नई पुस्तकें >> चेतना के सप्त स्वर चेतना के सप्त स्वरडॉ. ओम प्रकाश विश्वकर्मा
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डॉ. ओ३म् प्रकाश विश्वकर्मा की भार्गदर्शक कविताएँ
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भारतीय कवितायें
हाँ ! मधुरस पीता हूँ
जीवन की चपल तरंगों से,
मैं होड़ लगा कर जीता हूँ।
हाँ! मैं मधुरस पीता हूँ।
ममता और मोह तरंगों को,
कुछ और काल तक जीने दो।
उल्लासित होने दो प्रवाह को,
अमृत-विष सब कुछ पीने दो।।
यह सभी जानते हैं अंदर सें,
मैं कितना ही रीता हूँ।
हाँ! मैं मधुरस पीता हूँ।(१)
हाँ! कलि की कुटिल कलाओं में,
निष्णात नहीं मैं हो पाया।
जिसने जितना आघात किया,
उसको उतना ही अपनाया।।
मैं हारा बार-बार फिर भी तो,
अंत समय में जीता हूँ।
हाँ! मैं मधुरस पीता हूँ।(२)
कोयल की कूक पिलाती,
हरदम षटरस मुझको।
फूलों की मुस्कान पिलाती,
अमृत घट सदैव मुझको।।
मैं वर्तमान आदित्य प्रखर हूँ,
नहीं काल का बीता हूँ।
हाँ! मैं मधुरस पीता हूँ।(३)
मन मगन माधुर्यमय में,
तो, मान क्या, अपमान क्या?
सम्मान जिसका हो न सके,
वह योग क्या, वह ज्ञान क्या?
इस जग की धार जिधर बहती,
मैं उसके सदैव विपरीता हूँ।
हाँ! मैं मधुरस पीता हूँ।(४)
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