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प्रेरक कहानियाँ

डॉ. ओम प्रकाश विश्वकर्मा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :240
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15422
आईएसबीएन :9781613016817

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सभी आयुवर्ग के पाठकों के लिये प्रेरक एवं मार्गदर्शक कहानियों का अनुपम संग्रह

हृदय-परिवर्तन

एक सेठ जी थे, जिन पर लक्ष्मी की बड़ी कृपा थी। अपार धन-सम्पत्ति के स्वामी होने के कारण समाज में उनकी बड़ी प्रतिष्ठा भी थी। उनके परिवार का हर सदस्य बड़ीशान-शौकत का जीवन व्यतीत करता था। परिवार के लड़के राजपुत्र जैसे रहते थे और लड़कियाँ राजकुमारियों की तरह रहती थीं।

सेठ जी के यहाँ आये दिन कोई-न-कोई आयोजन होता रहता था। हर आयोजन को भव्य बनाने के लिए अपार धन व्यय किया जाता था। ऐसे अवसरों पर बड़े-बड़े लोग और अधिकारी आमन्त्रित किये जाते थे और उनका अच्छा स्वागत-सत्कार किया जाता था। जिसे भी सेठ जी का निमन्त्रण मिलता वह स्वयं को सम्मानित अनुभव करता था।

किन्तु कुछ ऐसे विचारवान भी थे, जिनको सेठ जी के इन सारे कार्यों में अहंकार की बू आती थी किन्तु खुल कर, सेठ जी के सामने किसी में कुछ कहने का साहस नहीं था। परस्पर कानाफूसी करके अपना मन बहला लेते थे।

सेठ जी के प्रशंसक धनी वर्ग के लोग थे, क्योंकि उनको ही आमन्त्रित किया जाता था। किन्तु उन धनिकों में भी सेठ जी से ईर्ष्या करने वालों की कमी नहीं थी।

सेठ जी के तीसरे पुत्र का विवाह था। इस अवसर पर सेठ जी ने भव्य भोज का आयोजन किया । विवाह बड़े धूम-धाम से सम्पन्न हुआ।

स्वागत भोज का निमन्त्रण देने सेठ जी अपनी शानदार कार में स्वयं जाया करते थे। वे पण्डित मदन मोहन मालवीय जी के पास भी पहुँचे। जिस समय सेठ जी पहुँचे, मालवीय जी उस समय अपने कक्ष में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के कुछ वरिष्ठ प्राध्यापकों के साथ विचार-विमर्श में व्यस्त थे। सेठजी को अचानक सामने देख कर उन्होंने उठकर उनका स्वागत किया। बैठे हुए लोग दूसरे कमरे में चले गये।

जब दोनों व्यक्ति बैठ गये तो सेठ जी ने निमन्त्रण-पत्र निकालकर मालवीय जी के सामने रख दिया। मालवीय जी ने उसे पढ़ा। बोले, "यह आपकी कृपा है, जो मुझ अकिंचन के पास आप निमन्त्रण देने के लिए पधारे, किन्तु क्षमा करें, मैं आपके स्वागत समारोह में सम्मिलित नहीं हो पाऊँगा।"

सेठ जी को आज तक चापलूसी सुनने का ही अभ्यास था। कोई उनके निमन्त्रण को अस्वीकार भी कर सकता है, यह वे कल्पना भी नहीं कर सकते थे। मालवीय जी का उत्तर सुन कर वे स्तब्ध रह गये।

सेठ जी ने पूछा, "पण्डित जी! ऐसी क्या बात हो गयी? मुझ से कौन-सी भूल हो गयी है, जिससे आप रुष्ट हो गये हैं?"

मालवीय जी ने बड़ी खिन्नता में उत्तर दिया, "सेठ जी! मैं रुष्ट नहीं अपितु खिन्न और दुःखी हूँ। आप जिस प्रकार दिखावे के लिए अपना धन पानी की तरहबहाते हैं, वह मुझे अच्छा नहीं लगता। आप ऐसा क्यों करते हैं?"

सेठ गर्व से बोला, "भगवान ने मुझे दिया है, इसलिए दिल खोल कर खर्च भी करता हूँ। इस बहाने मुझे आप जैसी विभूतियों को अपने घर बुलाने का और आदर-सत्कार करने का सौभाग्य मिल जाता है।"

मालवीय जी गम्भीर हो गये। बोले, "सेठ जी! क्या भोज और फिजूलखर्ची से ही यश और सम्मान मिलता है? मेरे विचार में आपकी यह धारणा गलत है। हमारा देश गरीब है, यहाँ हजारों लोग ऐसे हैं जो भूखे रह कर, आधा पेट खाकर दिन काट रहे हैं। ये बड़े-बड़े भोज इन नंगे-भूखे लोगों का मजाक उड़ाते हैं, उनकी पीड़ा को दुगुनी करते हैं।

 "आप ही सोचिए, जब मेरे दिमाग में भूख से बिलबिलाते लोगों के चित्र हर समय रहते हैं, तो आपके भोज में परोसे जाने वाले स्वादिष्ट पकवान मेरे गले के नीचे भला कैसे उतर सकते हैं?

"यदि आप इस भोज के खर्च से गरीबों को भोजन कराते, तो मैं उनकेसाथ बैठ कर भरपेट खाता और सन्तुष्ट होता।"

सेठ ने सुन कर सिर झुका लिया। कुछ क्षणों तक मौन रहने के बाद जब सेठ ने अपनी गर्दन उठाई तो उनकी आँखों में आँसू थे। सेठ ने पण्डित जी से कहा, "पण्डित जी! आज आपने मेरी आँखें खोल दी हैं। मैं आपकी कही हुई बात कभी नहीं भूलूँगा। अब मेरा भोज दरिद्र-नारायण का ही भोज होगा।

"आज से परमार्थ ही मेरे शेष जीवन का लक्ष्य है। मैं आपका आभारी हूँ। परमात्मा से प्रार्थना कीजिए, मेरी यह भावना बलवती बनी रहे।"

इस प्रकार निमन्त्रण देकर सेठ चलने लगे तो मालवीय जी ने उनका निमन्त्रण स्वीकार कर भोज में उपस्थित होने का आश्वासन दे दिया।  

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