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ये जीवन है

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :192
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15411
आईएसबीएन :81-263-0902-4

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इन कहानियों में मानव की क्षुद्र और वृहत् सत्ता का संघर्ष है, समाज की खोखली रीतियों का पर्दाफाश है और आधुनिक युग की नारी-स्वाधीनता के परिणामस्वरूप अधिकारों को लेकर उभर रहे नारी-पुरुष के द्वन्द्व पर दृष्टिपात है।

 

सजा


उस भयंकर और गन्दे समाचार के फैलते ही आग-सी फैल गयी हरिजन बस्ती के इस छोर से उस छोर तक।

''रे-रे'' कर निकल आये बस्ती के सारे जवान भाई। सर से ऊपर तक लम्बी ये लाठियाँ पता नहीं कहीं छिपा रखी थीं। जो पल-भर में उनके हाथों में आ गयीं। काले पत्थर जैसे शरीर, हाथ में लाठी लिये ऐसे भागे आ रहे हैं जैसे एक भयंकर आँधी हो। दौड़े चले आ रहे हैं आदिम अरण्य के अन्धकार से।...अब वे विच्छिन्न नहीं हैं। गरीब बस्ती की छोटी-छोटी खोली के अलग-अलग वाशिन्दे नहीं हैं। इस समय वे केवल एक अखण्ड प्रतिज्ञा हैं। तीव्र कठोर भयंकर वह प्रतिज्ञा आकर टकरायी। टकरायी पंजेवाले शेर के मस्तक लगे महल के विशाल सिंह-दरवाज़े के द्वार से।

झनझनाकर काँप उठा वह सिह-द्वार, काँप उठी महल की नींव से छत तक। आँधी की सूचना पाते ही सिंह-द्वार पर मौजूद दरबान रात में लगाने वाले बड़े-बड़े ताले लटकाकर भीतर आ गये हैं। बन्दकर दिये हैं उन लोगों ने सारे महल के अनगिनत खिड़की-दरवाज़े। उस विशाल महल में बिखरकर रहनेवाले सारे लोगों ने सबसे सुरक्षित एक मध्यवर्ती कमरे को चुन लिया है। वहीं सब मिलकर गुट बनाकर थर-थर काँप रहे हैं। झुण्ड बना रहे हैं पर शोर नहीं कर रहे हैं। किसी के मुँह में चूँ तक नहीं है। चेहरों पर डर और घबराहट लेकर अन्दाज लगाने की कोशिश कर रहे हैं-क्या कहना चाहते हैं वे अछूत हरिजन लोग।...थोड़ी देर कान लगाकर सुनते ही पता चल गया है सभी को।

कहना कुछ नहीं चाहते वे लोग, वे चाहते हैं एक बेहद ही क़ीमती चीज़! वह कीमती चीज़ है-हाल में ही स्वर्गवास हुए नरनारायण राय के युवा पुत्र इन्द्रनारायण का मस्तक।

उसी की माँग करते हुए वे लोग करीब डेढ़ आदमी के समान ऊँचे लोहे के गेट को झकझोरकर तोड़ डालने की चेष्टा में लगे हुए हैं। अब वह चेष्टा छोड़कर गेट फाँदकर भीतर आ रहे हैं!

बागदी, कहारों के लड़के उनकी धमनियों में लठैतों का शोणित प्रवाहित हो रहा है।

परन्तु केवल घण्टे-दो घण्टे पहले भी ऐसे दुस्साहस पूर्ण कार्य करने की वे सोच भी नहीं सकते थे।...राजा-प्रजा की परिकल्पना समाप्त हो जाने पर भी वे आज भी इस शब्द को अपनी चमड़ी के भीतर परम श्रद्धा के साथ पालते आ रहे हैं। तभी तो इस प्रासाद के साथ उनका बर्ताव विनीत, बाध्य प्रजा की तरह ही है। अभी हाल ही में तो नरनारायण के समारोह पूर्ण श्राद्धकर्म में बिना बुलाये ही जी-जान देकर काम कर गये हैं ये लोग, जितना अछूतों के करने योग्य था।

परन्तु अभी उनकी धमनियों में बरसों से सो रहा लठैत सरदारों का खून खौल रहा है। इस खौलने का ईधन जुटाया है इन्द्रनारायण नामक वंश के कुलांगार ने, शराबी, चरित्रहीन, निष्ठुर उच्छृंखल इन्द्रनारायण ने।

जब तक नरनारायण जीवित थे तब तक उसकी हिम्मत इतनी बढ़ी न थी, केवल दबे-छिपे सुरंग के भीतर से होकर अपनी गन्दी वासना पूरी कर लेता था वह। अपने असली रूप में आ गया है नरनारायण की मृत्यु के बाद।

जमींदारी उठ गयी और उस पर आधारित एक मोटी रक़म की आय भी रुक गयी, फिर भी पैसों की कमी नहीं हुई इन्द्रनारायण को। क्योंकि कई कोलियरी और चाय बागान के मालिक थे नरनारायण।

वे सभी बागान और कोलियरी अब भी अच्छी तरह से चालू हैं। हालाँकि इनमें से अधिकतर महालक्ष्मी देवी के नाम पर हैं। सारा उनके कुलकलंक के हाथ नहीं लगा। पर जितना भी लगा वह उसके स्वेच्छाचारी होने के लिए कम नहीं है।

इसके उपरान्त भविष्य का भरोसा तो है ही।

न कोई भाई है, न कोई बहन ही। महालक्ष्मी कोई अनन्तकाल तक जमकर बैठी तो नहीं रहेंगी। ऐसे ही तो हमेशा से व्रत-उपवास, पूजा-पाठ, जप-तप से क्षीण-मूर्ति हैं, उस पर विधवा हो जाने के उपरान्त इनकी मात्रा बढ़कर उन्हें और भी जर्जर कर गयी है।

हितैषियों की बात हँसकर टाल देती हैं, इसीलिए उनमें से एक ने महालक्षी के गुरुदेव से कहलवाया था। गुरु ने पूछा था, ''इस तरह अपने शरीर को कष्ट क्यों दे रही है? इतने उपवास क्यों माँ?''

गुरुदेव की बात हँसकर उड़ायी नहीं जा सकती। उनकी तरफ एक बार आँख उठाकर महालक्ष्मी ने कहा था, ''प्रायश्चित्त कर रही हूँ बाबा। इन्द्र के जैसे बेटे को कोख में पालने का पाप किसी छोटे प्रायश्चित्त से कटेगा क्या? आशीर्वाद दीजिए कि अगले जन्म में भगवान मुझे बन्धया करके भेजें।''

खैर, ये सब बातें इन्द्रनारायण के कानों तक नहीं पहुँचीं। पहुँचने की बात भी नहीं है। मगर मालती से कभी-कभी सुनने को मिलता है कि जिस तरह से माँ का व्रत-उपवास बढ़ता जा रहा है, पिता के पास पहुँचने में देर नहीं लगेगी।

उस समय कभी तो इन्द्र इतनी बनकर उपदेश देता है, इतना सब करने का कोई अर्थ नहीं है। अब तक तो इतने व्रत-उपवास करती आयी, कर सकी अपने सुहाग की रक्षा?

आत्मा को इस तरह तड़पाना मूर्खता है।

महालक्ष्मी मुस्कुराकर बोलतीं, ''मूर्ख औरत मूर्खता ही करेगी, इसमें आश्चर्य क्या है बेटा?''

फिर भी पूजा के प्रसादी फूल, प्रसाद, चरणामृत सब कुछ का पहला भाग बेटे के नाम से ही तो उठाकर रखती हैं।

अधिकतर 'बाँसबेड़े' छोड़कर कोलकाता जाकर बैठा रहता है इन्द्रनारायण। शुरू-शुरू में जिद करके मालती साथ में जाती थी। कहती थी, ''हवागाड़ी में चढ़कर आना-जाना, कोलकाता में तुम लोगों का इतना सुन्दर विलास-भवन है, मैं ही क्यों अकेले पड़ी रहूँ यहाँ? मैं भी जाऊँगी।''

इन्द्रनाथ ने रोकने की कोशिश की, माता-पिता की दुहाई दी, माँ नाराज़ होंगी, पिताजी क्रोधित होंगे।

मगर मालती ने यह दलील टिकने नहीं दी। उनकी प्रसन्न अनुमति लेकर दिखा दी उसने। नरनारायण ने कहा, ''अच्छा ही तो है, बहुत अच्छा।''

''कोलकाता में देखने को कितना कुछ है। जाओ देखो, यह तो खुशी की बात है। दो-एक दासी को साथ रख लेना।''

और महालक्ष्मी?

वह तो स्वयं ही शुरू से पीछे लगी हैं, ''तुम साथ रहोगी बहू तो उसके बिगड़े यार-दोस्त उसका आर्थिक नुकसान नहीं कर सकेंगे।''

मगर थोड़े दिन आने-जाने के बाद मालती स्वयं ही जाने से कतराने लगी। कोलकाता का नाम ही नहीं लेती। पूछने पर कहती, ''अब जाकर क्या करूँगी। सब तो देख ही चुकी हूँ।''

नरनारायण चुपके से महालक्ष्मी से पूछते, ''वहाँ अकेले पाकर मुन्ना बहू को डाँटता तो नहीं? तुम्हें क्या लगता है? तुमसे कुछ कहती है क्या?

महालक्ष्मी मृदु हँसी हँसकर कहतीं, ''औरतें अपने मन की बात औरंतो से कब करती हैं भला?''

''उसे अपनी बेटी समान ही देखती हो तुम तो।''

''बेटी समान।''

महालक्ष्मी वैसे ही हँसकर बोलीं, ''अपनी बेटी तक नहीं कहती है। हर बात कही नहीं जाती है।''

''मगर यह सब तो पुरानी बात है।''

अभी नरनारायण की मृत्यु के उपरान्त इन्द्रनारायण के कोलकाता भागने का शौक कुछ कम हुआ है। जैसे कि कर्ता का पद अधिकार में आ जाने पर उस अधिकार के स्वादग्रहण में बड़ा मजा आ रहा हो।

पहले लगता था, प्रति पल आँखों की एक जोड़ी इन्द्रनारायण के तन पर चुभ रही हैं। उस तीखे दृष्टि-बाण से बचने के लिये ही और भी भागने की इच्छा होती थी। अब वह चुभन नहीं, अब निरंकुश स्वाधीनता है।...

अत: मालती के भाग्य में पति का दर्शन अब पहले जैसा दुर्लभ नहीं है। मालती इतने में ही कृतज्ञ है। इस कारण महालक्ष्मी भी थोड़ी निश्चिन्त हैं।

महालक्ष्मी बेटे के लिए सजाकर रखा हुआ प्रसादी फूल, मिठाई, चरणामृत, होम का टीका सब मालती के पास रख छोड़ती हैं।...कब उनका बेटा आए-जाए, बहू याद करके दे देगी।

आज भी एक चमकीली चाँदी की थाली में प्रसादी फल मिठाई सजाकर पूजा के कमरे से बाहर आ रही थीं कि अचानक वह 'रे-रे-रे!' दिल पर एक धक्का-सा लगा।

ठिठककर खड़ी हो गयीं महालक्ष्मी।

अचानक इस समय यह कैसा शोर?

आदमी की आवाज़ है या बिजली गिरने की? बहुत ज़माने पहले एक साम्प्रदायिक दंगे के समय ऐसे ही दिल कँपा देनेवाली ध्वनि उठी थी अचानक ही। फिर वैसा ही कुछ? आगे बढ़ीं किसी को पूछकर पता करने के लिए, मगर कहाँ कोई है? कमरे, बरामदे, आँगन सब खाली कहीं कोई नहीं है। केवल दरवाजे धड़ाधड़ बन्द करने की आवाज़ सुनाई दे रही है।

अवश्य ही फिर उसी तरह दंगा छिड़ गया।...मगर किसके साथ किसका? अब तो एक ही सम्प्रदाय का राज है। इसलिए दंगा कैसा?

चिन्तित महालक्ष्मी ठाकुर-बाड़ी के इलाके से भीतर के दालान पर आ गयीं तेजी से और हैरान हो गयीं-घर के लोग दालान के भीतरवाले कमरे में एकजुट होकर खड़े हैं।

परिवार के मूल वृक्ष में एक ही शाखा है, पर आस-पास शाखाएँ अनेक हैं। आश्रित नहीं, सम्बन्धी नहीं, कुछ भी नहीं, ऐसे अनेक लोग हैं इस घर में और हैं दासी, नौकर-चाकर भी।

महालक्ष्मी दरवाजे पर आकर खड़ी हुई। पल-भर में वहाँ पर श्मशान की स्तब्धता छा गयी।

अब तक भी तो सब चुप ही थे मगर यह स्तब्धता कुछ और है। केवल श्मशान से ही उसकी तुलना हो सकती है।

महालक्ष्मी ने उस जन-समावेश की ओर देखकर कहा, ''क्या हुआ है? इतना शोर कहाँ हो रहा है?...कहीं आग तो नहीं लगी?''

प्रश्न सबके लिए है, अत: जवाब देने का उत्तरदायित्व किसी का भी नहीं। सब चुपचाप एक-दूसरे का मुँह देखने लगे।

उधर गेट फाँदकर अन्दर आयी हुई उत्तेजित भीड़ तब तक बाहर के आँगन तक पहुँच चुकी थी। उनका शोर-शराबा स्वयं ही अपने आपको विशद रूप से प्रकाशित कर बैठा।

हरिजन बस्ती के हरिजन भड़क उठे हैं।

क्यों भड़क उठे हैं?

यह कोई नहीं बता सकता है।

महालक्ष्मी इस जटिल रहस्य का अर्थ नहीं समझ पायीं इसलिए एक दासी को बुलाकर उन्होंने पूछा, ''मुन्ना कहाँ है?''

किसी ने दबी आवाज़ में कहा, ''ऊपर अपने कमरे में।''

''बहूजी?''

''वहीं पर।''

महालक्ष्मी का दिल काँप उठा।

पता नहीं क्यों उन्हें लगा उस समुद्र गर्जन जैसे प्रबल गर्जन के साथ मुन्ना का कोई सम्पर्क है।

बोलीं, ''बुलाओ तो उसे।''

किसी का नाम लेकर नहीं-कहा उन्होंने फिर भी रिश्ते की एक भानजी धीरे-धीरे सीढ़ी की तरफ बढ़ी।

फिर थोड़ी ही देर में अकेले ही लौट आयी। बोली, ''इन्द्र भैया के सर में दर्द हो रहा है, भाभी सर दबा रही हैं।''

महालक्ष्मी ने फिर एक बार नज़र दौड़ायी कमरे में खड़े सब की ओर, पूछने लायक है भी कौन?

फिर भी दृढ़ स्वर में बोलीं, ''महल के खिड़की-दरवाज़े किसने बन्द किये?''

बूढ़ा दरबान रामलगन कहीं से निकल आया, बोला, ''जी माई जी हम!''

''अचानक यह पागलपन क्यों? बाहर का गेट खुला छोड़ दो।'' अन्दर आकर उसने कहा, ''जी  माई जी गेट पर तो डबल ताला लगा हुआ है।''

''फिर?'' लगता है अहाते के भीतर से शोर उठ रहा है।

अब पुराना नौकर दीनदयाल बोल उठा, ''शैतान लोग उस ऊँचे गेट को फाँदकर भीतर आ गये हैं माँजी।''

''मगर वे हैं कौन?''

''जी, हरिजन बस्ती के हरिजन लोग।''

''हरिजन लोग?''

महालक्ष्मी चुप हो गयीं, फिर बोलीं, ''क्या चाहते हैं वे लोग?''

''क्या चाहते हैं!''

जो चाहते हैं वह एक ही साथ कई लोगों के मन में शायद उच्चारित हुआ। पर बाहर तक वह आवाज़ नहीं आयी।

कौन कहैगा महालक्ष्मी के सामने यह बात!

तुम लोगों को देखकर लगता है तुम सब गूँगे और बहरे हो। पूजा-घर से ही शोर सुनाई दे रहा था काफी देर से, मगर तुम लोग तो इधर ही थे न?

''रामलगन, ये लोग ऐसे भड़क उठे क्यों, पता नहीं?''

रामलगन ने धीरे से सिर हिलाया।

''जानने की कोशिश नहीं की?''

रामलगन ने सिर नीचा कर लिया।

''बूढ़े होकर तुम्हारी हिम्मत एकदम चली गयी है रामलगन!''

दृढ़ स्वर में महालक्ष्मी बोलीं, ''चलो मेरे साथ, बैठक घर का दरवाज़ा खोल दो। मुझे खुद ही पता करना होगा।''

''अरे बाप रे।'' महालक्ष्मी के रिश्ते की एक विधवा ननद सिहर उठी, ''ऐसा भयंकर काम कभी मत करना बहू। वे सब एकदम पागल भेड़िए की तरह...''

बात समाप्त होने से पहले ही किसी एक दरवाजे पर दमादम लाठी की चोट पड़ने लगी।

पड़ती ही गयी।

महालक्ष्मी के चेहरे पर अचानक जैसे हल्की हँसी बिखर गयी।

बोलीं, ''अब बाक़ी भी तो कुछ नहीं रहा ननद जी, नहीं खोलने से वे तो दरवाजा तोड़कर अन्दर आ जाएँगे। सुन रही हो न ऊपर के बरामदे पर ईंटें फेंकी जा रही हैं?...''

''रामलगन, बैठकखाने के दरवाजे पर भीतर से ताला लगा है क्या?''

''जी हाँ।''

''चाभी मुझे दे दो।''

''माई जी!''

''आह रामलगन! बेवकूफ की तरह देर मत करो। ऐसे ही काफी देर हो गयी

है। हमेशा से शान्तिप्रिय ये लोग अचानक ही इतना भड़क क्यों उठे, यह जानने की कोशिश किये बिना ही तुम लोगों ने उनके मुँह पर गेट बन्द कर दिया! दो चाभी...''

यह हुकुम टालने की हिम्मत रामलगन में नहीं थी। मगर यह कहने की भी हिम्मत नहीं थी कि कह दे, ''वे लोग क्यों भड़क गये हैं यह खबर हम जान चुके हैं माँजी, केवल आपको कहने की हिम्मत नहीं होती।''

रामलगन कमर में बँधी चाभी के गुच्छे से एक मोटी से चाभी निकालकर भारी आवाज़ में बोला, ''चलिए हम ही खोल देते हैं।''

''नहीं।''

महालक्ष्मी और भी गम्भीर हो गयीं। बोलीं, ''तुम खोलोगे तो लाठी की पहली चोट तुम पर पड़ेगी।''

उपस्थित सारे लोग घबराकर चीख उठे।

''और आप? आपके ऊपर...''

महालक्ष्मी धीरे से हँसी। बोलीं, ''मेरे ऊपर नहीं पड़ेगी।''

बैठकखाने के दरवाजे पर ही लाठी की चोट पड़ रही थी। महालक्ष्मी दरवाजे के इस ओर से चिल्लाकर बोलीं, ''अरे तुम लोग अपनी लाठी को एक बार रोको बेटा, दरवाजा खोलने दो।'' भड़के हुए जंगली भेड़िये भी अचानक यह स्वर सुनकर चौंककर रुक गये।

विशाल दरवाजे को सपाट खोलकर खड़ी रहीं महालक्ष्मी।...स्थिर, अचंचल।

दूध-सफेद रेशम की थान से लिपटी दूध जैसी रंगत, लम्बी छरहरी यह मूर्ति जैसे मोमबत्ती की  शिखा बनकर दमक रही थी, जैसे बन्द स्तब्ध कमरे में जल रही बाती की निष्कम्प शिखा।

पल-भर के लिए स्तब्ध हो गयीं वे पथरीली मूर्तियाँ भी।

महालक्ष्मी दरवाजे की चौखट के बाहर क़दम रखकर आगे झुककर बोलीं, ''क्या हुआ है?''

किसी के मुँह से कुछ नहीं निकला।

महालक्ष्मी थोड़ी देर रुककर फिर बोलीं, ''क्या बात है? कुछ कहोगे तब तो...''

फिर भी सब चुप रहे।

महालक्ष्मी ने अनुमान किया कि अपराधी उनका बेटा ही है। महालक्ष्मी के मुँह पर ये लोग कह नहीं पा रहे हैं।...जैसा घमण्डी, उद्दण्ड लड़का है, ज़रूर किसी को चाबुक से मारा होगा या कोई अभद्र गाली दी होगी। बागदी के लड़के सब सह सकते हैं केवल अपमान नहीं सह सकते।

महालक्ष्मी को यह बात मालूम है। इसलिए उन्होंने सीधा प्रश्न किया, ''क्या किया है दादाबाबू ने?''

''क्या किया है दादाबाबू ने?''

''क्या किया है दादाबाबू ने?''

कौन कह सकेगा यह बात? जो लोग भीम गर्जन से 'दादाबाबू' नामक व्यक्ति के मस्तक की  माँग कर रहे थे, वे भी अचानक गूँगे हो गये।

कोई किसी की ओर नहीं देख रहा है। सबकी आँखें धरती पर टिकी हैं। महालक्ष्मी ने अपना प्रश्न दोहराया। सबल तेजदीप्त कण्ठ से बोलीं, ''डरने की कोई बात नहीं, बोलो क्या किया है उसने?''

मगर यह प्रश्न करने के क्षण-भर पहले भी क्या सोचा था उन्होंन कि ऐसा भयंकर, बीभत्स उत्तर उनके मुँह पर आकर चोट करेगा!

महालक्ष्मी को दरवाजा खोलकर बाहर आते देखकर जो भयंकर ताण्डव अचानक निश्चल हो गया था, अब वह पूरे वेग से फूट पड़ा।

इसी के भीतर से एक टूटी-फूटी भयंकर आवाज़ कठोर स्वर में बोल उठी, ''निकाल दे उस कुत्ते को। उसकी मुण्डी को नाखून से चीरकर रख दूँ।...मेरी नन्ही-सी लाड़ली को उस कुत्ते ने...''

अचानक जोर-जोर से चीख मारकर रो उठा वह आदमी, ''चम्पा मेरी अभी तक चौदह भी नहीं पार की थी, अभी तो शादी की बात शुरू की थी, मेरी उस सोने की गुड़िया को-आमबागान में अकेले पाकर वह राक्षस उसे एकदम-अरे बाप रे। मेरी लड़की मरकर काठ-सी पड़ी है, मुँह से झाग निकल रहा है।''

''अरे बाप रे!'' अचानक अपनी छाती पर जोर-जोर से घूँसे मारने लगा वह और दालान पर चढ़ गया। बोला ''गरीब का थाना पुलिस नहीं होता माँजी। उस शैतान को मैं कुत्ते से  खिलवाऊँगा, आग में झोंक दूँगा। उसे निकाल बाहर कीजिए। वह आपका बेटा नहीं, दुश्मन है।''

निष्कम्प मोमबत्ती की शिखा पल-भर के लिए काँप उठी। फिर उसने स्थिर कण्ठ से उच्चारण किया, 'रामलगन, जाओ दादाबाबू को ला दो।''

''दादाबाबू को ला दो!''

यह कैसी भयंकर बात है।

''बुला दो नहीं, ला दो।''

अर्थात इन भूखे भेड़ियों के सामने फेंक दो उसे लाकर।

रामलगन हिला नहीं।

फिर वही कठोर आदेश उच्चारित हुआ, ''रामलगन खड़े क्यों हो? जाओ ले आओ।''

लाचार होकर आदेश पालन करने के लिए जाना पड़ा उसे। मगर थोड़ी ही देर में आकर सर झुकाकर जो कहा उसने उसका अर्थ हुआ-कमरा भीतर से बन्द है। किसी ने खोला नहीं, आवाज़ तक नहीं दी।

''ओह?''

''भीतर से कमरा बन्द है।''

महालक्ष्मी एक अजीब यान्त्रिक स्वर में बोलीं, ''बन्द दरवाज़ा कैसे खोला जाता है, यह तुम जानते नहीं क्या? बाप-दादा से सीखा नहीं था कभी?''

''ठीक है। ये लोग जानते होंगे।...आओ, तुम सब चलो मेरे साथ। दरवाजा तोड़कर अपने असामी को ले जाओ।''

''माई जी।'' रामलगन का आर्तस्वर वातावरण में गूँज उठा।...साथ ही और भी अनेक स्वर।

''माँ।''

''बड़ी माँ।''

''नानी माँ।''

''बहू। पागल हो गयी क्या?''

महालक्ष्मी उसी कठोर स्वर में बोली, ''पागल हो जाती तो दोष नहीं दे सकती, ननद  जी?...मगर मैं पागल नहीं हुई, बिलकुल ठीक हूँ। अत्यधिक स्वस्थ हूँ। कहाँ गये? आओ तुम  सब?''

इस पुकार को सुनकर आ गये क्या वे लोग? ऐसा नहीं हुआ।

उनमें से दो-चार ही दालान पर आ गये थे, मगर चौखट पार नहीं कर पाये थे, झिझककर वहीं खड़े हो गये।

महालक्ष्मी उधर देखकर दृढ़ स्वर में बोली, ''डरने की जरूरत नहीं, आ जाओ! मैं हुकुम दे रही हूँ।''

मगर फिर वे लोग चुप हो गये। और जो ऊपर नहीं आये थे, वे नीचे स्वर में कुछ बड़बड़ाने लगे और कन्धे से गमछा उतारकर चेहरा पोंछने लगे।

महालक्ष्मी ने किसी के चेहरे की ओर नहीं देखा। घर के लोगों की ओर नहीं, उधर के लोगों की ओर नहीं। जैसे अदृश्य किसी के सामने खड़ी होकर निर्देश दे रही हों।

''क्या हुआ?''

उनके स्वर में अधीरता थी।

''ले जाओ तुम लोगों के अपराधी को। कुत्तों को खिलाओ, आग में जलाओ, जो दिल में आये, करो। कोई नहीं रोकेगा।''

''माँ जी।''

वही निस्तब्धता फैली थी।

एक बूढ़ा-सा आदमी आगे आकर हाथ जोड़कर बोला, ''बेटी के शोक में किस्टो का दिमाग खराब हो गया है, क्या बोल गया कसूर नहीं मानिए, माँजी।''

''कसूर?''

महालक्ष्मी का यान्त्रिक स्वर किसी तीखे यन्त्र की तरह हवा को चीरते हुए जैसे आसमान में पहुँच गया, ''तुम्हारा क्या कसूर? ज़िन्दगी-भर दुनिया भर का सारा कसूर अपने सिर पर लेकर तुम लोग बदमाशों की हिम्मत बढ़ाते रहे। मगर सजा तो उसे लेनी ही पड़ेगी।...उसे तुम्हारे सुपुर्द, किये बिना मुझे चैन नहीं है।...ठीक है, मैं ही जाती हूँ। देखूँ तो, दरवाजा खुलवा सकती  हूँ या नहीं-।''

महालक्ष्मी मुड़कर खड़ी हुईं मगर वह बूढ़ा उनके और करीब आकर बोला, ''सजा उन्हें मिल गयी है माँजी, हमलोग जाते हैं। किस्टो को समझा लेंगे। भगवान नहीं मारे तो आटमी की क्या मजाल कि उसे मार सके। भगवान ने ही उसे मार रखा था।''

धीरे-धीरे भीड़ हल्की हो रही थी-अब खाली हो गया।...दो-तीन लोग उस अभागे किस्टो को पकड़कर धीरे-धीरे कुछ समझाते-समझाते ले गये।

घर के लोग भी तितर-बितर हो गये। अब नीचे उतरी है मालती, पीछे है भरोसा देने वाली वही विधवा बुआसास। विपत्ति टल गयी देखकर वही शायद हिम्मत दिलाकर ले आयी है।

मालती के बाल बिखरे हुए, कपड़े अस्त-व्यस्त, चेहरा इतना लाल जैसे खून फट पड़ेगा। तीखे स्वर में चिल्लाकर बोली, ''माँ। माँ होकर आप उन्हें बुलाकर उन खूँखार भेड़ियों के सुपुर्द करना चाह रही थीं?''...

महालक्ष्मी अब दीवार से पीठ लगाकर खड़ी हैं।

उस आग बरसाते चेहरे की ओर देखकर बोलीं, ''जरूर चाह रही थी बहू। माँ हूँ, तभी तो चाह रही थी।''

तीव्र स्वर में मालती बोली, ''कैसे चाह रही थीं माँ? आपने उन्हें कोख में नहीं धरा था?''

थके निराश स्वर में महालक्ष्मी बोलीं, ''कोख में रखा था, तभी तो इतनी सजा पा रही हूँ, बहू।''

''क्या पता, आपके कहने का अर्थ क्या है। मैं तो बन्द दरवाजे से बक्से लगा-लगाकर उस पर खुद बैठकर थर-थर काँप रही थी और सोच रही थी, मुझे मारे बिना उन्हें छू नहीं सकेंगे।...ये तो चले गये, अच्छा हुआ, नहीं तो? अगर पकड़ लेते?''

महालक्ष्मी और भी थके अन्दाज में बोलीं, ''पकड़ लेते तो शायद अच्छा ही

होता, बहू।''

''अच्छा होता?''

अजीब निरासक्त भाव से महालक्ष्मी बोलीं, ''वे चले गये तो खून का हिसाब भी चुकता हो गया क्या? देश में क़ानून-अदालत अभी है।''

क़ानून!

विधवा ननद बहू को पीछे करते हुए व्यंग्य से बोली, ''क़ानून की बात रहने दो बहू! कानून तो 'हाँ' को 'ना' और 'ना' को 'हाँ' करने के लिए ही होता है। अदालत में आसानी से प्रमाणित कर दिया जाएगा कि मुन्ना दो दिन यहाँ था ही नहीं, कोलकाता गया था।''

महालक्ष्मी भी हँसीं।

विषाद भरी, क्लान्त, निरासक्त अजीब-सी हँसी।

''कैसे प्रमाणित करोगी ननद जी? सबसे पहले तो मुझे ही गवाही के लिए बुलाएँगे।''

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