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रौशनी महकती है

सत्य प्रकाश शर्मा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :112
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15468
आईएसबीएन :978-1-61301-551-3

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‘‘आज से जान आपको लिख दी, ये मेरा दिल है पेशगी रखिये’’ शायर के दिल से निकली गजलों का नायाब संग्रह


तीरगी को सरों पे ढोते हैं
रौशनी के दरख़्त होते हैं
झूमते हैं उदास होकर हम
और खुश हो गये तो रोते हैं

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लब अगर ज़िन्दगी भी सी लेगी
मौत कुछ और देर जी लेगी
क्या ख़बर थी कि ये सुराही खुद
अपनी सारी शराब पी लेगी

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रूह इसरार करने लगती है
तश्नगी प्यार करने लगती है
देखकर मेरी उलझनें, ये शाम
जाम तैयार करने लगती है

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इतने दिन किस तरह बिताएँ हम
दिल में हो दर्द और गाएँ हम
क़ीमतें बढ़ गई हैं जीने की
इतने पैसे कहाँ से लाएँ हम

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दर्द से बातचीत की मैंने
मर्द से बातचीत की मैंने
मैं अकेला नहीं था सहरा में
गर्द से बातचीत की मैंने

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मैं हो के परेशान अभी सोच रहा था
क्या है मेरी पहचान अभी सोच रहा था
कुछ कहने से पहले ही निकल आये हैं आँसू
अफ़साने का उन्वान अभी सोच रहा था

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वो इक ज़माने से खुद को खुदा समझता है
तू अब ये सोच कि वो तुझमें क्या समझता है
यक़ीन मानिये वो फिर नहीं पहुँचता कहीं
जो अपने आप को पहुँचा हुआ समझता है

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तुझसे मिलने की दुआएँ तो नहीं मांगते हैं
दिल के ये ज़ख्म दवाएँ तो नहीं मांगते हैं
याद के पेड़ हरे रहते हैं अपने दम पर
अब्र से काली घटाएँ तो नहीं मांगते हैं

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तक़लीफ़ इक मुसाफ़िर की सौ गुनी हुई
देती नहीं सहारा लाठी घुनी हुई
मैं रोज़ देखता हूँ तुम्हें क्यों नहीं दिखीं
सुब्हें पिटी-पिटी-सी ये शामें धुनी हुईं

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कसक हूँ दर्द की, एहसास की नमी हूँ मैं
उदास आँख हूँ अश्क़ों की सरज़मीं हूँ मैं
जिसे वजूद की ख़ातिर वजूद खोना पड़ा
वो कोई और नहीं आम आदमी हूँ मैं

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उसके बारे में अब सोचकर क्या करें
गर न सोचें तो शाम-ओ-सहर क्या करें
जबकि परवाज़ की कोई सूरत नहीं
रख के हम अपने ये बाल-ओ-पर क्या करें

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आज आएंगे, आज आएंगे
वो ये वादा भी क्या निभाएंगे
उनके दिल की ज़मीन महंगी है
हम तो छोटा-सा घर बनाएंगे

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हमसे क्या सिर्फ़ हाल पूछोगे
और क्या-क्या सवाल पूछोगे
काटते-काटते शबे-हिज्रां
कट गये कितने साल पूछोगे

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जबकि ख़तरों का ध्यान रखना है
फिर भी मुँह में ज़बान रखना है
दर्द का तज़्किरा न करना ही
दर्द की आन-बान रखना है

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बैठे हुये हैं शाम से हम दोनों पास-पास
मैं भी उदास और ये मंज़र भी है उदास
मैं रोज़-रोज़ कैसे इन्हें रंग दूँ नये
हर पल बदलता रहता है ज़ख़्मों का कैनवास

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कोई खुशी कमाई नहीं, दिन गँवा दिया
फिर हमको आज वक़्त ने ठेंगा दिखा दिया
ख़्वाबों की भीड़ मेरे हर इक सिम्त लग गई
कुछ ख़्वाहिशों ने मुझको तमाशा बना दिया

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अपने हिस्से की शाम ले पाए
वक़्त से इन्तक़ाम ले पाए
तुमसे दुनिया तो काम लेती रही
तुम कभी इससे काम ले पाए

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कोशिश है कि हो जाए जज़्बों की तर्जुमानी
लफ़्ज़ों में सिमट जाए एहसास की रवानी
हम अपने बुज़ुर्गों की कद्रों को जी रहे हैं
बच्चों को नहीं भाती कोई भी शय पुरानी

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ढंग जीने का हो मालूम तो जिया जाए
वरना क़ातिल को मसीहा समझ लिया जाए
आज के दौर में लोगों को दिल से क्या मतलब
पास अपने तो फ़क़त दिल है क्या किया जाए

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अपने सब ऐब तुम छुपा लोगे
आइने से नज़र चुरा लोगे
बैठ कर मयक़दे के आंगन में
पारसाई के गीत गा लोगे

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मुख़्तसर हो गया फ़साना भी
और दुश्मन हुआ ज़माना भी
साथ कब तक निभायेंगे आँसू
ख़त्म हो जायेगा ख़ज़ाना भी
 

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