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चेतना के सप्त स्वर

डॉ. ओम प्रकाश विश्वकर्मा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :156
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15414
आईएसबीएन :978-1-61301-678-7

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डॉ. ओ३म् प्रकाश विश्वकर्मा की भार्गदर्शक कविताएँ

चिर निरंतर चल चला चल


चिर निरंतर चल चला चल।
बस यही है काम तेरा।।

तू अपरिचित था कि, पथ भी था अपरिचित,
जिन्दगी के मोड़ भी, थे बहत चर्चित।
तू चला था, गिर पड़ा था, फिर चला था,
क्यों कि तूने यह सुना था, है यही उत्थान मेरा।।

चिर निरंतर चल चला चल।
बस यही है काम तेरा।।

तिमिर पथ है, तो हुआ क्या? तू दिये दिल के जला ले,
शूल है पथ में हुआ क्या? तू उन्हें भी आजमा ले।
पर न जीवन की दिशा ही, मोड़ लेना पास आ के,
देख वो आगे झलकता फूल का उद्यान तेरा।।

चिर निरंतर चल चला चल
बस यही है काम तेरा।।

तू चला था साथ लेकर, भाष्कर की रश्मियों को,
साथ छोड़े रश्मियाँ तू जला, दिल के दियों को।
मार्ग यदि दुर्गम मिले, तो लेना हिम्मत का सहारा,
पर न रुकना तुम्हें पथ पर हो चाहे अपमान सारा।।

चिर निरंतर चल चला चल
बस यही है काम तेरा।।

तु न कर परवाह कल की, बस किये जा कार्य अपना
हर खुशी बस इसी में, मत सजोना कोई सपना
पथ अपरिचित भले, पर तो इसे परिचित बना के
हो अन्धेरा पर न रुकना, कल वही होगा सवेरा

चिर निरंतर चल चला चल
बस यही है काम तेरा।।

* *

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