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चेतना के सप्त स्वर

डॉ. ओम प्रकाश विश्वकर्मा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :156
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15414
आईएसबीएन :978-1-61301-678-7

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डॉ. ओ३म् प्रकाश विश्वकर्मा की भार्गदर्शक कविताएँ

यह अन्याय नहीं करना था


जन्म दिया फेंका सागर में,
जहाँ नीर ने ऊपर पहुँचाया।
लहरों से फिर डरकर चिपका,
प्यार आज तक उनका पाया।।१

लहरों से ही चिपक चिपक,
जीवन को मैंने अपनाया।
जल में रहना जल को सहना,
यह अपना उद्देश्य बनाया।।२

राह नहीं, क्या करना? नहीं पता,
क्या ऐसे ही हमें विचरना था?
जन्म दिया फेंका सागर में,
यह अन्याय नहीं करना था।।३

लहरो से ही हिल-मिलकर
मीन-जगत को मैंने जाना।
मीन है साथी जल ही जीवन
अब तक अपने को ना जाना।।४

जल में रहना जल में खोना,
जल क्रीड़ा होती रोजाना।
जल के कल-कल से आनन्दित हो,
जल संग जग-जग कर सो जाना।।५

इस खारे सागर में रहकर,
कर्जा किसका भरना था।
जन्म दिया फेंका सागर में,
यह अन्याय नहीं करना था।।६

सागर है सीमा मेरी अब,
थल पर पहुंचे मछली कैसे?
मीन जगत है परिजन अपना,
त्याग नहीं सकता अब वैसे।।७

या फिर मुझमें शक्ति जगा दो,
थल का जीवन मैं जी जाऊँ।
जल का जीवन छोड़ आज,
मानव जीवन को अपनाऊँ।।८

इस रत्नाकर के नीड़ों से,
मुझको कभी न डरना था।
जन्म दिया फेंका सागर में,
यह अन्याय नहीं करना था।।९

लहरों संग त्योहार मनाता,
गीत और संगीत सुनाता।
भवरों के पड़ जाते ही,
गहरे-गहरे गोते खाता।।१०

ऊँब चुका हूँ सिंधु कला से,
थल का मुझको मार्ग दिखा दो।
'प्रकाश' मिलेगा थल पर ही,
ऐसी अपनी उच्च-सिखा दो।।११

सहज ही सागर पार करूँ
मुझे आज तैरना सिखा दो।
इस लहराते सागर को त्यागें,
क्या मुझको नहीं निखरना था।।१२

जन्म दिया फेंका सागर में
यह अन्याय नहीं करना था।

* *

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