नई पुस्तकें >> प्रेरक कहानियाँ प्रेरक कहानियाँडॉ. ओम प्रकाश विश्वकर्मा
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सभी आयुवर्ग के पाठकों के लिये प्रेरक एवं मार्गदर्शक कहानियों का अनुपम संग्रह
यथोचित न्याय
घटना उस समय की है जब भक्त प्रह्लाद महाराज बन गये थे। उनका पुत्र विरोचन युवराज कुमार के रूप में था।
पांचाल देश की सर्वगुण-सम्पन्न कन्या केशिनी अपनी सुन्दरता के लिए जग विख्यात थी। उसने अपने पति का स्वयं वरण करने का निश्चय किया हुआ था। वह सर्वगुण-सम्पन्न और कुलीन पति चाहती थी। ये दोनों विशेषताएँ उसे तपस्वी ऋषि कुमार सुधन्वा में दिखाई दिये। वह इस पर विचार कर ही रही थी कि तभी विरोचन से उसकी भेंट हो गयी। साधारण वार्तालाप के उपरान्त विरोचन ने केशिनी के सम्मुख विवाह का प्रस्ताव प्रस्तुत कर दिया।
केशिनी विचारमग्न हो गयी। बोली, "राजकुमार! मैंने महर्षि अंगिरा के पुत्र तपस्वी सुधन्वा के साथ विवाह करने का विचार किया है। मैं समझती हूँ कि कुल में वे आपसे भी श्रेष्ठ हैं। आप दैत्यकुल के हैं और वे ब्राह्मण कुल के।"
राजकुमार विरोचन ने दैत्यकुल की श्रेष्ठता का बखान किया। केशिनी उसके तर्क से सन्तुष्ट नहीं थी, उसने कहा, "मैं समझती हूँ कि आप दोनों परस्पर बैठ कर अपना पक्ष प्रस्तुत करें, तब जो श्रेष्ठ सिद्ध होगा मैं उसके साथ विवाह कर लूंगी।"
निश्चित दिन राजकुमार विरोचन समय से कुछ क्षण पूर्व पहुँचकर उच्चासन पर बैठ गया। ऋषिकुमार सुधन्वा के आने पर विरोचन ने उसे अपने समीप बैठने के लिए कहा। किन्तु सुधन्वा ने कहा कि समान गुण-शील वाले ही एक साथ बैठ सकते हैं। क्योंकि वे दोनों समान गुण-शील वाले नहीं हैं, अतः साथ-साथ नहीं बैठ सकते। विरोचन अपनी बात पर अड़ा था। सुधन्वा ने कहा, "तुम्हें कदाचित मालूम होगा कि जब मैं तुम्हारे पिताश्री की सभा में जाता हूँ तो वे मुझे उच्चासन पर बैठाकर स्वयं मुझ से नीचे बैठते हैं और मेरी सेवा-सुश्रूषा भी करते हैं।"
इस प्रकार विवाद बढ़ने लगा। दोनों एकमत नहीं हो सके। तब निश्चय हुआ कि किसी को मध्यस्थ बनाया जाय। विरोचन ने किसी भी देवता और ब्राह्मण को मध्यस्थ बनाये जाने पर विरोध किया। सुधन्वा ने विरोचन के पिता को मध्यस्थ बनाने का प्रस्ताव किया। विरोचन ने इस प्रस्ताव को सहर्ष स्वीकार कर लिया।
सुधन्वा ने कहा, "किन्तु मेरी एक शर्त है।"
"वह क्या?"
"वह यह कि पराजित व्यक्ति विजित के चरणों में अपने प्राण समर्पित कर देगा।"
कुछ सोच-विचार के उपरान्त विरोचन ने शर्त स्वीकार कर ली।
दोनों महराज प्रह्लाद के समक्ष उपस्थित हुए और उनके सम्मुख सारी स्थिति स्पष्ट करदी। प्रह्लाद विचारमग्न हो गये। पुत्र-स्नेह से वे संकोच में पड़ गये थे, किन्तु कुछ क्षण उपरान्त ही वे सँभल गये। सुधन्वा ने भी प्रह्लाद को चेताया कि यदि उन्होंने पक्षपातपूर्ण निर्णय किया तो वे पाप एवं नरक के भागी बनेंगे।
प्रह्लाद ने विरोचन को सम्बोधित करते हुए कहा, "विरोचन! महर्षि अंगिरा मुझ से श्रेष्ठ हैं। कुमार सुधन्वा की माता तुम्हारी माता से श्रेष्ठ हैं और सुधन्वा तुमसे श्रेष्ठ हैं। अतः अब सुधन्वा ही तुम्हारे प्राणों के स्वामी हैं।"
सुधन्वा महाराज प्रह्लाद के न्याय से प्रसन्न हो गये। कहा, "महाराज! आप धन्य हैं। आपने पुत्र-स्नेह के वशीभूत होकर भी असत्य भाषण नहीं किया, इसलिए मैं आपके इस दुर्लभ पुत्र को आपको ही सौंपता हूँ। किन्तु कुमार विरोचन कुमारी केशिनी के सम्मुख मेरे पैर धोएँ, यही इस घटना का साधारण-सा प्रायश्चित इनको करना होगा।"
इस प्रकार केशिनी ने सुधन्वा को वरण किया और यथोचित न्याय करने के लिए महाराज प्रह्लाद की सर्वत्र प्रशंसा होने लगी।
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