नई पुस्तकें >> काल का प्रहार काल का प्रहारआशापूर्णा देवी
|
0 5 पाठक हैं |
आशापूर्णा देवी का एक श्रेष्ठ उपन्यास
20
उस जमाने में यह कम था? क्या कहती हो? अरे वाह। रट डाला। यह सब क्या मैंने लिखा था। दलूमौसी बोली। तुम तो वही खतरनाक लड़की हो नाम क्या है?
वह तो दादी को पता है दिल जलाने वाली। तुम जब दादी मामा के यहाँ से हिलने वाली नहीं हो तो यही बताती हूँ-रोज-रोज आलतू-फालतू प्रणय से परेशान होकर मैंने पेपर में एक विज्ञापन दे दिया था। पोस्ट बॉक्स में अपनी गुणावली का वृतान्त डाल दिया और लिखा था फोटो सहित प्रार्थना पत्र भेजिये। दस दिनों के अन्दर दो दर्जन फोटो आ गये हैं।
क्या कह रही है?
वही तो समस्या है-किसे बोट डालें। इसी कारण तुमसे सलाह लेने तुम्हारी शरण में आन पड़ी हूँ। तुम जिसे चुनोगी-
मैं हँस पड़ी-शादी करेगी तू, और बोट देंगी मैं तुझे जो पसन्द आये-
वहीं तो मुश्किल। पोती बोली, पूरी तौर से कोई भी पसन्द नहीं आ रहा है। आँखे अच्छी हैं तो नाम बेकार। नाक, आँख ठीक हैं तो मुँह। एक तो पूरी तरह से हैन्डसम लगा पर कान घोड़े की तरह-देखो न-बार-बार देखकर निरीक्षण-परीक्षण के लिए सब साथ में ही रखा है।
फटाक से कंधे से कई कमरों वाला बैग उतार कर उसके एफ कमरे से एक, दो दर्जन फोटो सामने फैला दिया।
सच में दो दर्जन पुरुष जैसे कूद पड़े-दुबले सांफ मूँछे, मूँछों वाला, हल्की दाढ़ी, किसी की दाढ़ी ही नही यह एक विचित्र समा था।
दलूमौसी तक का मुँह खुला का खुला रह गया। यह सब तस्वीरे खुद वरी ने पात्री को पसन्द करवाने के लिए भेजी है।
दिलजलाने वाली थोडी उदार हेस कर बोली, पता नहीं खुद भेजा है या उनके पिता, भाइयों ने भेजा है यह तो खुदा ही जाने। अमीर बाप की एकलौती कन्या, कलकत्ते में दो आलीशान मकानो का जाल भी तो था। कौन दघुंसे क्या पता। पर मुझे ही तो इन मे से चुनना है।
हूँ। इस विज्ञापन की खबर तेरे बाप को है?
उन्हें क्यों? अभी उन्हे बताके तंग करने की क्या जरूरत है। पहले एक फैसले पर आ जाऊँ उस बदमाश के साथ जरा घूम फिर लूँ तब तो पता चलेगा कैसा माल है-तब-
कभी की कह उठी-माँ।
अर्थात माँ है भी या नहीं। यही सशय स्वर से प्रगट हुआ था। पर संशय भंजन सग-सग हो गया।
लडकी बोली-सर्वनाश। मदर एक बड़ी ही खतरनाक महिला हैं। वह तो मुझे उल्टे-सीधे प्रश्न करके विरह से मुझे परेशान करके मेरा बारह बजा कर छोड़ेगी। आपको पता नहीं है। चटपट मेरी मदद करिये ना। आप दलूमौसी तो कवि थीं, प्रेम भी किया था, बताइये ना इन चेहरों में किसके ऊपर विश्वास करूँ।
काफी देर बकबक करके, काफी देर तंग कर बिना किसी निर्णय पर पहुँचे उसने तस्वीरें समेट कर रख दीं और कहा-आज तो ना हो सक्ता। सोचती हूँ दो-एक अग्रेजी अखबारों में भी विज्ञापन दे दूँ। तब तो तेरा बैग सर्वभारतीय तस्वीरों से भर जायेगा।
बह तो है। वही तो समस्या है। तुम कब वापिस लौटोगी?
दलूमौसी परसो चली जायेंगी फिर और किसके लिये रुकुँगी?
उसके जाते ही दलूमौसी बोलीं, हमारा वही कलकत्ता इतना प्रगृप्तझील हो गया है, और ये सड़कों पर गढ़े, फुटपाथ पर कहा और पार्क मे रेलिग, यहाँ वह दुकानों के लिये रो रही है।
तब तो कहती है कलकत्ता को पूरी तौर से फालतू के ढेर में नहीं डाला जा सकता? तभी तो सोचती हूँ। यह सब लड़कियों कहाँ बड़ी हुई-जिनके हमारी ही तरह के हाथ-पैर, बांधे-मुंह, कान-माथा सब हैं- मैंने कहा-दलूमौसी यही पर थमना पड़ेगा? दिमाग हमारी तरह नही है। उनमें दरवाजे, खिडकियाँ सब है? भजन की बेटी को शादी के बाद पता चला पति मिजाज वाला है तो तलाक देकर चली आई अब मजे में है। मतलब मझले ताया का बेटा भजन?
और कौन-सा भजन?
सिर्फ पति के मिजाज के कारण तलाक दे डाली। बस इतना ही। बाकी सब श्रेष्टतम था।
आर्थिक अवस्था अच्छी थी, देखने में सुदर्शन, सास-ससुर भी अच्छे थे। ससुर बेचारा तो अब भी आता है।
दलूमौसी ने एक बार चारों ओर देखकर कहा-अद्भुत। ईट वगैरह ठीक जगह पर तो है? उन्हीं दीवारों पर वही खिड़कियाँ, दरवाजे, मजबूत-ओह हम भी कितने मुर्ख थे?
अचानक उसी दलनी बेगम की मुद्रा में गर्दन ऊँचा कर बोल उठीं, खबर ले तो मेरा टिकट हो गया या नहीं। यह कलकत्ता हम लोगों के लिए नहीं। कल का टिकट मिले तो कल ही रवानी हूँगी।
पर समाज में प्रगृति को पथ सहज हो गया तो क्या जीवन यात्रा को पथ भी सहज हो जाता? लोग लाइन में लग कर टिकट तो करवा लाये है पर रिर्जवेशन वह तो दूर था।
प्रबुद्ध ने अपने दफ्तर के तत्पर लड़के को इस काम में लगा रखा है। कहा है उस स्मार्ट छोकरे ने कि टिकट के अलावा बीस रुपये और लेंगे। वह तो कुछ भी नहीं है। कम ही माँगा हैं।
आज छुट्टी का दिन था इसीलिए पता लगाना कठिन था। कल दफ्तर में जाकर प्रबुद्ध खोज खबर करेगी। पर कर्ता, कत्री दोनों का यही कहना था-इतनी जल्दी क्यों कर रही हैं, और दो दिन रह ही जाइये ना।
ना।
दलूमौसी को मन नहीं टिक रहा था। रात को बोली अपने आप पर क्रोध आता है।
|