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प्रेरक कहानियाँ

डॉ. ओम प्रकाश विश्वकर्मा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :240
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15422
आईएसबीएन :9781613016817

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सभी आयुवर्ग के पाठकों के लिये प्रेरक एवं मार्गदर्शक कहानियों का अनुपम संग्रह

प्रभु के लिये गायन

तानसेन का अकबर के दरबार में विशेष स्थान था। अकबर उनकी बुद्धिमत्ता से बड़ा प्रभावित था। बुद्धिमान होने के साथ-साथ तानसेन बड़े अच्छे गायक भी थे। एक दिन अकबर ने पूछा, "तानसेन! तुम्हारी आवाज बड़ी मीठी है। इसमें सन्देह नहीं कि तुम गान विद्या में निपुण हो। तुमने यह विद्या किससे सीखी?"

तानसेन ने कहा, "महाराज! स्वामी हरिदास जी मेरे गुरु महाराज हैं।"

"एक बार अपने गुरु महाराजका गाना तो सुनवाओ।"अकबर ने कहा।

"हुजूर! वे तो त्यागी, वैरागी महात्मा हैं। इतनी सामर्थ्य किसमें है जो उनको गाना सुनाने के लिए कहे। हाँ, उनको ही कभी मौज आ जाय तो गाना सुनने को मिल सकता है। यदि आप मेरे साथ वृन्दावन चलें कुछ दिन वहाँ रहें तो शायद कभी गुरुजी मस्ती में आकर गाना सुना दें।"

अकबर ने कहा, "हम तैयार हैं।"

दोनों ने वृन्दावन में गुरुहरिदास जी के आश्रम में डेरा डाल दिया। एक दिन प्रातःकाल सूर्योदय के समय तानसेन अकबर को लेकर गुरुजी महाराज की कुटिया की तरफ निकल गये।

हरिदास बाबा समाधि में बैठे थे। तानसेन ने मन ही मन गुरुको प्रणाम किया और फिर पास रखा तम्बूरा उठा कर उस पर स्वर साधने लगे। बाबा की समाधि टूट गयी। बाबा ने देखा कि तानसेन तम्बूरा लिए स्वर साधना कर रहे हैं, किन्तु वह जो राग गा रहे थे उसे गलत स्वरों में गाने लगे थे।

बाबा को अशुद्ध स्वर संधान नहीं पसन्द था? भले ही वह उनका प्रिय शिष्य तानसेन क्यों न हो। गुरुजी ने उसे डाँटा और कहने लगे, "अरे तानसेन! तुम इतना सीख कर भी अशुद्ध स्वर साध रहे हो?"

तानसेन मानो समाधि से जागा। उसने तम्बूरा रखा और गुरु महाराज के चरणों में झुक कर प्रणाम किया। फिर बोला, "महाराज! क्षमा करिये, मेरे गले में यह राग नहीं बैठता। कृपा कर एक बार और बता दें तो आभार मानूँगा।"

बाबा को उस पर दया आ गयी और हाथ में अपनी वीणा लेकर उन्होंने आलाप लिया। धीरे-धीरे स्वर बढ़ता गया। तान छिड़ती गयी। अकबर ही क्या आश्रम के समीप रहने वाले सभी पशु-पक्षी भी उस तान को सुन कर बेसुधसे हो गये। जबराग समाप्त हुआ तो तानसेन ने बाबा से अकबर का परिचय कराया और कहा कि वो केवल दर्शनों की अभिलाषा से आये थे। दोनों ने बाबा के चरण स्पर्श किये और वहाँ से विदा हो गये।

आश्रम से बाहर निकल कर अकबर ने तानसेन से कहा, "तानसेन! तुमने भी कई बार दरबार में यह राग गाया होगा, किन्तु उसे सुन कर हम इतने भाव-विभोर क्यों नहीं हुए? आज तो आनन्द की वर्षा हो रही थी।"

तानसेन बोला, "हुजूर! मैं बताता हूँ कि आप मेरे गाने में भाव-विभोर क्यों नहीं होते।"

"हाँ, बताओ।"

"उसका कारण यह है कि मैं तो दिल्लीपति का गवैया हूँ किन्तु स्वामी जी महाराज तो जगतपति के गवैये हैं। यही अन्तर है दोनों के गाने में।"

उत्तर सुन कर अकबर पर मन्त्र का सा प्रभाव हुआ। भगवद् भक्तों के प्रति उसके मन में श्रद्धा उत्पन्न हो गयी।  

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