नई पुस्तकें >> गीले पंख गीले पंखरामानन्द दोषी
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श्री रामानन्द 'दोषी' के काव्य-संग्रह ‘गीले पंख' में 33 कविताएं हैं…
23
जाने क्यों ?
जितनी ही कम है बात किसी पर कहने को,
वह जाने क्यों, उतने ही ऊँचे स्वर से शोर मचाता है !
जो जितना गहरा घाव लिए बैठा दिल में,
वह दबी-दबी आहें भरता भी उतना ही सकुचाता है।
जीवन की इस छीना-झपटी, झकझोरी, सीनाजोरी में,
इस तेर-मेर, आपा-धापी, धक्का-मुक्की में, चोरी में,
मैं बेगाना-सा खड़ा रहा इस भीड़-भड़क्के मेले में --
किस से कहता अपने मन की, अब कौन सुने इस रेले में !
पहले तो मैं कुछ घबराया,
फिर अपने मन को समझाया;
इस चलती-जाती दुनिया में -
निभ किस का साथ कहाँ पाया;
जितना ही नेह-जतन दिखलाता है कोई,
वह जाने क्यों, उतना ज्यादा गुत्थी को उलझा जाता है !
जितनी ही कम है बात किसी पर कहने को,
वह जाने क्यों, उतने ही ऊँचे स्वर से शोर मचाता है !
मैंने चाहा यह दुख की घनी घिरी बदली अब शीघ्र छँटे,
यदि साथ मिले कुछ राह घटे, कुछ वक्त कटे, कुछ पीर बँटे;
लेकिन यह सब होता कैसे, मजबूरी-सी मजबूरी थी !
कुछ दूरी थी इस दुनिया को, कुछ मन की मन से दूरी थी;
फिर जाने किस ने पट खोला,
मेरे मन में झाँका, बोला -
"आँसू वजनी होते, लेकिन
मुसकानों को किस ने तोला !"
जितनी जल्दी कुम्हलाता कोई कुसुम यहाँ,
उतना ही खुश हो कर वह अपने सौरभ को बिखराता है !
जो जितना गहरा घाव लिए बैठा दिल में
वह दबी-दबी आहें भरता भी उतना ही सकुचाता है !
है प्यास वही आदिम-युग की केवल पीने वाले बदले,
हाला, साक़ीबाला वे ही, बस नए-नए प्याले बदले;
किस ने कितनी पी डाली है, इस सब का लेखा-जोखा है-
जिस ने यह हाट लगाई है वह खाता कभी न धोखा है;
फिर भी कुछ ऐसे आते हैं,
जो सौ-सौ घात लगाते हैं;
पर बिना मोल मिलती कब है
सब पूरे दाम चुकाते हैं;
पर, प्यास यहाँ केवल उस की ही बुझती है,
जो अपने हिस्से का अमृत भी औरों को दे जाता है।
जितनी ही कम है बात किसी पर कहने को,
वह जाने क्यों, उतने ही ऊँचे स्वर से शोर मचाता है !
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