लोगों की राय

नई पुस्तकें >> प्रेरक कहानियाँ

प्रेरक कहानियाँ

डॉ. ओम प्रकाश विश्वकर्मा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :240
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15422
आईएसबीएन :9781613016817

Like this Hindi book 0

5 पाठक हैं

सभी आयुवर्ग के पाठकों के लिये प्रेरक एवं मार्गदर्शक कहानियों का अनुपम संग्रह

लोभ : पाप का बाप

पण्डित चन्द्रशेखर दीर्घकाल तक न्याय, व्याकरण, धर्मशास्त्र, वेदान्त आदि का काशी में अध्ययन करके घर लौटे। सहसा उनसे किसी ने पूछ लिया, "पाप का बाप कौन?"

पण्डित जी ने बहुत सोचा, अनेक ग्रन्थों के पृष्ठ भी उलटे, किन्तु उन्हें कहीं इसका उत्तर नहीं मिला। सच्चा विद्वान ही सच्चा जिज्ञासु होता है। पण्डित जी अपने प्रश्न का उत्तर पाने के लिए फिर काशी आये। वहाँ भी उन्हें उत्तर नहीं मिला तो उन्होंने यात्राएँ आरम्भ कर दीं। अनेक तीर्थों में अनेक विद्वानों के स्थानों पर वे गये किन्तु उनको सन्तोष कहीं नहीं हुआ।

एक बार इसी यात्रा में वे पुणे के सदाशिव पेंठ से जा रहे थे। वहाँ की विलासिनी नाम की वेश्या अपने झरोखे पर बैठी थी। उसकी दृष्टि पण्डित जी पर पड़ी। चतुर वेश्या दासी से बोली, "वह ब्राह्मण रंग-ढंग से विद्वान जान पड़ता है। किन्तु यह इतना उदास क्यों है, जरा जाकर पता तो कर?"

दासी पण्डितजी के पास पहुँची और उनको प्रणाम किया, फिर पूछा, "महाराज! मेरी स्वामिनी पूछती हैं कि आप इतने उदास क्यों हैं?"

"मुझे न कोई रोग है और न धन की इच्छा। अपनी स्वामिनी से कहना कि वे मेरी कोई सहायता नहीं कर सकतीं। मेरी समस्या तो शास्त्रीय बात है।"

दासी ने हठ किया,"यदि कोई हानि न हो तो वह बात बता दें।"

ब्राह्मण ने प्रश्न बता दिया। वे कुछ ही आगे बढ़े थे कि वही दासी दौड़ती हुई आयी और बोली, "मेरी स्वामिनी कहती हैं कि आपका प्रश्न तो बहुत सरल है। उसका उत्तर वे बतला सकती हैं, किन्तु आपको उनके यहाँ कुछ दिन रुकना पड़ेगा।"

चन्द्रशेखर जी ने सहर्ष प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। उनके लिए वेश्या ने एक अलग मकान दे दिया और पूजा-पाठ व भोजनादि की व्यवस्था कर दी। पण्डित जी बड़े कर्मनिष्ठ ब्राह्मण थे। अपने हाथ से ही जल भर कर स्वयं भोजनबनाते थे। विलासिनी नित्य उनको प्रणाम करने आती थी। एक दिन उसने कहा, "भगवन् ! आप स्वयं अग्नि के सामने बैठ कर भोजन बनाते हैं, आपको धुआँ लगता है, यह देख कर मुझे बड़ा कष्ट होता है। आप आज्ञा दें तो मैं प्रतिदिन स्नान करके, पवित्र वस्त्र पहनकर भोजन बना दिया करूँ? आप इस सेवा का अवसर प्रदान करें तो मैं प्रतिदिन दस स्वर्ण मुद्राएँ दक्षिणा रूप में आप को अर्पित करूँगी। आप ब्राह्मण हैं, विद्वान हैं, तपस्वी हैं। इतनी दया कर दें तो आपकी इस सेवा से मुझ अपवित्रपापिनी का भी उद्धार हो जायेगा।"

सरल हृदय ब्राह्मण के चित्त पर वेश्या की विनम्र प्रार्थना का प्रभाव पड़ा। पहले तो उन्हें मन में बड़ी हिचक हुई, किन्तु फिर लोभ ने उकसाया, 'इसमें हानि क्याहै? बेचारी प्रार्थना कर रही है, स्नान करके, शुद्ध वस्त्र पहन कर भोजन बनायेगी औरयहाँ अपने गाँव-घर का कोई देखने तो आता नहीं। दससोने की मोहरें मिलेंगी। कोईदोष हो तो पीछे प्रायश्चित कर लिया जायेगा।

चन्द्रशेखर ने वेश्या की बात स्वीकार कर ली।

वेश्या ने भोजन बनाया। बड़ी श्रद्धा से ब्राह्मण के पैर धुलवाये, सुन्दर पट्टा बिछाया और सुन्दर पकवानों से भरा बड़ा-सा थाल उनके सामने परोसकर रख दिया।किन्तु जैसे ही ब्राह्मण ने थाली की ओर हाथ बढ़ाया, वेश्या ने थाल शीघ्रता से अपनी ओर खिसका कर चकित ब्राह्मण से बोली, "मुझे क्षमा करें। मैं एक कर्मनिष्ठ ब्राह्मण को आचारच्युत नहीं करना चाहती थी। मैं तो केवल आपके प्रश्न का उत्तर देना चाहती थी। जो दूसरे का लाया जल भी भोजन बनाने या पीने के काम में नहीं लेते, वे शास्त्रज्ञ सदाचारी ब्राह्मण जिसके वश में होकर एक वेश्या का बनाया भोजन स्वीकर करने को उद्यत हो गये, वह लोभ ही पाप का बाप है।"

¤ ¤

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book

A PHP Error was encountered

Severity: Notice

Message: Undefined index: mxx

Filename: partials/footer.php

Line Number: 7

hellothai