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प्रेरक कहानियाँ

डॉ. ओम प्रकाश विश्वकर्मा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :240
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15422
आईएसबीएन :9781613016817

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सभी आयुवर्ग के पाठकों के लिये प्रेरक एवं मार्गदर्शक कहानियों का अनुपम संग्रह

अधर्म का मूल

दो सगे भाई थे, दोनों में परस्पर बड़ा प्रेम और सौहार्द था। उनके दिन निर्धनता में ही कट रहे थे, किन्तु जब स्थिति अधिक खराब होने लगी तो दोनों ने विदेश जाकर कुछ धन कमाने के विचार से अपने ऊँट निकाले और उन पर सवार होकर विदेश चल दिये।

ऊँट पर सवार दोनों भाई जिस दिशा की ओर बढ़ रहे थे, उधर से उनको एक साधु महराज आते दिखाई दिये। साधु जब उनके समीप आया तो भाइयों को तीव्र गति से आगे बढ़ता देख उनसे बोला, "भाइयो! आगे मत जाना। थोड़ी दूर पर ही मार्ग में एक बड़ी भयावनी डायन बैठी है।"

भाइयों ने साधु की बात पर ध्यान नहीं दिया। कहने लगे, "हुँडायन बैठी है, खा जाएगी, ।"

वे चलते गये फिर भी उनको सन्देह तो हो गया था, किन्तु तब तक साधु बहुत आगे निकल गया था। उन्होंनेसोचा, साधु निहत्था था, इसलिए डर गया होगा। हम तो युवक हैं और हमारे पास तलवार, बन्दूक भी हैं। हमें किस बात का डर? राजपूत होकर इस प्रकार की बातों पर डरना शोभा नहीं देता। वे आगे बढ़ गये।

आगे चलते-चलते कुछ दूर पर उनको सोने के मोहरों से भरी एक थैली दिखाई दी। वे सोच रहे थे डायन से भिड़ने की, लेकिन मोहरों से भरी थैलीदिखाई दी । उनको कुछ सन्देह हुआ। दोनों ऊँटों पर से उतरे। थैली को हाथ में लिया, खोल कर देखा तो वास्तव में उसमें सोने की मोहरें भरी हुई थीं।।

थैली भारी थी। उठा कर ले चलना कठिन था। यह देख कर भाइयों ने सोचा कि साधु ने हमें ठगने के लिए कह दिया कि आगे डायन बैठी है ताकि हम डर कर आगे न बढ़ें। वह जाकर कोई सवारी लेकर आये और इस थैली को उठा ले जाये।

थैली पाकर दोनों को बड़ी प्रसन्नता हुई। चले थे परदेश के लिए यहाँ तो अपने देश में ही काम बनता दिखाई दे रहा था। अब परदेश जाने की उनकोआवश्यकतानहीं रह गयी। किन्तु वे घर से बहुत दूर आ गये थे और उनको भूख भी लग आयी थी। मोहरों से तो पेट भर नहीं सकता था। पेट के लिए तो भोजन चाहिए था।

बड़े भाई ने छोटे भाई से कहा, "बड़े जोर से भूख लगी है। पिछला गाँव तो बहुत पीछे रह गया, अगला गाँव पास ही लगता है। तुम जाकर खाने के लिए कुछ ले आओ।"

 "आप ठीक कहते हैं। जोरों की भूख लगी है, मैं जाकर कुछ खाने के लिए लाता हूँ।"ऐसा कह कर छोटा भाई ऊँट पर सवार होकर अगले गाँव की ओर चल दिया।

गाँव निकट ही था, जल्दी पहुँच गया और वहाँ उसको हलवाई की दुकान भी मिल गयी। उसने देखा, ताजा हलवा-पूरी बन रही है। मुँह में पानी भर आया। उसने सोचा मैं तो यहीं गरम-गरम खा लेता हूँ फिर भाई के लिए तुलवा लूँगा।

उसने पेट भर कर खाया और भाई के लिए खरीद कर ले चला।

उधर जैसे ही छोटा भाई भोजन लाने के लिए गाँव की ओर गया बड़ा भाई मन में सोचने लगा, 'दस हजार मोहरें हैं। दो भाइयों में बँट जाने पर मेरे पल्ले सिर्फ पाँचहजार ही आयेंगी। कुछ ऐसी तरकीब सोची जाय कि जिससे ये सारी मोहरें मेरी हो जायें।'

बहुत सोच-विचार कर उसने अपनी बन्दूक में गोली भर ली और सोचा कि जैसे ही भाई खाना लेकर आयेगा, मैं उसको गोली मार दूंगा। उसके बाद सारी मोहरें मेरी होंगी। लाश को यहीं दफना कर गाँव को चल दूँगा।

उधर पेट भरने पर छोटा भाई जब चला तो उसके मन में भीबेईमानी आने लगी कि किसी प्रकार सारी मोहरों पर मेरा अधिकार हो जाय। बहुत विचार करने पर उसने उपाय निकाला । संखिया विष होता है। उसने वहीं पंसारी की दुकान से कछ संखिया खरीदा और भाई के लिए ले जाने वाले हलवे में मिला दिया।

ज्यों ही छोटा भाई खाना लेकर बड़े भाई के पास पहुँचा कि बड़े भाई ने दनादन दो फायर करके छोटे भाई को वहीं ढेर कर दिया।

उसके ढेर होते ही बड़ा भाई प्रसन्न हो गया। उसको भूख तो लगी ही थी, सोचा पहले पेट भर लूँ, फिर इसकी लाश को ठिकाने लगाऊँगा।

उसने हलवे का दोना उठाया और सारा हलवा पल-भर में ही समाप्त कर दिया। हलवा समाप्त होते-होते उसे चक्कर आने लगे और वह भी वहीं ढेर हो गया।

ऐसी होती है पाप की कमाई। दोनों भाई समाप्त हो गये। इसे कहते हैं धनरूपी डायन। साधु ने उन भाइयों को ठीक ही कहा था कि डायन उनको खा जाएगी, और उसने उनको खाकर समाप्त कर दिया।  

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