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ये जीवन है

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :192
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15411
आईएसबीएन :81-263-0902-4

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इन कहानियों में मानव की क्षुद्र और वृहत् सत्ता का संघर्ष है, समाज की खोखली रीतियों का पर्दाफाश है और आधुनिक युग की नारी-स्वाधीनता के परिणामस्वरूप अधिकारों को लेकर उभर रहे नारी-पुरुष के द्वन्द्व पर दृष्टिपात है।

 

अपने लिए शोक


आधी रात को नींद मे ही अचानक अविनाश को बड़ी बेचैनी-सी महसूस हुई। जैसे दम घुट रहा हो, सीने में एक अनजानी तकलीफ। नींद खुल गयी, उन्होंने देखा पसीने से तर हो गये है, गर्दन के नीचे तकिया भी पसीने से गीला हो चुका है। उठकर बैठने लगे, पर बैठ न सके।

गर्दन उठाकर तकिये को उलट लेते तो अच्छा होता, पर जान रहे थे ऐसा कर नहीं सकेंगे। हाथ-पैर हिला नहीं पा रहे, जैसे-सुन्न और बेजान हों।

उम्र के साठ वर्ष पार करने चले अविनाश ने देखा भी बहुत कुछ जीवन में। वही अनुभव एक तीव्र प्रश्न बनकर अविनाश के मस्तिष्क की शिराओं में जैसे एक वार कर गया। मुझे 'स्ट्रोक' हो गया क्या? इस तरह सीने में घुटन, ऐसे पसीना आना, इस तरह हाथ-पांव सुन्न हो जाना, ये सभी तो 'स्ट्रोक' के लक्षण हैं।

आतंकित अविनाश घबराकर चीखने लगे किसी का नाम लेकर, शायद बड़े बेटे का या छोटे का, शायद पोतियों में से किसी का या शायद शैलबाला का ही। नहीं, शैलबाला का हो नहीं सकता, कब उन्होंने शैलबाला को नाम से बुलाया कि आज ऐसा कर बेठेंगे? अध्यास न हो तो मरने के समय भी नाम मुँह से नहीं निकलता। तभी तो महापुरुष कहा करते हैं 'नाम' का अभ्यास करने को।

वह अभ्यास भी तो किया नहीं उन्होंने, इसलिए अभ्यास के अनुसार ही अविनाश ने पुकारा किसी को। मगर पुकारा जिसे भी हो, वह पुकार किसी के कानों तक नहीं पहुँची क्योंकि आवाज उनके सीने के भीतर ही घुमड़ रही थी, गले से बाहर नहीं निकल रही थी।

इसका मतलब अविनाश को पक्षाघात हो गया। अचानक ही, अनजाने में! यही अविनाश बिस्तर पर लेटने से पहले तक, नहीं-नहीं, नींद आ जाने से पहले तक भी स्वस्थ-स्वाभाविक थे। सुबह से रात तक प्रतिदिन जो कुछ काम करते हैं, सब कुछ किया था, कहीं कोई परिवर्तन नही, तबीयत पर कोई आँच नज़र तो नहीं आयी थी।

प्रतिदिन की तरह सुबह उठकर पार्क में घूमने गये, और लौटते समय छोटे पोते के लिए खटाल से सामने दुहाया हुआ गाय का दूध ले आये, प्रतिदिन की तरह ग्वाले को धर्म-शान की बातें भी सुनाकर ही आये।

अविनाश को यह काम पोते के माँ-बाप, अर्थात् अविनाश के छोटे बेटे और बहू ने नहीं सौंपा। वे तो डिब्बे के दूध पर ही निर्भर थे-अविनाश ने स्वयं ही आग्रह दिखाकर यह व्यवस्था की और उत्तरदायित्व अपने ऊपर ले लिया।

ऐल्युमिनियम के जिस बर्तन में दूध लाते हैं, उसे लेकर ही घूमने निकलते हैं और पोतियों के आगे गर्व के साथ घोषणा करते हैं, लोग हँसे तो मुझे उसकी परवाह नहीं।

खैर, जो भी हो, आज भी प्रतिदिन कीं तरह घर लौट कर ही चाय और टोस्ट लिया था उन्होंने, और अखबार पढ़ लेने के बाद फिर एक बार हलवा आलू-मिर्च के साथ, भरकर एक कप चाय पी थी उन्होंने। बुढ़ापे में सुबह के समय भूख जरा अधिक लगती है, मगर कहते हुए शर्म आती है, इसलिए पोतियों के टिफिन के लिए जो कुछ बनता है, अविनाश को उसकी खुशबू का पता लग जाता है।

अविनाश टिफिन में रोटी-सब्जी ले जाते थे, अविनाश के बेटे पूरी-मिठाई पर पोतियाँ पूरी निगलने को तेयार नहीं, इसलिए कुछ शौक़ीन नाश्ता, जैसे अण्डा-फ्राई, हलवा, आलू-मिर्च आदि का प्रबन्ध होता है। चौके से उसकी सुगन्ध आकर अविनाश को बेचैन कर देती। अखबार हाथ में लिये ही अन्दर की ओर जाते अविनाश। ''सुना है तुमने? मोतिहारी के पास बस दुर्घटना में एक बारात पार्टी एकदम खत्म।...'' या खुली आवाज में कहते, ''मालूम है क्या हुआ? कल एक जगह ऐसी आग लगी कि...''

ये सब खबरें शैलबाला को सुनाने के लिए ही आते क्योंकि बाकी सारी खबरें राजनीति और उसकी कूट चाल से जुड़ी होती हैं, जिनकी आलोचना शैलबाला से हो नहीं सकती। देश की समस्या से शैलबाला को कोई मतलब नहीं। चीज़ों के दाम बढ जाने पर शैलबाला शासन कर्ताओं पर आगबबूला हो जातीं और दाम थोड़ा भी घटता तो प्रसन्न हो जाती थीं। दिल लगाकर अगर कुछ सुनतीं तो वह थी ऐसी ही घटनाओं या दुर्घटनाओं की खबर।

क्या करें, इसी की आलोचना करते अविनाश। मगर जब जल्दबाजी रहती है तो शैलबाला भी कह देती है, ''रहने दो अभी, सुबह-सुबह सुनने से मन खराब हो जाता है।''

क्या अविनाश समझते नहीं कि वह 'मन खराब' वाली बात एक बहाना ही है, जल्दबाज़ी के समय समाचार पर ध्यान देने का समय ही नहीं शैलबाला के पास। अविनाश कहते, ''नहीं, मैं कह रहा हूँ आजकल आदमी का जिन्दा रहना ही एक आश्चर्यजनक घटना बन गयी है।'' थोड़ा इधर-उधर टहलकर कहते, ''अच्छी खुशबू आ रही है, हलवा बना रही हो...''

''क्या तल रही हो, अण्डा या आलू-मिर्च? बड़ी अच्छी खुशबू आ रही है।'' हाँ, तो इसी बहाने से या शैलबाला की सूझ-बूझ से ही, दूसरी बार चाय के साथ एक प्लेट नाश्ता भी मिल जाता था। आज भी खाया है उन्होंने बड़ी तृप्ति के साथ।

अविनाश जैसे मन-ही-मन दिनभर की छवि को मानस-पट पर देखते रहते, कहीं कोई कमजोरी तो नहीं झलक उठी। ऐसा तो कहीं कुछ नहीं दिखाई देता।

फिर तो वह बाजार भी गये। वह भी दूसरी बार, क्योंकि सुबह नौकर को साथ लेकर उनका बड़ा बेटा बाजार से सब खरीदकर ला देता है। फिर भी बेटों के दफ्तर जाने के बाद अविनाश बाजार की बची-खुची चीज़ों में से कुछ उठाकर लाते थे, जिन्हें वे लोग छूते भी नहीं। लेकिन क्या पोई साग, अरबी, ओल, छोटी मछली, ये सब कोई भी नहीं खाते? खाते नहीं तो बाज़ार में बिकता क्यों है? खैर, कोई न खाये, अविनाश अकेले ही खाएँगे। आजकल शैलबाला भी वही राग अलापती है, ''ये सब खाने से बदहजमी होती है। यह कोई बात नहीं हुई, अपने फैशनपरस्त बेटे-बहू की नज़र में अच्छी बनने की चेष्टा है।'' अविनाश को इन बातों की परवाह नहीं बल्कि उन बहुओं को दिखाकर ही थाली में भर-भरकर सब्जी खाते हैं वह आज भी।

इसके अतिरिक्त शाम को चाय के साथ बिस्कुट भी लिया था उन्होंने, छोटी पोती को स्कूल से ले आने की ड्यूटी भी पूरी की थी, पार्क गये थे छोटे पोते के साथ। आया 'प्रैम' में बिठाकर ले जाती है, फिर भी अविनाश साथ जाते हें। आया के ऊपर निश्चिन्त होकर छोड़ देने को तैयार नहीं वे। यद्यपि पोते की माँ मुस्कान भरकर कहती है, कितने ही बच्चे तो नौकर-आया के साथ पार्क में जाते हें, और किसके दादाजी जाते हैं पहरा देने के लिए?

कहती है तो परवाह नहीं, अविनाश जाते हैं, आज भी गये थे। उसके बाद? उसके बाद और क्या, एक-एक कर दोनों बेटे घर लौटे, उनकी चाय बनी, साथ-साथ उन्होंने भी ली। फिर और कुछ समय इधर-उधर की बात करके रात का भोजन किया और सो गये। इस बीच कहीं है किसी गड्ढे की नौबत, जिस पर पाँव रखते ही लुढ़क गये अविनाश सेन?

अविनाश ने फिर चिल्लाने की कोशिश की, गले से आवाज़ नहीं निकाल सके। इसका अर्थ यह हुआ कि पूरे शरीर में ही पक्षाघात हो गया, बीमारी के क्रूर पंजे ने जिह्वा को भी नहीं छोड़ा।

अंशघात! रोग के प्रचलित नाम को भूलकर अविनाश आयुर्वेद शास्त्र के पन्ने से उठाकर लाये यह अप्रचलित शब्द। यह शब्द 'पैरालिसिस' से कई गुणा भयंकर, कई गुणा कठोर लगता है, क्या इसीलिए...? क्या अपने दुख के परिमाण को नापने के लिए इसकी ज़रूरत हुई?

वैशाख की गर्मी का मौसम है, फिर भी शाम को आँधी-पानी होने से अचानक हवा भी ठण्डी हो गयी थी। अविनाश को जल्दी ठण्ड लग जाती है, इसलिए सिरहाने की खिड़की भी बन्द थी, सामने की मेज पर हौले-हौले टेबल फ़ैन घूम रहा था। कमरे का आकार कुछ ऐसा था कि उसमें सीलिंग फैन लग नहीं सकता था और यह सोने का कमरा था भी नहीं। वैसे पंखे की आवश्यकता पड़ती भी नहीं थी, खुली खिड़की से इतनी हवा आती कि सब कुछ उड़ा ले जाए। आज उस खिड़की का एक पल्ला बन्द था।

सोने से पहले शैलबाला ही यह सब देख-सुनकर ठीक कर गयी हैं। अधिक दूर नहीं गयी, बगलवाले कमरे में ही रहती हैं वह। इस छोटे से कमरे और उनके कमरे में दूरी ही कितनी? दोनों कमरा के बीच का दरवाजा खुला ही रहता है, उस पर एक पर्दा लटकता है।...फिर भी दूरी इतनी अधिक लगती है।

जव से बड़े बेटे की लड़कियाँ बड़ी हुई हैं, अविनाश ने एक मूल्यवान वस्तु खो दी, आयौवन की आदत-शैलबाला का सान्निध्य। उस छोटे से कारण के लिए उन्हें यह खोना पड़ा। उन लड़कियों के माँ-बाप के हिस्से एक ही कमरा है, बड़ी लड़कियों को साथ लेकर सोना आजकल सभ्यता के विरुद्ध है, अत: सभ्यता और शालीनता की रक्षा हेतु शैलबाला ने ही एक दिन यह व्यवस्था चालू कर दी।

इस प्राचीन घर के जिस कमरे में अविनाश की सुहागरात हुई थी और तब से बराबर रहते आये, उस कमरे से बहिष्कृत हो गये हैं अविनाश।

शादी में मिले उस पुराने ज़माने के विशाल पलँग पर अब शैलबाला दोनों पोतियों को लेकर मजे में सोती हैं, अविनाश सोते इसे छोटे-से कमरे में, एक पतली-सी चौकी पर।

जब पहली बार यह बात उठी तो अविनाश के सिर पर जैसे बिजली गिर पड़ी। मगर शैलबाला ने पहले से ही धमका दिया था, खबरदार, इस मामले में कोई बात नहीं कहनी है, नहीं तो शर्म से मुँह दिखाना मुश्किल हो जाएगा। अतः क्रोध, मान, क्षोभ, दुख सब कुछ मन में दबाकर जुबान पर ताला डालकर पड़े हैं अविनाश।

बड़ा लड़का जब बोल उठा, ''एक प्रकार से यह कमरा तो ज्यादा अच्छा है, इतनी बड़ी खिड़की है दक्षिण की ओर, जो आपके उस कमरे में नहीं थी,'' तब अविनाश ने समाचार-पत्र को उठाकर चेहरे के सामने लगा लिया।

और जब बहू ने कहा, ''यह कमरा आलतू-फालतू चीज़ों से भरा पड़ा रहता था, पता ही नहीं चलता था कि इतना सुन्दर है। पूरब और दक्षिण की दोनों खिड़कियों को खोल देने से तो हवा उड़ा ले जाती है।-है न बाबूजी?...''

तब अविनाश ने कहा, ''बहू तुम लोगों का धोबी कब आएगा?''

शैलबाला अवश्य ही यह सब समझती हैं। अविनाश के साँस लेने में भी कहीं कोई अन्तर हो तो भी उन्हें भीतर-ही-भीतर पता लग जाता है, परन्तु उस पता लगने की बात औरों को पता लगने नहीं देतीं, अबोध बनी रहती है।

फिर भी अविनाश ने अपनी अन्तिम करुण पुकार उन्हीं लोगों के कानों तक पहुँचाने की कोशिश की, जो उनकी बातों पर ध्यान देना विशेष आवश्यक नहीं समझते। मगर पहुँचती कहाँ? अविनाश की अविराम चेष्टा व्यर्थ होती और उनका पसीना बढ़ता जाता।

दुःख-दर्द से पीड़ित अविनाश ने जोर से रोने की कोशिश की और तब गले से एक अजीब आवाज़ निकली, जैसे कोई क्रूर जानवर कराह रहा हो।

अब अविनाश को अपनी बड़ी पोती की आवाज़ सुनाई पड़ी, ''दादी, ओं दादी। दादाजी कैसे तो चीख रहे हैं।''

इसका अर्थ शैलबाला अभी तक सुखनिद्रा में विभोर हैं। यह आवाज़ उसे नींद को भेदकर उन तक पहुँच नहीं सकी। ...उफ्!

अविनाश मात्र कुछ हाथ की दूरी पर पड़े मारे तकलीफ के तड़प रहे हैं, और शैलबाला...

फिर सीने के भीतर कुछ मरोड़ने लगा...यही ठीक है, सुखनिद्रा से जागकर सुबह शैलबाला और उनके बेटे अविनाश का मरा मुँह देखेंगे। मन-ही-मन अपने स्त्री-पुत्र के प्रति जैसे ही इस भयंकर अभिशाप को उच्चारित करने लगे, आँखो से आँसू टपक पड़े।

मगर अविनाश का अभिशाप सच नहीं हुआ। अगले पल ही शैलबाला का नीद से भारी आर्त्त-स्वर सुनाई पड़ा, ''हाय राम! क्या कह रही हो?'' तुरन्त पर्दा हिल उठा, शैलबाला की ढीली-ढाली छवि पर्दे पर दिखाई पड़ी।

अविनाश ने आँखें मूँद लीं। आँसू भरी आँखें शैलबाला को दिखाने की इच्छा नहीं हुई। बन्द आँखों से ही अनुभव किया उन्होंने, दोनों पोतियाँ भी आ गयी हैं कमरे में, उनमें से छोटी तो ''पापा पापा, चाचा चाचा'' पुकारते-पुकारते दौड़ी चली गयी बाहर।

अविनाश ने अनुभव किया, शैलबाला उनकी पतली चौकी के किनारे ही बैठकर उनके दाहिने हाथ की नब्ज देख रही है। वैद्य परिवार की लड़की और स्वाभाविक गुण से भी वह नब्ज का अच्छा शान रखती हैं, और इसके बारे में वह सचेतन भी है। किसी की तबीयत खराब होने से पहले ही आकर शैलबाला उसकी नब्ज देखती हैं।

अविनाश ने अनुभव किया कि शैलबाला ने धीरे से उनके हाथ को बिस्तर पर रखा और उन्हें झकझोरकर बार-बार पूछने लगीं, ''सुनते हो? अजी सुनते हो? क्या

तकलीफ हो रही है? बुरा सपना देखा है क्या?''

चाहते तो आँखें खोल भी सकते थे अविनाश, आँख की पलकों पर तो लकवा नहीं हुआ पर यह इच्छा हुई नहीं। हृदय से उस आन्तरिक पुकार को अनुभव करने लगे। सुनते हो? बोलो न क्या तकलीफ़ है?...इसी के साथ शैलबाला का प्रेमस्पर्श। मगर यह स्वप्निल अनुभव दीर्घस्थायी नहीं हुआ, दोनों ही बेटे आ गये। बन्द आँखों से ही अविनाश को दिखाई पड़ा ने सिल्क की लुंगी पहनी है, दूसरे ने धारीदार स्लीपिंग पाजामा। पिता की चौकी के पास आकर ज़ोर-जोर से पुकार रहे हैं, ''बाबूजी, बाबूजी।'' फिर नीची आवाज़ मे बोले, ''हुआ क्या?''

शैलबाला का जवाब सुनाई पड़ा, ''क्या पता! रिंकू ने मुझे जगाया कि दादाजी कैसे चीख रहे है, आकर कितना बुलाया पर कोई जवाब नहीं मिल रहा है।

मगर राग में यह परिवर्तन क्यों? शैलबाला की आवाज़ में पहलीवाली बेचैनी कहाँ? बल्कि पल-भर पहले की व्याकुलता की जगह आत्मविश्वास ने ले ली है। अर्थात् बेटों के सामने कमज़ोर नहीं दिखाएँगी। पति के लिए व्याकुलता, यह शैलबाला के लिए कमजोरी है। हाँ, यही सच है, पहले भी देखा है अविनाश ने।

बड़े बेटे ने एक बार फिर पुकारा, अविनाश ने जवाब नहीं। अब बेटों ने डॉक्टर की बात उठायी। किसे पता था आँखों के ऊपर की ये दो पलकें ऐसे सुदृढ़ दीवार का काम करती हैं, इनके पीछे कैसी आसानी से अपने-आप को छिपाया जा सकता है। बड़े अफसोस के साथ अविनाश को अनुभव होने लगा-सीने का वह भयंकर दर्द काफी कम हो चुका है, लगता है अब शायद बात भी कर पाएँगे, उनकी दुश्चिन्ता को फूँक मारकर उड़ा देंगे और कह उठेंगे, ''नहीं बेटा, माफ करो, अब इस बीच रात को डॉक्टर बुलाने की कोई ज़रूरत नहीं है। अभी तेरा बाप मरने वाला नहीं।''

उन्हें लगा, ऐसा कह सकेंगे, फिर भी कोशिश नहीं की, दाँतों को दबाकर आँखें मूँदे पड़े ही रहे। उन्हें स्पष्ट अनुभव हुआ कि बात करने से वे अत्यन्त सस्ते हो जाएँगे। नहीं, अभी-अभी सस्ता होने को दिल नहीं चाहता। बल्कि आँखें मूँदकर उस अवस्था का आनन्द लेंगे, ''डॉक्टर ने आकर जाँच की, बुलाने पर जवाब नहीं दे रहे हैं जानकर इशारे से अपना सन्देह व्यक्त किया, 'सेरिब्रल थेम्बोसिस' होना कोई आश्चर्य की बात नहीं। निर्देश दे दिया, बिलकुल सुलाकर रखना है। सम्पूर्ण विश्राम।''

तब? तब तो बेटे बाप के विषय में इतने उदासीन नहीं रह पाएँगे। और शैलबाला? उसे ठीक सजा मिलेगी। ऐसे मन-प्राण लगाकर दिन-भर घर सँभालकर, केवल धर्म निभाने के लिए रात को ज़रा-सा खिड़की बन्दकर पंखा चलाकर अपना कर्तव्य निभाना और पोतियों को लेकर सुख-शय्या पर सोने के लिए चले जाना बन्द हो जाएगा।

डॉक्टर की प्रतीक्षा करने लगे अविनाश, अपनी उन बन्द आँखों की दीवार के पीछे से। पर वह प्रतीक्षा असफल रही। अपने ही विचार शैलबाला के मुँह से उन्हें सुनाई दिये, ''रहने दे मुन्ना, अभी डॉक्टर बुलाने की ज़रूरत नहीं है।'' छोटे बेटे ने कहा, ''नहीं बुलाना ठीक होगा क्या?''

''होगा। मुझे लग रहा है, यह और कुछ नहीं, बुरा सपना देखकर नींद में आवाज़ बन्द हो गयी होगी। नब्ज बिलकुल ठीक है।''

वैद्य परिवार की लड़की, यह अहंकार दिखाने में चूकती नहीं। उफ्, कैसी निर्लज्ज निष्ठुरता है। बेटों के सामने अपनी महिमा बनाये रखने के लिए कितनी निर्ममता।

मारे क्रोध के अविनाश के तन-बदन में आग-सी फैल जाती, मन में बातों के तूफ़ान उमड़ते-बहुत घमण्ड हो गया है। एकदम सर्वज्ञ हो गयी हो। नब्ज ठीक है। किसने उसे ठीक रहने को कहा। अपने ही नब्ज के इस दुर्व्यवहार से फिर एक बार आँखें भर आयी। उस खारे पानी से जलन होने लगी, फिर भी आँखें खोली नहीं उन्होंने।

शैलबाला का निश्चिन्त स्वर सुनाई दिया, ''पंखा तेज कर दे तो रिंकू, और खिड़की ठीक से खोल दे...अजी सुनते हो, पानी पीओगे?'' पानी! सुनते ही अविनाश की सभी स्नायु उन्मुख हो उठीं। ऐसा अनुभव हुआ कि इस समय ठीक इसी चीज़ की ज़रूरत थी उन्हें! अब और आँख मूँदकर  रहना ठीक नहीं होगा। कहीं जवाब न पाकर पानी न दें, कहें, रहने दो, डिस्टर्ब करना ठीक  नहीं, जब जागेंगे तो पी लेंगे।

अविनाश ने आँखें खोलीं।

बड़े बेटे ने पूछा, ''बाबूजी, पानी पीएँगे?'' कितने दिन से बेटे की ऐसी आवाज़ नहीं सुनी अविनाश ने? ऐसी करुणा और स्नेह से सिंचित कोमल आवाज?

सिर हिलाकर कहा, 'हाँ'।

बड़ी पोती ने जल्दी से पानी लाकर दिया। यह भी नयी बात थी। सभी को मालूम था, दादाजी हैं दादी की चिन्ता।

छोटे बेटे ने पूछा, ''अचानक क्या हो गया?'' यह आवाज भी जैसे कितने युगों के उस पार से आयी।

अविनाश अपने दोनों हाथ उलटकर बोले, ''अचानक सीने मैं कैसा...'' कहते ही ध्यान आया,  हाथ तो अच्छी तरह ही हिला पा रहे हैं। बात भी कर पा रहे हैं। सबकी नज़र बचाकर पैर को थोड़ा-सा हिलाया, हिल गया। इसका मतलब अविनाश सेन बिलकुल ठीक-ठाक हैं।

छोटे बेटे ने पूछा, ''अब ठीक लग रहा है या डॉक्टर बुलाने की ज़रूरत है?'' डॉक्टर बुलाने की ज़रूरत है या नहीं यह बात रोगी से पूछने की नहीं है। सुनकर अविनाश को धक्का लगा। फिर आँखें भर आयीं। सिर हिलाकर बोले, ''नहीं।''

''अब शान्त होकर सोने की कोशिश करो। सीने पर हाथ रखकर मत सोना, उससे कभी-कभी  ऐसा होता है।'' शैलबाला बिस्तर के किनारे से उठकर सिकुड़े हुए चादर को सीधा कर रही थीं।  सहज भाव से बोलीं, ''एक काम कर मुन्ना, तेरे पास कोई हाजमे की दवा हो तो दे दे। लग  रहा है पेट में गर्मी हो गयी...'' ''हो ही सकता है।'' मुन्ना बोल उठा, ''देखकर मुझे भी ऐसा ही  लगा था-उम्र हो गयी है, याद ही नहीं रहता इन्हें, खाने-पीने के मामले में थोड़ी सावधानी तो  बरतनी ही चाहिए। कम-से-कम रात का खाना-आम-वाम न ही खाना ठीक है। मुझे तो उनको  खाते देखकर ही चिन्ता होती है।''

अविनाश के भीतर जैसे एक भूचाल-सा आ गया। इतने सोच-विचार, इतनी परिकल्पना के सहारे अपनी जो एक क़ीमत रखी थी उन्होंने, वह एक पल में मिट्टी में मिल गयी। अविनाश एक मामूली बूढ़े आदमी बन गये, जैसे बूढ़े अपनी क्षमता बिना जाने खा लेते हैं, बीमार पड़ते हैं और लोगों को परेशान करते हैं।

शैलबाला एक गंजी लाकर बोली, ''पसीने से भीग गयी है, गंजी बदल डालो।...मुन्ना, बुदू, तुम लोग सोने जाओ।''

मुन्ना एक जम्हाई लेकर बोला, ''अब क्या सोना। नींद के भी बारह बज गये।'' बुदू बोला, ''हाँ, बीच रात को ऐसा शोर-शराबा, मेरे ही पेट में जलन-सी हो रही है। नींद आएगी, ऐसी आशा नहीं है।'' कहा, मगर चला भी गया। यह तो नहीं कहा कि नींद जब आएगी ही नहीं तो थोड़ी देर बाबूजी के पास ही बैठ जाऊँ।

पोतियाँ तो पानी पीते देखकर ही चली गयीं। अब अकेली शैलबाला, उसके भी हिलने-डुलने से  जाने की तैयारी का पता चल जाता है।

अविनाश ठण्डी आवाज़ में बोले, ''तुम भी जा रही हो?''

शैलबाला कुछ संकुचित होकर बोलीं, ''नहीं, मुन्ना दवा नहीं दे गया। देखकर आऊँ, फिर बैठती हूँ।''

''बैठने की ज़रूरत क्या है, यहीं सो जाओ।''

शैलबाला अविनाश की पौने तीन फीट चौड़ी चौकी की ओर देखकर और भी संकुचित हो गयीं और बोलीं, ''क्या कहते हो तुम भी! बड़ा लम्बा-चौड़ा बिस्तर है तुम्हारा।''

कितने आश्चर्य की बात है, अभी कुछ दिन पहले तक भी साथ ही सोती थीं शैलबाला। हाँ, उस मैदान से विशाल पलँग पर। असल में, कुछ आदतें एक बार छूट जाने पर फिर से नहीं डाली जा सकतीं। उसमें शर्म आने लगती है-खाना,

पहनना, सोना, हर मामले में ही।

अविनाश बोले, ''एक बार ट्रेन के बेंच पर भी दोनों एक ही कम्बल ओढ़ कर...''

शैलबाला हड़बड़ाकर बोलीं, ''बस करो, वे दिन और ये दिन! अब पोतियाँ देखेंगी तो हँसेंगी नहीं? देखूँ तो मुन्ना दवा के बारे में...'' कहती हुई शैलबाला उठ गयीं।

''मैं दवा नहीं लूँगा,'' कहकर अविनाश दीवार की ओर मुँह फेरकर सो गये। शैलबाला इससे और भी निश्चिन्त हो गयीं। बेटे भूल ही गये होंगे, फिर उन्हें जगाने में शर्म आती।

ऐसे ही थोड़ी देर बैठकर, टेबल फ़ैन के स्विच को थोड़ा धीमा कर, फिर बढ़ा कर धीरे से कमरे से निकल गयीं शैलबाला।

पोतियाँ शायद जगी हों, सोच रही हों बुढ़ापे में दोनों का क्या प्रेमालाप चल रहा है। जवानी में बुजुर्गों से शर्म, बुढ़ापे में बच्चों से।

शैलबाला के जाते ही फिर से उसी घुटन का अनुभव करने लगे अविनाश। उठ कर बैठे, गंजी बिना बदले ही फिर लेट गये। और लेटे-लेटे प्रार्थना करने लगे, स्ट्रोक ही हो जाए उनको।

पक्षाघात नहीं, एकदम चरम आघात। ताकि सुबह आकर बीवी-बच्चे सिर पीट कर कह सकें-पेट की गर्मी समझकर हम चले गये, कितनी बड़ी गलती की कल।

विशेष रूप से शैलबाला। सुबह आकर, ''क्यों जी, तबीयत कैसी है?'' कहकर जब कर्तव्य पूरा  करने आएँगी और देखेंगी ज़िन्दगी-भर के लिए साड़ी, चूड़ी सब खत्म तब?

फिर एक क्रूर आनन्द का अनुभव करने की कोशिश की अविनाश ने, फिर व्यर्थ हो गये। लगातार आँसुओं की झड़ी से तकिया भीगने लगा।

अविनाश नाम का एक व्यक्ति अकेले एक कमरे में मरा पड़ा है, इस दृश्य की कल्पना से ही अविनाश का कलेजा टूक-टूक होने लगा, मानो अपने किसी निकट सम्बन्धी की मौत का दृश्य देख रहे हों। उस लिटाये हुए शव की ओर नज़र डालते ही उनका दम घुट रहा है और रोना आ रहा है, मगर उसी निर्जन, निस्तब्ध मृत्यु के लिए ही प्रार्थना किये जा रहे हैं-अविनाश सेन।

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