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प्रेरक कहानियाँ

डॉ. ओम प्रकाश विश्वकर्मा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :240
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15422
आईएसबीएन :9781613016817

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सभी आयुवर्ग के पाठकों के लिये प्रेरक एवं मार्गदर्शक कहानियों का अनुपम संग्रह

लक्ष्य के प्रति एकाग्रता

आचार्य द्रोण कौरव एवं पाण्डव राजकुमारों को अस्त्र शिक्षा दे रहे थे। बीच-बीच में आचार्य अपने शिष्यों के हस्तलाघव, लक्ष्यवेध, शस्त्रचालन की परीक्षा भी लिया करतेथे। एक बार उन्होंने एक लकड़ी का पक्षी बनवा कर एक घने वृक्ष की ऊँची डाल पर रखवा दिया। राजकुमारों को कहा गया कि उस पक्षी की बाईं आँख पर उन्हें बाण मारना है। सबसे बड़े राजकुमार युधिष्ठिर ने धनुष उठा कर उस पर बाण चढ़ाया। उनको बाण चढ़ाते समय आचार्य ने पूछा, "तुम क्या देख रहे हो?"

"मैं वृक्ष को, आपको तथा अपने भाइयों को देख रहा हूँ।"

आचार्य ने आज्ञा दी,"तुम धनुष रख दो।"।

युधिष्ठिर ने चुपचाप धनुष रख दिया। अब दुर्योधन उठे। उनके धनुष पर बाण चढ़ाते ही उन्होंने वही प्रश्न दुर्योधन से भी किया। दुर्योधन ने कहा, "सभी कुछ तो देख रहा हूँ। इसमें पूछने की क्या बात है?"

उन्हें भी धनुष रख देने का आदेश हुआ। इसी प्रकार क्रमशः सभी पाण्डव और कौरव राजकुमार उठे। सबने धनुष चढ़ाया। सबसे आचार्य ने वही प्रश्न किया। सबने लगभग एक ही उत्तर दिया। सबको बिना बाण चढ़ाये धनुष रखने की आज्ञा आचार्य ने दी। सबके बाद आचार्य की आज्ञा से अर्जुन उठे और उन्होंने धनुष पर बाण घढ़ाया। उनसे भी आचार्य ने पूछा, "तुम क्या देख रहे हो?"

"मैं केवल यह वृक्ष देख रहा हूँ।"

"क्या तुम मुझे और अपने भाइयों को नहीं देख रहे हो?"

"इस समय तो मैं आप में से किसी को नहीं देख रहा हूँ।"

"इस वृक्ष को तो तुम पूरा देख रहे हो?"

"पूरा वृक्ष मुझे अब नहीं दिख रहा है, मैं तो केवल वह डाल देख रहा हूँ जिस पर पक्षी है।"

"कितनी बड़ी है वह शाखा?"

"मुझे यह पता नहीं, मैं तो केवल पक्षी को ही देख रहा हूँ।"

"क्यातुम्हें दिख रहा है कि पक्षी का रंग कैसा है?"

"पक्षी का रंग तो मुझे इस समय नहीं दिख रहा । मुझे केवल उसका बायाँ नेत्र दिख रहा है और वह नेत्र काले रंग का है।"

"ठीक है, तुम लक्ष्यवेध कर सकते हो, बाण छोड़ो।"

बाण छोड़ने पर पक्षी उस शाखा से नीचे गिर पड़ा। अर्जुन के द्वारा छोड़ा गया बाण उसके बाएँ नेत्र में गहरा चुभा हुआ था।

आचार्य ने अपने शिष्यों को समझाया, "जब तक लक्ष्य पर दृष्टि इतनी स्थिर न हो कि लक्ष्य के अतिरिक्त दूसरा कुछ दीखे ही नहीं, तब तक लक्ष्यवेध ठीक नहीं होता। इसी प्रकार जीवन में जब तक लक्ष्य-प्राप्ति में पूरी एकाग्रता न हो, सफलता संदिग्ध ही रहती है।"  

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