व्यक्तियों द्वारा दिए जाने वाले लम्बे-चौड़े प्रवचनों में भी नहीं मिलती और बड़े-बड़े सद्ग्रंथ भी तत्काल कोई चमत्कारी प्रभाव नहीं दिखा पाते, किन्तु उन पर देखने वालों की निगाह बराबर जाती है, तो सदविचारों का हलका-सा संस्कार जरूर पड़ता है। यदि वें संस्कार एकत्रित होने लगें, तो कालान्तर में ही अपना अनोखा प्रभाव उत्पन्न करते हैं, जिस प्रकार बुरी बातों को बार-बार देखने, सुनने, सोचने से उनकी ओर मन ललचाने लगता है, उसी प्रकार प्रेरणाप्रद विचार भी उन पर अपना प्रभाव किसी न किसी रूप में अवश्य ही छोड़ते हैं।

जन जागृति के लिए अपना समय देने वाले कार्यकर्ताओं को सद् वाक्य लेखन के लिए अपना थोड़ा समय जरूर लगाना चाहिए और जिनसे इस कार्य में सहयोग की आशा हो उनसे भी अवश्य सहयोग लेना चाहिए।


प्रेरणा का स्रोत

आदर्श वाक्यों की लेखन प्रक्रिया से एक वातावरण बनता है, जिधर से भी निकलें उधर ही प्रेरणाप्रद प्रशिक्षण मिलता है, तो मनुष्य यह सोचने लगता है कि सर्वत्र इसी स्तर की विचारधाराओं का प्रवाह बह रहा है और जिनकी दीवारों पर यह लिखा गया है, वे सभी इन विचारों से सहमत हैं। इतना न सोचें तो इतना अनुमान तो लगता ही है कि इस क्षेत्र में इस प्रकार की विचारधारा का बाहुल्य है।

कहना न होगा कि वातावरण की छाप हर मनुष्य पर पड़ती है। हवा के रुख के साथ चलने की सहज इच्छा उत्पन्न होती है। बोलती दीवारों के आन्दोलन को हमें पूरे उत्साह के साथ आगे बढ़ाना चाहिए और अपने क्षेत्र में उत्कृष्टता की ओर इंगित करने वाला वातावरण करना चाहिए।


जीवटता दिखाएँ

जन-जागरण के प्रयासों में उपेक्षा और हेठी प्रतीत होती हो, तो उसे भी सहन करें। इस जनजागरण के लिए, सद्ज्ञान प्रसार के लिए, ज्ञानयज्ञ अभियान के लिए उत्साह दिखाना चाहिए। लोग क्या कहते हैं और क्या टीका-टिप्पणी करते हैं, इस ओर से आँख-कान बन्द करके ही चलना चाहिए। लोगों को क्या कहना चाहिए इसी के लिए प्रयत्न करने चाहिए।

लोगों में यदि निष्कर्ष निकालने की शक्ति होती, तो फिर इतना परिश्रम ही क्यों करना पड़ता। बीमार के रूठने, बड़बड़ाने और आक्षेप लगाने पर भी दवा पिलाने का प्रयत्न शान्त चित्त से बिना उसकी बातों पर ध्यान दिए करना ही चाहिए। जनसेवा के लिए ऐसा ही करना होता है। जो माँगे वह देना सेवा नहीं। समाज के लिए जो हितकारी है, वह उसे देना ही सेवा परिचर्या है। समाज में व्याप्त पीड़ा और अभावों का निराकरण जिस वैचारिक एवं भावनात्मक पृष्ठभूमि पर संभव है, उन्हें पैदा करने का प्रयास ही वास्तविक एवं स्थायी सेवा कहलाने योग्य है। अस्तु, प्रस्तुत सुझावों के आधार पर यह उच्च स्तरीय सेवा साधना करने के लिए हर एक को साहसपूर्वक आगे आना चाहिए। जीवन साधना की सार्थकता इसी में है। कि साधना के साथ-साथ लोकमंगल की आराधना भी की जाए। उच्चस्तरीय सिद्धियाँ हस्तगत करने का यही राजमार्ग है।

पं० श्रीराम शर्मा आचार्य
(वाङ्मय-२, पृ० १०.५९-६०)

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