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प्रेरक कहानियाँ

डॉ. ओम प्रकाश विश्वकर्मा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :240
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15422
आईएसबीएन :9781613016817

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सभी आयुवर्ग के पाठकों के लिये प्रेरक एवं मार्गदर्शक कहानियों का अनुपम संग्रह

अपूरणीय क्षति

सन्त तिरुवल्लुगर आरम्भिक जीवन में साड़ी और जरूरी कपड़ों की एक छोटी-सी दुकान करते थे। एक बार कुछ शरारती लड़के उनकी दुकान पर आकर सौदेबाजी करने लगे। उनमें से एक धनी लड़के ने एक साड़ी उठा कर पूछा, "क्या मूल्य है इसका?"

"दो रुपये।"

शरारती लड़के ने साड़ी फाड़ कर उसके दो टुकड़े कर दिये और फिर पूछा, "अब क्या मूल्य है इसका?"

"एक-एक भाग का एक-एक रुपया।"

लड़के शरारती थे और उनको चिढ़ाने के उद्देश्य से ही दुकान पर आये थे। लड़का उस साड़ी के टुकड़े करता रहा और हर बार उसका मूल्य भी पूछता रहा। सन्त उसी हिसाब से उसको मूल्य बताते रहे।

जब साड़ी के टुकड़े-टुकड़े हो गये तो वह लड़का बोला, "अब मैं इस साड़ी को नहीं खरीदूंगा। ये टुकड़े मेरे किस काम के?"।

सन्त बोले, "ये तुम्हारे क्या, किसी के भी काम नहीं आयेंगे।"

यह सुन कर लड़के को कुछ शर्म सी आयी। अन्त में उसने कहा, "ठीक है, ये दो रुपये लो, आपका घाटा पूरा हो जाएगा।" किन्तु सन्त ने वे रुपये नहीं लिए।

सन्त बोले, "घाटा तो तुम क्या कोई भी पूरा नहीं कर सकता। किसानों के परिश्रम से कपास पैदा हुई, जिसकी रुई से मेरी पत्नी ने सूत काता, उसको मैंने रंगा और फिर उसकी साड़ी बुनी। घाटा तो तब पूरा होता जब कोई इसको पहनता। कितने लोगों का परिश्रम व्यर्थ गया। क्या कोई रुपये से इस घाटे को पूरा कर सकता है?"

तिरुवल्लुगर ने यह सारी बात बड़े शान्त भाव से कही थी, आवेश में आकर या डाँटने के भाव से नहीं। जैसे कोई पिता अपने पुत्र को समझा रहा हो।

शरारती लड़का यह सब सुन कर शर्म से पानी-पानी हो गया। उसकी आँखें भर आयीं। सहसा वह तिरुवल्लुगर के चरणों में गिर पड़ा। उसने उनसे बार-बार क्षमा याचना की।

तिरुवल्लुगर तो सन्त थे, उन्हें उस पर जब क्रोध ही नहीं था तो फिर क्षमा क्या करते।

लड़के चुपचाप चले गये।  

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