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प्रेरक कहानियाँ

डॉ. ओम प्रकाश विश्वकर्मा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :240
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15422
आईएसबीएन :9781613016817

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सभी आयुवर्ग के पाठकों के लिये प्रेरक एवं मार्गदर्शक कहानियों का अनुपम संग्रह

गैरिक परिधान

एक बार महात्मा गांधी के आश्रम में एक प्रसिद्ध संन्यासी कुछ दिन रहने के लिए आये। उनको अतिथि आश्रम में ठहराया गया। एक दिन संन्यासी जी महात्मा गांधी से बोले, "महात्मा जी! मेरी इच्छा हो रही है कि मैं भी इसी आश्रम में रह कर कुछ सेवा करूँ। इस जीवन का राष्ट्रहित में कुछ तो उपयोग हो जाये।"

महात्मा गांधी बोले, "यह सुन कर मुझे बड़ी प्रसन्नता हो रही है। आप जैसे विरक्त साधु पुरुषों के लिए ही तो आश्रमों की व्यवस्था होती है। किन्तु यहाँ रहने पर आपको इन गैरिक वस्त्रों का त्याग करना पड़ेगा।"

स्वामी जी को यह सुनकर मन ही मन बड़ा क्षोभ हुआ कि संन्यासी से गैरिक वस्त्र त्यागने के लिए कहा जा रहा है। फिर भी बोले, "महात्मा जी! यह तो सम्भव नहीं है, मैं तो संन्यासी हूँ और संन्यासी गैरिक वस्त्र ही धारण करता

"मैंने आपसे संन्यास छोड़ने के लिए नहीं कहा है, उसे आप न छोड़िए। मैंने तो आपको गेरुये वस्त्र छोड़ने को कहा है। इनको छोड़े बिना सेवा नहीं हो सकती।"

महात्मा जी ने उनको समझाते हुए फिर कहा, "स्वामी जी! वास्तविकता यह है कि गेरुवे वस्त्रों को देखते ही हमारे देशवासी इन वस्त्रों को धारण करने वाले की सेवा आरम्भ कर देते हैं। आप दूसरों की सेवा करने की अपेक्षा स्वयं की सेवा करवाने वाले हो जाएँगे। दूसरा कारण यह है कि आपको गैरिक वस्त्रों में देखकर दूसरे लोग आपको सेवा करने का अवसर ही नहीं देंगे।

इसलिए मेरा निवेदन है कि जो वस्तु हमारे सेवा कार्य में बाधा डाले उसे छोड़ देना चाहिए। और फिर संन्यास तो मन की बात है। परिधान के छोड़ने से संन्यास नहीं जाता। अब आप ही सोचिए, गेरुये वस्त्र पहन कर आपको सफाई का काम कौन करने देगा?"

स्वामी जी ने उस पर विचार किया तोबात समझ में आ गयी। वे अपने संन्यास पर अटल तो थे ही किन्तु गैरिक वस्त्रों का मोह त्यागने का साहस नहीं कर सके।

अन्त में उनको महात्मा गांधी के आश्रम में रह कर सेवा करने की अपनी इच्छा को मारना पड़ा और वे वहाँ से शीघ्र ही विदा हो गये।  

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