नई पुस्तकें >> ये जीवन है ये जीवन हैआशापूर्णा देवी
|
0 5 पाठक हैं |
इन कहानियों में मानव की क्षुद्र और वृहत् सत्ता का संघर्ष है, समाज की खोखली रीतियों का पर्दाफाश है और आधुनिक युग की नारी-स्वाधीनता के परिणामस्वरूप अधिकारों को लेकर उभर रहे नारी-पुरुष के द्वन्द्व पर दृष्टिपात है।
ऋण-परिशोध
''ये रही लिस्ट...''
डॉली के जन्मदिन पर रूमा जिन्हें बुलाना चाहती है, उनके नामों की लिस्ट पार्थ की ओर बढ़ा दी उसने।
पार्थ उछल पड़ा, ''इतनी लम्बी-चौड़ी लिस्ट?''
''नहीं तो क्या?'' रूमा ने पूरा जोर देकर कहा, ''उसमें से एक भी नाम काटा नहीं जा सकता है। शादी हुई, किसी को पता नहीं चला, चाँद जैसी एक बेटी हुई, वह भी किसी को पता नहीं चला, मज़ाक है क्या? बेटी का 'अन्नप्राशन' हुआ तब भी टाल गये, अब जन्मदिन की पार्टी दिये बिना नहीं छोड़ूँगी।''
हाँ, अब रूमा ऐसी जिद कर सकती है, क्योंकि पार्थ का सप्लाई बिजनेस दिन दूनी रात चौगुनी उन्नति करके आसमान छूने लगा है। और इसकी शुरुआत हुई है उनकी शादी के बाद ही। शादी के पहले तक तो पार्थ एक खटारे जैसी बाइक पर आवारा की तरह घूमता रहता था। रूमा ने पार्थ के साथ प्रेम-विवाह किया था, इस बात पर रूमा के परिवार में बड़ा असन्तोष था। खैर, उसके बाद वह असन्तोष ठण्डा पड़ चुका है क्योंकि आनेवाले दिनों में पार्थ ने कठिन परिश्रम किया। मोटरबाइक से नयी बाइक और नयी बाइक से नयी कार में घूमने लगा।
रूमा कहती है, ''सब मेरे नसीब से, समझे?''
पार्थ कहता, 'नहीं समझा।' खटता-मरता मैं रहा और उसका 'क्रेडिट' तुम लोगी। मगर मन-ही-मन वह इसी बात को मानता है। पार्थ की आय-वृद्धि का मतलब ही है रूमा के ऐशो-आराम, सुख-वैभव की पूर्ति। शुरू में आकर रूमा काठ की चौकी पर सोयी थी और अब अचानक उसने कहना शुरू कर दिया, ''इतने सुन्दर पलँग पर डनलप के गद्दे के बिना अच्छा नहीं लगता है।''
फिर भी एक दुख है रूमा के मन में अभी भी, उसकी शादी में धूमधाम नहीं हुई, खाना-पीना नहीं हुआ। बेटी के 'अन्नप्राशन' के समय भी उसकी बात पर ध्यान नहीं दिया था पार्थ ने। उस समय एक भारी ऑर्डर हथियाने की फिराक में कोलकाता बम्बई घूमता रहा था वह। अब आया है बेटी का जन्मदिन।
मगर लिस्ट देखते-देखते पार्थ हँस पड़ा। बोला, ''हमारी शादी का किसी को पता नहीं चला, कहने का मतलब? देश-भर के लोगों के मुँह में तब एक ही तो चर्चा थी।''
''उससे क्या लाभ हुआ था।''
रूमा ने चेहरे पर एक विशेष भंगिमा दिखाई, जैसा वह अकसर ही दिखाती है, और जिसे देखकर ही पार्थ बोला, ''और कुछ न सही, लोग जान तो गये थे।''
''जान नहीं गये थे, कहो कानाफूसी की थी।...भाड में जाए वे सब बातें। अभी तुम इस लिस्ट को पढ़कर यह तय कर लो कि किस-किस दिन कौन-सा का काम निपटाओगे। अधिक दिन बाकी नहीं हैं।''
कागज को पलटकर पकड़ा पार्थ ने, फिर रुक गया, आँखों को सिकोड़कर कहा, ''माया देवी कौन हैं?''
रूमा कुछ सकपका गयी। बोली, ''क्यों तुम्हारी एक बुआ थी न? उन्हीं की बेटी जिनके पास रहकर तुम कॉलेज की पढ़ाई करते थे? मायादी ही कहा था न।''
''मायादी। ओह!''
पार्थ ने चैन की एक लम्बी साँस ली और बोला, ''माया देवी सुनकर घबरा गया था। मगर तुम तो उन्हें पहचानती नहीं? देखा ही नहीं कभी।''
''कैसे देखूँगी? दिखाया है कभी? प्रेम-विवाह करके अपने रिश्तेदारों के बीच जैसे एक पतित की भूमिका निभा रहे हो। अब मैं सबको देखना चाहती हूँ।''
पार्थ को थोड़ी हँसी आयी। उसने सोचा, देखना तो एक बहाना है, रूमा अपना घर-द्वार, पति, सन्तान, सुनहरा सौभाग्य सबकुछ दिखाना चाहती है।
मगर यह सब बात समझने से भी कही नहीं जाती। पार्थ ने रूमा के सुखी, चमकते चेहरे को देखकर वही कहा जो कहना चाहिए था। उसने कहा, ''तो देख लो।...मगर मायादी की बात सोच रहा हूँ। उसे शायद...।''
रूमा आधी बात सुनकर ही समझ गयी कि बात क्या है। जिद में आकर वह बोली, ''क्यों ? शायद क्यो? इसलिए कि बुरे समय में उन्होंने साथ दिया,'' अपने ही ढंग से सोचा उसने।
छुट्टी के दिनों में रूमा को लेकर पार्थ, या पार्थ को लेकर रूमा रिश्तेदारों के घर-घर गये और निमन्त्रण देते समय वह सब रूमा ने ही व्यावहारिक ढंग से कहा जो कि कहना चाहिए क्योंकि रूमा को बात करने का सलीका आता है। लौटकर लाल पेंसिल से लिस्ट के नामों पर 'टिक' देते हुए रूमा बोली, ''अब जो दो-चार बाक़ी रह गये, इन सबके यहाँ तुम्हें ही जाना है। इन सबको ऑफिस जाकर बोल देने से ही काम चलेगा, अकेले ही बुलाना है न? मगर तुम्हारी उस मायादी की बात और है। उन्हें भी तो ऑफिस जाकर ही बोलना पड़ेगा, चन्दन नगर के घर पर जाकर कहना तो सम्भव नहीं। मगर उन्हें विशेष रूप से कह देना कि घर के सब लोग आएँ।''
रूमा ने सोच लिया चन्दन नगर जाकर न्यौता देना असम्भव है। मगर यह मान लिया है कि चन्दन नगर से वे सपरिवार आ सकते हैं। पार्थ ऐसी धारणाओं और भाषाओं को लेकर किसी भी बात पर तर्क-वितर्क नहीं करता है। उसे पता है, जो होता है वह होता है, जो नहीं होता, वह नहीं होता है। रूमा की धारणा से कुछ अन्तर नहीं पड़नेवाला हे। अगर वे नहीं आते है, रूमा पार्थ को ताने देगी। कहेगी, तुमने ठीक से कहा नहीं क्या? पता नहीं, बातचीत करने में कितने अनाड़ी हो? शायद उस समय रूमा थोड़ा मुस्कुराएगी भी। कहेगी, ''नहीं तो कोई शादी का प्रस्ताव देते समय भला ऐसे कहता है-अच्छा, हमारी जितनी जान-पहचान हो गयी है, उससे शादी नहीं की जा सकती क्या?''
यह बात रह-रहकर सोचती है रूमा।
सच ही है, बाद में सोचा है पार्थ ने, बात बड़ी बेवकूफी जैसी ही हो गयी थी। मगर रूमा से हार क्यों माने? इसलिए बोला, ''जैसे भी कहा हो, बात बन गयी थी कि नहीं?''
अगर अभी रूमा देख पाती पार्थ किस तरह बातें करता है। बातों में पटा कर ही तो ऑर्डर हासिल कर लेता है पार्थ।
जेब से लिस्ट निकालकर एक-एक कर दफ्तरों में गया वह। दो-चार पार्थ के दोस्त थे, बाक़ी सभी रूमा के फुफेरे, मौसेरे, चचेरे भाई। सोच-सोचकर इतने सारे नाम और पते ढूँढ़ निकाले हैं रूमा ने। मायादी को आज रहने देते है, सोचा पार्थ ने, अच्छा चन्दन नगर जाने से कैसा रहेगा?
फूलू बुआ के चन्दन नगर के घर में 'कोजागरी लक्ष्मी पूजा' होती थी, सब जाते थे देखने, यहाँ तक कि नौकर-चाकर भी। पार्थ भी जाता था। फूलू बुआ की ससुराल के कुछ लोग भी वहाँ रहते थे। मगर उससे कोई फर्क नहीं पड़ता था। घर इतना खुला-खुला था, चारों ओर इतने पेड़-पौधे, किसी से बिना मिले भी काम चल जाता था। पार्थ अपनी खुशी से ये दो दिन इधर-उधर घूमता रहता था।
मायादी खोजकर लाती और पकड़कर खिलाती थी उसे।
पार्थ कहता, ''मायादी, इतना सुन्दर घर है तुम्हारा और तुम श्यामबाज़ार के घुटनवाले मकान में पड़ी रहती हो?''
मायादी कहती, ''कोलकाता में ही दाना-पानी है भैया। बाबूजी, चाचा, तू और मैं अगर डेली पैसेंजरी कर ऑफिस, कॉलेज जाते तो यह सुन्दरता हवा हो जाती, समझा?''
मायादी पार्थ के साथ कॉलेज में पढ़ती थी, हालाँकि वह पार्थ से कम-से-कम दस साल बड़ी थी। मायादी का जीवन बड़ा दुःखद था। शादी के बाद ही किसी झमेले के कारण ससुराल से लौट आना पड़ा था मायादी को। तब से लेकर काफ़ी दिनों तक मायादी केवल चौके में माँ का हाथ बँटाती रही, बाबूजी की कमीज के बटन ठीक करती रही, घर सँवारती, सिलाई करती और कहानी की किताबें पढ़ती रहती।
बड़े दिनों बाद जब पार्थ फूलू बुआ के घर पढ़ाई करने के लिए आया, मायादी बोली, ''मैं भी पढ़ूँगी।''
इस बात को तुरन्त मंजूरी नहीं मिली, मगर अन्त में मिल ही गयी। पार्थ और मायादी ने एक साथ पढ़ाई की, दोनों एक साथ खाकर कॉलेज जाते। इसका अर्थ यह नहीं है कि मायादी ने उसे डाँटना-धमकाना छोड़ दिया हो। उठते-बेठते बोलती रहती, ''धूप में क्यों जल रहा है? ठण्ड में क्यों घूम रहा है? पढ़ाई छोड़कर मटरगश्ती क्यों हौ रही है?''...ऐसी ही कितनी बातें कहती रहती।
मायादी ने ही सबसे अधिक ममता दिखाई थी पार्थ के प्रति। बरसात के दिनों में न जाने किस तरह पार्थ के कुर्ते-पाजामे, गंजी, रूमाल सुखा कर रखती, पता नहीं कब आकर उसका बिस्तर झाड़कर साफ कर जाती, उसकी किताब-काँपी सजाकर रख देती थी।
पार्थ इस घर में आश्रित था, इस बात को जहाँ तक हो सके मायादी खुलने नहीं देती थी।
उस मायादी के साथ न जाने कितने दिन से पार्थ मिला ही नहीं, जबकि दिन-रात पार्थ डलहौजी के चक्कर काटता रहता है। यहीं मायादी का औफ़िस है।
फूफाजी की मृत्यु के बाद उनके दफ्तर में मायादी को नौकरी मिल गयी थी। उनका कोई बेटा नहीं था, इसीलिए बेटी को मिल गयी थी और इसलिए भी कि वह बी.ए. पास थी।
फूफाजी के श्राद्ध के समय ही नौकरी की खबर मिल गयी थी। मायार्दा ने कहा था, ''देखा पार्थ, तेरे साथ पढ़ना शुरू कर दिया था, तभी तो...''
श्राद्ध चन्दन नगर जाकर हुआ था, मगर वही से फूलू बुआ लौटी नहीं। मायादी के बैचलर निधू चाचा ने कोलकाता से डेरा-डण्डा उठाकर वहीं प्रतिष्ठित कर दिया इन्हें। स्वयं डेली पैसेंजर बन गये, भतीजी को भी साथ ले लिया।
यह सब मालूम था पार्थ को।
-और जिन्दगी की भागमभाग में वह इस बात को अधिक दिनों तक याद नहीं रख सका।
आश्चर्य की बात है रूमा ने याद दिला दी, जबकि उसने मायादी को देखा तक नहीं है।
छायादी के ब्याह के समय मायादी ने कहा था, ''बीवी को क्यों नहीं लाया रे? मैं कब से आस लगाकर बैठी थी कि इस मौके पर तेरी बीवी को देख सकूँगी।''
''ऐसी कोई देखने लायक नहीं है,'' पार्थ ने कहा था।
मायादी ने उसे एक थप्पड लगाकर कहा था, ''फिर भी तो तू उसी पर लट्टू हो गया।'' फिर कहा था, ''एक दिन ले आना, कहे देती हूँ।''
फूलू बुआ के यहाँ मायादी ही घर की देखभाल करती थी। बुआ तो बारहों महीने दमे से परेशान रहती और जब फूफाजी जीवित थे तब भी निधू चाचा ही घर के मालिक थे। पार्थ से स्नेह करते थे। कहते थे, ''समय किसी का इन्तजार नहीं करता पार्थ, उसे जल्दी से खरीद लो।''...और कहते थे, ''मैं कहता हूँ पार्थ, तुम बहुत ऊपर उठोगे, मतलब खूब पैसे कमाओगे तुम। तुम्हारी हथेली में स्टार है।''
निधू चाचा ज्योतिष की चर्चा करते थे।
उनके कमरे में हस्तरेखा की कई किताबें थीं। और पार्थ इन बातों में विश्वास नहीं रखता था। हँसकर कहता था, ''ठीक है निधू चाचा, आपकी भविष्यवाणी सच होने पर आप क्या दक्षिणा लेंगे, बता दीजिए अभी।''
निधू चाचा कहते थे, अभी नहीं बताऊँगा, देखूँ तुम बनते क्या हो, उसी हिसाब से। क्या अभी उनके पास जाकर पार्थ कह नहीं सकता, ''निधू चाचा लगता है आपकी वे किताबें एकदम बेकार नहीं थीं। अब कहिए, दक्षिणा क्या लेंगे?''
मगर इतने दिनों में एक दिन भी पार्थ को ऐसा नहीं लगा कि निधू चाचा की किताबें बकवास नहीं थी। मायादी के ऑफिस से निधू चाचा के ऑफिस चला जाए तो कैसा रहेगा। हाँ वह जाएगा।
पार्थ के पास छपा हुआ विज़िटिंग कार्ड है, फिर भी उसने एक कागज पर नाम लिखकर भेज दिया। मायादी शीघ्र ही बाहर आ गयी।
मायादी का चेहरा कितना बदल गया है, ठीक उसी पल समझ में नहीं आया। केवल ढेर सारी हँसी बिखरी थी उस चेहरे पर, पार्थ इतना ही देख पाया।
उस हँसमुख चेहरे पर हँसी बिखेरते हुए मायादी बोली, ''अरे पार्थ। क्या हाल है? आ जा अन्दर।''
इस तरह से कहा उसने जैसे पार्थ ने कभी कोई अकृतज्ञता नहीं दिखाई हो, और वह अकसर ही आता-जाता हो, खबर लेता रहा हो।
पार्थ बैठ गया और बोल पडा, ''मायादी तुम्हारे बाल इतने पक गये क्यों?''
मानो यही सवाल करने के लिए आया हो पार्थ।
मायादी मुस्कुरायी, बोली, ''उम्र बढ़ रही है कि नहीं?''
मायादी ने तो उम्र की दुहाई दी मगर उनका चेहरा देखकर लगा, केवल उम्र
ही नहीं, मानों बरसों से जमी थकान मायादी के बालों को सफेद कर गयी है।
शायद मायादी पूछने जा रही थी, ''चाय पीएगा या कुछ ठण्डा?''
पार्थ बोला, ''मायादी एक बड़ा गिलास भरकर ठण्डा पानी पीऊँगा।''
मायादी हँस पड़ी। बोली, ''ओ माँ! अभी भी बिलकुल वैसा ही है। कॉलेज से लोटते ही कहता था, ढेर सारा ठण्डा पानी पीऊँगा, एक बड़े से गिलास में। माँ कहती थीं, तेरी प्यास के लायक़ बड़ा गिलास नहीं है बेटा। उससे अच्छा है तू लोटे से पी ले। याद है?''
याद नहीं था, अभी याद आ गया। और याद आ गया तभी तो वही बात कह दी उसने।
मायादी ने बेयरा को बुलाया, पानी मँगवाया, चाय के बारे में भी कह दिया। बोली, ''बोल क्या खाएगा?''
पार्थ कहने जा रहा था, कुछ नहीं। मगर कहा नहीं ऐसा। बोला, ''जो खिलाओगी।''
बेयरा से मद्धिम आवाज में मायादी ने कुछ कहा। फिर बोली, ''अब बता क्या हालचाल है तेरा?''
बेटी के जन्मदिन पर न्योता देने आया हूँ, पता नहीं क्यों यह बात नहीं कह सका पार्थ। क्या समय से पहले मायादी के सर पर इतने पके बाल देखकर? या गालों की सारी कोमलता खोकर हड्डी उभरे हुए चेहरे को देखकर?
मायादी का जीवन बड़ा दुःखद है।
फिर भी अभी उनका चेहरा और भी दुःखी लगने लगा। बेयरा चाय और आमलेट रख गया। मायादी बोली, ''खा।''
फिर बोली, ''तू पहले से अब और सुन्दर हो गया है।''
''मगर लोग तो कहते है, मैं काला हो गया हूँ।''
मायादी बोली, ''कौन कहता है? बीवी कहती है? काला होने से क्या? मेहनत-भागदौड़ करने से मर्दों का रंग काला पड़ जाता है। मगर ऐसे सुन्दर हो गया है।"
''धत्, इसका मतलब मोटा हो गया हूँ।''
मायादी की हँसी कुछ फीकी-सी लगी। जैसे उन्हें बहुत तकलीफ़ हो। क्या उन्हें भी फूलू बुआ की तरह दमे की बीमारी है?
"बुआ कैसी है मायादी?''
''माँ? उनका क्या? बस, वैसे ही हैं। और बूढ़ी होती जा रही है।'' पहले फूलू बुआ के स्वास्थ्य को लेकर मायादी के मन में कितनी चिन्ता रहती थी। अब दो लाइन ही काफी लगीं।
''क्या कर रहा है आजकल?''
''वही, जो कर रहा था,'' पार्थ बोला।
मगर उस करने के 'काया-पलट' के बारे में नहीं कहा।
''एक दिन अगर चन्दन नगर आ सकता,'' मायादी थोड़ा मुस्कुराकर बोलीं, ''माँ बहुत खुश होतीं।''
अब ऐसे बात कर रही है मायादी। मगर किसी ज़माने में पार्थ कहता था, ''मेरी कंघी कहाँ गयी मायादी?''
''मायादी, तुम्हें रफू करना आता है, कमीज़ फट गयी है।''
और जब कभी फूलू बुआ पुकारती, ''ओ माया, ओ पार्थ, छुट्टी के दिन तुम लोगों को भूख भी नहीं लगती है क्या?'' पार्थ कहता, ''बुआ को लेकर क्या किया जाए, मायादी?'' अब पार्थ अगर मिलने चला जाए तो फूलू बुआ को खुशी होगी। संकोचवश यह समाचार मायादी पेश कर रही है।
''मायादी, निधू चाचा के ऑफिस का पता याद नहीं आ रहा है। जरा बताओगी।'' मायादी अचानक वाक्हीन होकर पार्थ की ओर देखने लगी, फिर धीरे से बोली, ''क्यों? पता लेकर क्या करेगा?''
''ऐसे ही, एक बार मिलने के लिए। बहुत दिन हो गये उन्हें देखे हुए।'' मायादी दीवार की ओर देखकर धीरे से बोली, ''ऑफ़िस जाने से मुलाक़ात नहीं हो पाएगी।''
पार्थ को याद आ गया, निधू चाचा की उम्र हो गयी है, रिटायर होना ही स्वाभाविक है।
वही बात पूछी उसने।
मायादी कुछ अजीब-सी हँसी हँसकर बोली, ''हाँ, रिटायर हो गये हैं।''
फिर थोड़ा-सा रुककर बोली, ''तूने कुछ सुना नहीं...?'' पार्थ का कलेजा धड़क उठा। तीखे स्वर में वह बोल उठा, ''मायादी।''
मायादी बोली, ''डेढ़ साल हो गया।''
''क्या हुआ था मायादी?''
''कुछ खास नहीं, ऐसे ही दो दिन बुखार आया था। बोले, 'आज ठीक हूँ, ऑफिस जाऊँगा'' बस, उसके बाद।'
पार्थ को लगा, वह चीख-चीखकर कह रहा है, निधू चाचा आपको दक्षिणा तो नहीं दे सका। आपकी भविष्यवाणी की दक्षिणा...
मगर चीखा नहीं था वह, इसलिए किसी को सुनाई नहीं पड़ा।
पार्थ के झुके हुए माथे को देखकर कोमल स्वर में मायादी बोली, ''चाचा तुझसे बहुत प्यार करते थे।'' जबकि डेढ़ साल से पार्थ को पता नहीं था कि ऑफिस जाने पर निधू चाचा से भेंट नहीं होगी।
"पार्थ, तुझे कोजागरी पूजा की बात याद है? चाचा कहते थे नारियल-चूड़ा खा। आज की रात को नारियल-चूड़ा खाने से बुद्धि बढ़ती है।''
पार्थ को याद आ रहा था, नारियल-चूड़ा के साथ ताड़ के बीज का फल खाते थे वे लोग। सावन-भादों में जो ताड़ खाये जाते थे, उनके बीज छत के कोने में ढेर बनाकर रख दिये जाते थे। जब उनमें अंकुर आते थे, भुवन कटारी से चीरकर देता था।
''अब भी ताड़ खाते हैं सब लोग, मायादी?''
अचानक ऐसे प्रश्न से मायादी हैरान हुई। बोली, "क्यों नहीं? घर में ही तो कितने पेड़ हैं। मगर, तू क्यों आया था पार्थ?''
अभी भी पार्थ से नहीं कहा गया, ''परसों मेरी बिटिया का जन्मदिन है, तुम सब लोग आना। यही कहने आया हूँ।''
कह सकेगा क्या? ये सब लोग कौन-कौन है, पहले इसका पता तो लगाना पड़ेगा।
''छायादी कहाँ हैं, मायादी?'' पूछते ही डरते-डरते देखा पार्थ ने। क्या कहेगी मायादी छायादी के बारे में? नहीं, और कुछ नहीं।
केवल साँस छोड़कर मायादी बोली, ''और कहाँ जाएगी। ससुराल में ही है।''
मायादी की बात सुनकर ऐसा लगा कि जाने को और कोई जगह होती तो छायादी ससुराल में न होती।
क्यों? क्या छायादी विधवा हो गयी हैं? सुन्दर, घुँघराले बालोंवाला उसका पति मर गया क्या? क्या हुआ था उसे?
मगर मायादी तब भी बोले चली जा रही थी।
''फिर भी दीपा, नीपा की शादी तो करनी ही है। दीपा की शादी एक तरह से तय कर चुकी हूँ।''
"ये सब तुम्हें ही करना होगा, मायादी?''
''और कौन करेगा, बताओ?''
सच ही तो है। मायादी के पिता नहीं, भाई नहीं, चाचा भी नहीं रहे। रहने के लिए बीमार माँ, बड़ी-बड़ी दो अनब्याही बहनें और यह नौकरी। मायादी नहीं करेगी तो कौन करेगा? मगर इतने से क्या होता है? कितना होता है?
-और इधर पार्थ ने नयी गाड़ी खरीदी है, पार्थ की बीवी कहती है, ''नये पलँग पर डनलप के गद्दे के बिना ठीक नहीं लगता है।''
पार्थ ने मन-ही-मन कहा, मायादी, मैं तुम्हें अपनी बिटिया के जन्मदिन पर बुलाने आया था, तुमने वह करने नहीं दिया। अब अगर तुम फिर पूछ बैठो, पार्थ तूने बताया तो नहीं, क्यों आया था? क्या जवाब दूँगा?
''चलता हूँ मायादी।''
मगर मायादी ने ऐसा कुछ पूछा नहीं। फिर चन्दन नगर चलने के भी नहीं कहा। केवल बहुत प्यार भरे स्वर में बोली, ''अच्छा, कभी-कभी आ जाया करो, बहुत अच्छा लगा देखकर। माँ के पास जाकर सबसे पहले तेरी बात ही कहूँगी।''
मगर मायादी ने फिर चन्दन नगर जाने की बात क्यों नहीं कही, क्या उन्हें पता चल गया पार्थ के सूट का कपड़ा कितना कीमती है? क्या समझ गयी कितने कीमती हैं उसके जूते और कितना कीमती हैं उसके चश्मे का फ्रेम भी?
कुर्सी से उठते समय धीरे से अपने जूतों को रगड़ा पार्थ ने। बड़ी इच्छा हुई उसे कि कहे, ''मायादी, दीपा के ब्याह का कुछ भार मुझ पर दो।''
मगर उठकर खड़े होते ही सब कुछ ऐसे उलट-पलट कैसे हो गया? अपनी बात सुनकर स्वयं ही हैरान हो गया पार्थ। उसने देखा, मेज पर झुककर, देखने में पार्थ जैसा वह लड़का बोला, "मायादी, तुमसे माँगने में शर्म आ रही है मगर एक तुम्हीं से माँगने में शर्म नहीं है। बीस-एक रुपये दे सकती हो? जितनी जल्दी हो सके...''
पार्थ नाम का एक और लड़का ठीक इसी तरह मेज पर झुककर कहता था न, ''आठ आने होंगे मायादी, देखना, नौकरी लगते ही मैं तुम्हारा सारा उधार चुका दूँगा।''
0 0
|