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काल का प्रहार

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : गंगा प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :64
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15412
आईएसबीएन :000

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आशापूर्णा देवी का एक श्रेष्ठ उपन्यास

3

गद्य को किंचित नीची नजर से देखने के बावजूद दलूमौसी मुझे ननी दी, मटरुदी, कचिमासी की श्रेणी में डाल कर नीची निगाह से नहीं देखतीं थीं। और यह भी मानतीं थी कि मैं ही उनकी कविता की थोड़ी बहुत कद्रदान थी। वह मुझे अपनी रचनायें पढ़ने को देकर यह भी टिप्पणी करतीं कि-वाह ! यह तो एक कहानी ही लग रही है। आखिर में तू भी अनुरूपा देवी जैसी सचमुच की लेखिको बन जायेगी क्या?

हांलाकि यह दोनों ओर से ही मजाक के रूप में कहीं गई बात थी। फिर भी मेरे लिए उसे मजाक को हजम करना असम्भव हो जाता। मैं भी दलूमौसी को कहती- हट ! असभ्य' 'फिर कभी तुझे कुछ नहीं दिखाऊंगी'' कुछ पल के लिए मिजाज दिखा कर मुँह बनाती।

दलूमौसी भी इसके जबाव में कहतीं, ठीक है, मैं भी नहीं दिखाऊँगी।

बाद में प्यार मनुहार-सब कुछ सुलह में ही खत्म होता। पर यह सब अन्दर ही अन्दर होता था।

जिस परिवार में दलूमौसी एवंम मेरा पालन हो रहा था उसमें सदस्य संख्या (बच्चों को घटाके) तीस से कम ना थी।

हमारी आजकल की पोतियाँ यह गणना सुन मूझ जाती हैं। उसे जमाने में ऐसी संख्या कुछ भी नहीं गिनी जाती थी। ग्रामों में क्या था पता नहीं पर साठ-सत्तर बरस वाले कलकत्ता में ऐसे आयतन का परिवार ही देखा जाता था। होगा भी क्यों नहीं? एक ही महिला तो दस-पंद्रह संतान प्रसव का अधिकार अपने ऊपर ले लेतीं थी। कोई इसे अनुचित कार्य भी नहीं मानता था। वे ही तो इसी चक्रानुसार सूद की वृद्धि करतीं।

मालिक, मालकिन तो उद्दार, आनन्द के साथ यही घोषणा करते रुपये से रुपया का सूद अधिक प्यार होता है।

उत्तर कलकत्ता के एक पुरातन प्रसिद्ध रास्ते पर दलूमौसी का वृहतआयतन वाला परिवार बसता था जिसके ऊपर-नीचे-सात-सात, चौदह कमरे थे। मंजिलें दो थीं। उसमें कम से कम ढाई दर्जन सदस्य-उनमें से छोटे बच्चों की गिनती नहीं की जाती।

उस जमाने की रीति के अनुसार परिवार के सदस्य स्तरों में विभक्त थे। जैसे दफ्तरों में विभाग और कर्मचारी विभक्त किये जाते है। ऊपरी स्तर वाले, निचली स्तर वाले।

यह काफी सम्पन्न परिवार हुआ करता था।

इस स्तर विभाजन में सर्वोच्च स्तर पर होते थे कर्मजीवन से अवसर प्राप्त कर्ता। कभी जो प्रबल शक्ति से सरकारी दफ्तर के बड़े बाबू या रेल, ऑफिस में गोदामबाबू होते थे। फिर घर बनाया, हर साल बेटियों का ब्याह किया, ऊपरी पैसा न्याय प्राप्ति मान, खुले हाथ से खर्च करते। दफ्तर में स्वजनों को लेनी गार्हित ना माने, बेकार भतीजों, भानजों को काम पर लगाकर संसार रूपी राज्य में राजा की भूमिका ग्रहण कर राज्य पर शासन करते रहे हैं।

इनके रौबदाब से सभी काँपते थे। इनके लिए मान्य था-महीन चावल, शाकाहारी, मांसाहारी दोनों ही रसोई का व्यजन, शुद्ध घी, खीर, ताजी दही, मछली का उत्तम अंश, बढ़िया आसन, महीन कपड़ो से ढका पानी भरा गिलास, खाते समय ताड़ के पंखे की मधुर मंद हवा।

घर में महिलाओं की कमी नहीं थी। और निरामिष भोज्य का प्रसाद इधर जाता। फिर रसोई में दो-दो चूल्हे राक्षस की तरह जलते। उसके लिए एक महाराज ठाकुर रखा गया था। जो गंजाम जिले का वासी था।

क्योंकि सभी बहुएँ तो छोटे बच्चों की जननियाँ हुआ करती थी। और महाराज रखना एक इज्जत की भी निशानी थी। तीन-चार और ऐसे नौकर रखना तो साधारण-सी बात थी।

गृहस्थ घर में भी होते। महाराज का नाम नहीं लिया जाता-वह सिर्फ ठाकुर था। यही ठाकुर कर्ताओं से स्वयं भयभीत और गृहिणियों को भयभीत रखता था।

नौकर बलराम कर्ताओं के यौवनकाल से था। वह बाबूओं का सम्मान

तो करता पर आगामी नस्ल पर पूरी खबरदारी चलाता। बुआजी के अलावा किसी दूसरी गृहणी को नहीं मानता।

हांलाकि मेहनत सभी के लिए करता था। सभी की सेवा भी करता था।

कोई विपत्नीकं रहता तो उसकी परिचर्चा तरीके से करता।

इनके अगले पर्याय में आते हैं। कर्ताओं के व्यस्क पुत्र, भानजे, भतीजे। भानजे तो दो-एक होते थे। इस युग में ये व्यक्त की श्रेणी में नहीं आते। शायद इस युग में, इस उम्र में कोई मधुचन्द्र पालन कर लौटा। कोई नववधु के साथ सिनेमा में, कोई केटिंग में व्यस्त है। पर तब वै व्यस्क ही माने जाते थे।

वे दस-पाँच या कोर्ट-कचहरी की चाकरी में फंसे रहते। परिवार की जनसंख्या वृद्धि में योगदान देते, बड़ों के सामने भीगीबिल्ली और छोटों के समक्ष यमराज की भूमिका में अवर्तीण होते।

इनके लिए होता था-एक बीच की स्थिति वाला चावल, घना दाल, मछली को बड़ा टुकड़ा, टिफिन में घी से तर परौठा और सफेद पारदर्शी आलू की सब्जी। चावल के साथ दही-दूध का प्राचुर्य ना होता पर कई तरह के तले भोग्य पदार्थ रहते। इनके लिए दरीवाला आसन गिलास में पानी बिना ढके, ऑफिस आजाकालीन डिब्बे में पानों की बहार।

जो बहुएँ लगा देतीं और जिसे भानजी, भतिजियाँ या छोटी बहनें वितरित करतीं। यही जीवन यात्रा का उत्र्कष शिष्टाचार था। बीवी अपने पति को पान दे? छिः !

इसके आगामी सीढ़ी पर उस उम्र के लड़के-लड़कियाँ खड़े थे। जिनके लिए आज का युग 'टिन स्पार' जैसा विशेष-विशेषण प्रयोग करता है। जो इस जमाने के भीग्यवान टीनएजर हैं। वे अगर सात खून भी कर डालें तो माफ। अपने आप को जो ना जाने क्या समझते हैं-पर उस जमाने में बिल्कुल उलट था। उन हतभागे टीनएजरों के लिए था हर पल फांसी को परवाना चाहे उन्होंने खून किया हो या नहीं।

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