नई पुस्तकें >> गीले पंख गीले पंखरामानन्द दोषी
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श्री रामानन्द 'दोषी' के काव्य-संग्रह ‘गीले पंख' में 33 कविताएं हैं…
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आग जलती रहे
आग जलती रहे, पीर पलती रहे,
रुक न जाए कहीं मौत का कारवाँ,
इसलिए प्यास के घाट पर अनमनी
बँध गई जिन्दगी प्रीत की डोर से।
प्राण बन्दी पड़े देह की कैद में,
मुक्त नभ में मगर चाह-खग उड़ चला;
बद्ध मंजिल अकेली सिसकती खड़ी -
एक मेला मगर राह में जुड़ चला;
एक मेला जुड़ा वर्तिका के तले,
अधजले एक शलभ ने कहा--"चूम लूँ -
इस निठुर के अधर की तरल ज्वाल पी,
मैं मरण-अंक में चैन से झूम लूँ,"
पर मिलन की मगर वह कटी रात यों,
लौ लगी रह गई दीप की भोर से !
इसलिए प्यास के घाट पर अनमनी,
बँध गई ज़िन्दगी प्रीत की डोर से।
तारिका एक टूटी गगन-डाल से,
चाँद ने आँख भर यों कहा-"बावली,
मैं तड़पता रहूँगा यहाँ रात भर,
तू भटकती फिरेगी बता किस गली ?"
लाज से गड़ गई वह लजीली दुल्हन,
फूल के गाल पर ओस बन ढल गई
किन्तु निष्ठुर चली कुछ हवा इस तरह
वह गगन की सखी धूल में मिल गई;
प्यार की इस कथा का यही अन्त है,
झाँकता है प्रलय हर प्रणय-छोर से !
इसलिए प्यास के घाट पर अनमनी,
बँध गई जिन्दगी प्रीत की डोर से।
एक दिन आदमी के नरम होंठ ने
भूल से छू लिया था सुधा का चषक;
होंठ घायल हुए, आदमी जल उठा -
शेष है आज भी उस जलन की कसक;
वह कसक पल रही है सृजन के,
मरण के तटों की लहरती हुई बाँह में;
ज़िन्दगी पर अभागी कटी इस तरह -
रुक न पाई कभी प्यार की छाँह में;
छाँह जब भी जुड़ी, घन तिमिर छा गया,
दाह उमड़ा उफन कर किसी ओर से !
इसलिए प्यास के घाट पर अनमनी,
बँध गई ज़िन्दगी प्रीत की डोर से।
मौत की मंजिलें, जिन्दगी की डगर,
पार करता चला आ रहा मौन हूँ;
रूप के धाम की अर्चना के लिए,
भूलता, याद करता कि मैं कौन हूँ ;
किन्तु मैं कौन हूँ ? एक लहर सिंधु की,
जो न तट पर रुकी और न मँझधार में;
एक नन्हे विहग की बड़ी प्यास हूँ -
खोजता तृप्ति हूँ तप्त अंगार में ?
मुस्कुरा दो ज़रा, मैं लगूं राह पर,
यों न रोको नयन की सजल कोर से !
आज भी प्यास के घाट पर ज़िन्दगी
रह न जाय बँधी प्रीत की डोर से।
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