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आत्मिक प्रगति के लिए अवलम्बन की आवश्यकता

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :32
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15472
आईएसबीएन :000000

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आत्मिक प्रगति के लिए अवलम्बन की आवश्यकता

दीक्षा की प्रक्रिया और व्यवस्था


गुरु दीक्षा के तीन स्तर हैं। मंत्र दीक्षा प्राण दीक्षा, अग्नि दीक्षा। मंत्र दीक्षा को एक परम्परा अपनाने एवं मार्गदर्शन स्वीकार करने के स्तर का समझा जा सकता है। इसमें शुद्ध उच्चारण सिखाया जाता है और सामान्य स्तर के नित्य कर्म का विधि विधान सिखाकर उसे दिनचर्या का छोटा अंग बनाये रहना पड़ता है। इसमें अनुशासन के परिपालन भर का प्रावधान है। यह सामान्य स्तर की बात है। इसे काम चलाऊ प्रक्रिया के रूप में लिया और साधना क्षेत्र की रुकी हुई गाड़ी को आगे बढ़ाया जा सकता है। इसे प्रशिक्षण, मार्गदर्शन, अनुशासन की हल्की-फुल्की श्रृंखला कहा जा सकता है। कर्मकाण्ड इसका भी होता है। एक हल्के सूत्र में दोनों इसमें बँधते भी हैं। इसे प्राथमिक प्रवेश स्तर का समझा जा सकता है। दोनों पक्ष आवश्यकता अनुभव करके एक दूसरे को खटखटाते हैं। सामान्यतया वे एक-दूसरे का कोई निश्चित उत्तरदायित्व नहीं ओढ़ते।

उससे ऊंची हाई स्कूल स्तर की शिक्षा के समतुल्य प्राणदीक्षा है। इसमें गुरु अपनी तपश्चर्या, पुण्य सम्पदा और प्राण ऊर्जा का एक अंश देकर शिष्य की पात्रता एवं क्षमता बढ़ाने में योगदान करता है। शिष्य व्रतधारण करता है और उन्हें निभाता है। इसमें आदान-प्रदान का क्रम आजीवन चलता है। यह संतान और अभिभावक स्तर की आत्मीयता और उसके साथ जुड़ी हुई जिम्मेदारी बनाये रखने के समतुल्य समझी जा सकती है। इस उपक्रम को, सामान्य पेड़ को कलमी आम बनाने के सदृश समझा जा सकता है, जिसमें गुरु अपनी टहनी काटकर शिष्य में आरोपित करता है। जैसे पौधा जड़ों से लगायी गयी कलम को रस देता है और विकसित कर लेता है, उसी प्रकार गुरु के प्राण, तप और पुण्य का अंश प्राप्त करके शिष्य अपने साधना-पुरुषार्थ से उसे विकसित-फलित करता है। यह प्रक्रिया पूर्णत: वैज्ञानिक विकास की विद्या है।

दीक्षा अंतरंग का संबंध है। इसमें बाहरी औपचारिकता का उतना महत्त्व नहीं है। गुरु पर प्रभाव पड़ता है शिष्य की भावना का। स्तुति में कहे शब्दों या औपचारिकता का नहीं, शिष्य के अन्तराल के स्तर का प्रभाव पड़ता है। उसी से द्रवित होकर वे कुछ वैसा देने के लिए तैयार होते हैं जिसके फलस्वरूप कोई कहने लायक विभूति हाथ लग सके। दर्शन करने, माला पहनने, नमन करने, बातें बनाने भर से वह लाभ कहाँ मिलता है, जो सच्चे शिष्य को, सच्ची पात्रता उपलब्ध कराती है ?

बेटी के विवाह से पूर्व जामाता की पात्रता हजार बार परखी जाती है, वह उसे पाने का अधिकारी भी है या नहीं ? उसे पाकर क्या करेगा ? प्रतीत हो कि कुपात्र जामाता उपलब्ध पुत्री से दासी वृत्ति कराने और घर भरने की बात सोचता है, तो इसके लिए कोई अपनी बेटी नहीं देगा। सिद्ध पुरुषों की सिद्धियाँ सुयोग्य बेटी से भी अधिक प्रिय और बड़ी कठिनाई से समर्थ बनायी गई होती हैं। इन्हें पाने के लिए हाथ पसारने भर से काम चलने वाला नहीं है, उसके लिए पात्रता प्रस्तुत करनी होगी और जिस शर्त पर उसे लिया गया है, उस अनुबन्ध को निभाना ही होगा।

महान् गुरु किसी उच्च प्रयोजन के लिए अपनी शक्तियाँ या सिद्धियाँ हस्तान्तरित करते हैं। संकीर्ण स्वार्थपरता की पूर्ति के लिए लोभ-मोह और अहंकार की तृप्ति के लिए कोई विवेकवान् अपनी बहुमूल्य-कट साध्य कमाई न दे सकता है और न इस प्रकार किसी की जेब काटने की बात किसी न्यायनिष्ठ को सोचनी चाहिए। सरकारी उच्च पदासीन अफसरों को कितने ही सामान्य अधिकार या साधन मिलते हैं पर उनका उपयोग प्रजा हित में शासन की इच्छानुसार ही किया जा सकता है। कोई अफसर उन साधनों को निजी स्वार्थ साधने में करने लगे, तो उसे अपराधियों के कटघरों में खड़ा होना होगा।

गुरु-गरिमा आदर्शों को अपनाकर ही उन्हें उपलब्ध हुई होती है, वे उसे हस्तान्तरित भी उसी प्रयोजन के निमित्त करते हैं। साथ ही यह भी जानते, परखते हैं कि लेने वाला प्रामाणिक एवं ईमानदार भी है या नहीं ? यह सिद्ध न कर पाने पर, कुपात्र शिष्य जिस-तिस के सामने पल्ला पसरते फिरने पर भी खाली हाथ रहता है। गुरुओं की दीक्षा अनुदान इस शर्त पर हस्तान्तरित होते हैं कि जो माँगा जा रहा है, उसका प्रयोग-उपयोग उच्चस्तरीय प्रयोजनों में हो। संकीर्ण स्वार्थपरता की पूर्ति के लिए चाटुकारिता करने भर की ओछी रिश्वत देकर किसी को उच्चस्तरीय अनुदान पाने में सफलता नहीं मिली। इस नंगी सच्चाई को जितनी जल्दी समझ लिया जाय, उतना ही अच्छा है।

पूज्य गुरुदेव की, वंदनीया माता जी की उनके महाप्राण गुरुदेव ने जो अनुदान दिया है, उसके पीछे यही शर्त रही, जिसे उन्होंने आदि से अन्त तक पूरी ईमानदारी के साथ पूरा किया है। पात्रता की कसौटी सदा उनके ऊपर लगी रही है। जितने खरे सिद्ध होते चले हैं उसी आधार पर क्रमशः उन्हें अधिकाधिक बड़े अनुदान मिलते चले आये हैं। विवेकानन्द, दयानंद, शिवाजी, चंद्रगुप्त आदि ने जो माँगा, पाया, वह उच्चस्तरीय उद्देश्यों की पूर्ति के लिए था। पाने से पूर्व इसमें से हर किसी को अपनी पात्रता सिद्ध करनी पड़ी है। मेडिकल कॉलेज में प्रवेश पाने से पूर्व “प्री मेडिकल टेस्ट” देने पड़ते हैं। अफसरों के चुनाव में चुनाव आयोग के सामने कठिन परीक्षाओं में उत्तीर्ण होना होता है। दंगल में इनाम पाने से पूर्व अपना पराक्रम अन्य प्रतियोगियों से अधिक होने का प्रमाण प्रस्तुत करना पड़ता है।

सात लाख की लाटरी खुल जाने के उपरान्त एक हजार का दान करने का प्रलोभन देने वाले अध्यात्म क्षेत्र में बचकाने माने जाते हैं। लाटरी का नम्बर बताने की स्थिति में जो है, वह किसी को नम्बर बताने और मात्र हजार रुपये से संतोष करने की बात सोचेगा ही नहीं, किसी को बिचौलिया नहीं बनायेगा, अपनी ही लाटरी खोल लेगा। किसी का अहसान क्यों लेगा ? लाभ होने के उपरान्तदान देने की शर्त विवेकवानों के बीच काम नहीं देती, यह तो ओछे लोगों का, प्रलोभन देकर काम कराने का घिनौना तरीका है। उच्च क्षेत्रों में इस हेरा-फेरी की कोई गुंजाइश नहीं है। वरदान जिसे भी मिले हैं तप करके अपनी पत्रता सिद्ध करने के उपरान्त ही मिले हैं।

पूज्य गुरुदेव एवं वंदनीया माता जी ने आदान-प्रदान की जो प्रक्रिया अपने महा-गुरुदेव के साथ निभायी है। उनका शिष्यत्व प्राप्त करने के इच्छुकों में से प्रत्येक को भी वही अपनानी चाहिए। पूज्य गुरुदेव के पास जो था, वह सच्चे मन से उन्होंने परमार्थ के लिए महान् गुरुदेव की इच्छा-आवश्यकता के निमित्त, अपने को-साधनों की खपा देने के रूप में समर्पित किया। उनके आदेशानुसार अपने आपको तपाया। यही है वह पात्रता, जिसके बदले में उनके महाप्राण गुरुदेव ने अपनी भारी कमाई उनकी समर्थता के निमित्त निछावर कर दीं। उसी आधार पर वंदनीया माता जी भी अपने आराध्य गुरुदेव की शक्ति पाकर अनन्त शक्तिरूपा बनी हैं। एक प्रत्यक्ष व दूसरे परोक्ष मिलकर समग्र गुरु तंत्र का निर्माण करते हैं।

मन बहलाना हो तो बात दूसरी है, अन्यथा गुरु-शिष्य की परम्परा अपनाने की, सच्चे अर्थों में कार्यान्वित करने की बात ही सोची जानी चाहिए और उसी आधार पर कोई बड़ा लाभ पाने, महत्त्वपूर्ण आदान-प्रदान का द्वार खोलने की चेष्टा उस प्रकार करनी चाहिए, जैसा कि उदार चेता करते आये हैं।

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