नई पुस्तकें >> प्रेरक कहानियाँ प्रेरक कहानियाँडॉ. ओम प्रकाश विश्वकर्मा
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सभी आयुवर्ग के पाठकों के लिये प्रेरक एवं मार्गदर्शक कहानियों का अनुपम संग्रह
कर्तव्य-पालन
महाभारत युद्ध के प्रारम्भ की घटना है। सेनाओं के व्यूह बना दिये गये थे। युद्ध आरम्भ होने की घोषणा में कुछ ही क्षणों का विलम्ब था। तभी सहसा पाण्डवों ने देखा कि धर्मराज युधिष्ठिर अपने रथ से उतरे और अपने कवच-कुण्डल उतार कर रथ पर रख दिये, उसके साथ ही शस्त्रास्त्र भी वहीं रख दिये। इस प्रकार निशस्त्र हो कर वे कौरव सेना की ओर बढ़ते चले गये।
बड़े भाई को इस प्रकार शस्त्रविहीन पैदल चलते देख कर छोटे भाई भी अपने रथों से उतरे और शस्त्रास्त्र उतार कर वे भी उनके पीछे-पीछे चलने लगे। अर्जुन के सारथी भगवान श्रीकृष्ण भी उनके साथ चल रहे थे।
सब मौन अनुसरण कर रहे थे किन्तु भीमसेन से नहीं रहा गया। उन्होंने बड़े भाई को सम्बोधित करते हुए कहा, "महाराज! आप इस प्रकार निशस्त्र होकर शत्रु सेना में क्यों प्रविष्ट हो रहे हैं?"
युधिष्ठिर ने उसको कोई उत्तर नहीं दिया और चुपचाप उसी प्रकार चलते रहे। श्रीकृष्ण ने भीम की शंका का समाधान करते हुए कहा, "धर्मराज सदा धर्म का ही आचरण करते हैं. इस समय भी वे उसी का पालन कर रहे हैं।"
पाण्डव सेना में ही खलबली मची हो ऐसी बात नहीं थी। उधर कौरव सेना में भी यह देखकर खलबली मचने लगी थी। उनमें से अनेक यह अनुमान लगा रहे थे कि युद्ध से विरत होकर युधिष्ठिर आत्म-समर्पण करने के लिए कौरव सेना में आ रहे हैं।
उनमें से कुछ कहने भी लग गये, 'हम तो पहले ही जानते थे कि ऐसा होगा। युधिष्ठिर बड़े डरपोक हैं, तभी तो निशस्त्र होकर हमारी सेना की ओर आ रहे हैं।'
किन्तु कुछ लोग ऐसे भी थे जो सन्देह कर रहे थे कि कहीं भीष्म पितामह को अपने पक्ष में चलने का निवेदन करने तो युधिष्ठिर नहीं आ रहे?
युधिष्ठिर सीधे भीष्म पितामह के सामने जाकर खड़े हो गये। पितामह कोप्रणाम किया और हाथ जोड़कर बोले, "पितामह ! आपके विरुद्ध युद्ध करने के लिए हमको विवश कर दिया गया है। इस स्थिति में हम आपसे आज्ञा प्राप्त करने औरआशीर्वाद लेने के लिए उपस्थित हुए हैं।"
भीष्म यह सुनकर गद्गद हो गये। बोले, "भरतश्रेष्ठ! यदि तुम इस प्रकार मुझ से आज्ञा लेने न आये होते तो कदाचित मैं तुम्हें शाप देकर पराजित कर देता। किन्तु अब मैं तुम पर प्रसन्न हूँ। मैं तुम्हें आशीर्वाद देता हूँ, तुम विजय प्राप्त करो, जाओ, युद्ध करो।"
पाण्डवों के शिष्टाचार से भीष्म अभिभूत हो गये थे। उन्होंने आगे कहा, "तुम मुझ से वरदान माँगो।"आगे कहने लगे, "पार्थ! स्मरण रखना मनुष्य धन का दास है, किन्तु धन किसी का दास नहीं। मुझे धन से कौरवों ने अपने वश में कर रखा है, इसलिए नपुंसकों की भाँति मैं कहता हूँ कि अपने पक्ष में युद्ध करने के अतिरिक्त तुम मुझ से जो चाहो वह माँग लो।"
युधिष्ठिर ने पूछा, "किन्तु आप तो अजेय हैं, फिर हम आपको युद्ध में किस प्रकार पराजित कर सकते हैं?"
पितामह उत्तर टाल गये और कह दिया, "किसी दूसरे समय इसका उत्तर जानने का यत्न करना।"
धर्मराज वहाँ से गुरु द्रोणाचार्य के पास गये और उन्हें प्रणाम कर उनसे भी युद्ध की अनुमति माँगी। गुरु द्रोणाचार्य ने भी पितामह की ही भाँति उनको आशीर्वाद दिया। और जब युधिष्ठिर ने उनसे उनके पराजित होने का उपाय पूछा तो उन्होंने कहा, "मेरे हाथ में शस्त्र रहते, मुझे कोई पराजित नहीं कर सकता। परन्तु मेरा स्वभाव है किसी विश्वसनीय व्यक्ति के मुख से युद्ध में कोई अप्रिय समाचार सुनने पर मैं शस्त्रास्त्र रख कर ध्यानस्थ हो जाया करता हूँ। उस समय मुझे सरलता से मारा जा सकता है।"
द्रोणाचार्य को प्रणाम कर युधिष्ठिर कृपाचार्य की शरण में गये। प्रणाम कर युद्ध की अनुमति माँगने पर भीष्म पितामह की ही भाँति उन्होंने भी उनको आशीर्वाद दिया। युधिष्ठिर उनसे भी उनके वध का उपाय पूछना चाहते थे किन्तु पूछ नहीं सके। कृपाचार्य युधिष्ठिर का भाव समझ गये। उन्होंने स्वयं कहा, "युधिष्ठिर! मैं तो अवध्य हूँ। किसी के द्वारा भी मेरा वध नहीं किया जा सकता। परन्तु मैं वचन देता हूँ कि मैं नित्य प्रातःकाल तुम्हारी विजय के लिए भगवान से प्रार्थना करूँगा और तुम्हारी विजय में बाधक भी नहीं बनूंगा।"
युधिष्ठिर आश्वस्त होकर मामा शल्य के पास पहुंचे। प्रणाम किया और शल्य ने भी अन्य गुरुजनों की ही भाँति उनको आशीर्वाद दिया और कहा, "अपने निष्ठुर वचनों से मैं युद्ध में कर्ण को हतोत्साह करता रहूँगा।" शल्य युद्ध में कर्ण के सारथी बनाये गये थे।
इस प्रकार गुरुजनों को प्रणाम कर उनका आशीर्वाद एवं वरदान पाकर पाण्डव जब युद्ध करने लगे तो फिर उन्हें जीतने से कौन रोक सकता था।
अन्त में पाण्डव विजयी हुए।
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