नई पुस्तकें >> चेतना के सप्त स्वर चेतना के सप्त स्वरडॉ. ओम प्रकाश विश्वकर्मा
|
0 5 पाठक हैं |
डॉ. ओ३म् प्रकाश विश्वकर्मा की भार्गदर्शक कविताएँ
|
भारतीय कवितायें
अनुभूति
"प्रणय" बन्ध के इक गुम्फन पर,
आन्दोलित त्रैलोक्य हो रहा।
अज्ञान-तिमिर आच्छादित यह मन,
क्यों धीरे-धीरे आज खो रहा? १
जीवन धारा के धूमिल तट,
बचपन-यौवन स्पष्ट हो रहे।
मोहाच्छादित बन्धन सारे,
धीरे-धीरे नष्ट हो रहे।। २
कैसा यह जागरण हो रहा,
काम-क्रोध सब कहां खो रहा।
नन्दन बन सी महक आ रही,
कौन अलौकिक बीज बो रहा? ३
उल्लासित लहरें शान्त हो रहीं,
हो करके जलनिधि अपार ।
तट सीप सभी बनी मणि-मुक्ता,
करती अपनी आभा प्रसार ।। ४
यह स्वप्न है, या जागरण,
या अहं का सात्विक मरण है।
या किसी नव वासना का,
प्रपन्चकारी आवरण है।। ५
* *
|