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तुलसी

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : गंगा प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :72
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15410
आईएसबीएन :81-8113-018-9

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आशापूर्णा देवी का लेखन उनका निजी संसार नहीं है। वे हमारे आस-पास फैले संसार का विस्तारमात्र हैं। इनके उपन्यास मूलतः नारी केन्द्रित होते हैं...

17

तुलसी ने कहा, 'सुखेन कहता है कि बुआ की धमकियों की परवाह नहीं करता वह।'

'अभी कह जरूर रहा है, पर तुम देख लेना, समय आने पर, बुआ वहीं रहेगी और सुबह-शाम झाड़ू मारेगी पहले, बात करेगी बाद में। मैं बिल्कुल अकेला, किसी का न डर न भय। कहीं कोई बोलने वाला भी नहीं।'

'वैसे, बहू की देखभाल करने वाला भी कोई नहीं है तेरे।'

आत्मविश्वास से भर राजेन जवाब देता है, 'कोई' की जरूरत क्या है? जो करना है मैं ही करूँगा। दिखा दूँगा, देख भाल करना किसे कहा जाता है। कितने दिनों से मैं, कहना तो चाहिये होश सम्भालते-सम्भालते ही मैं....'

'चुप हो जा राजेन। मेरा दिमाग सुन्न हुआ जा रहा है।'

झक मार कर राजेन को चुप होना ही पड़ता है।

तुलसी का दिमाग सुन्न पड़ रहा है?

यह तो कोई छोटी-मोटी बात नहीं। मालूम नहीं कैसे, कुछ लोग ऐसे मुहूर्त में जन्म लेते हैं कि लोग बिना वजह ही उनसे डरते हैं, उनका खौफ खाते हैं।

भिखमंगे की लड़की भी राजेन्द्राणी की भूमिका लेती है।

'चलता है तो चल मेरे साथ। चलूँ देखूँ फिर कोई पापी मेरे घर पर डटा तो नहीं है।'

तुलसी का अन्दाज गलत नहीं था। दूर से ही उसके घर के चबूतरे पर किसी की लम्बी काली परछाइँ दिखाई पड़ रही थी।

'राजेन चले मत जाना, 'तुलसी ने कठोर स्वर में कहा, 'दे तो वह ईंट उठाकर मुझे। तू अभी जाना मत।'

उसकी आवाज सुन छाया हिल उठती है। सुनाई पड़ता है, 'अरे, अरे! मैं हूँ।'

'तू? इतनी रात गये तू यहाँ क्यों?'

'क्यों? आया हूँ तुझसे वचन लेने।'

तुलसी का धीरज टूट गया। धम्म से वह उस चबूतरे पर ही बैठ गई। बोली, 'तुम तीनों की आखिर मंशा क्या है? मैं द्रौपदी हो जाऊँ?'

पहुँचने की बात है आठ बजे। पर करीब रोज ही साढ़े आठ बज जाते हैं।

नर्स मनोरमा मण्डल आँखें तरेर कर कहती हैं, 'रोज-रोज इतनी देर लागने से तो काम नहीं चलेगा तुलसी। आजकल तुम्हें हो क्या गया है? तुम्हारी नींद इतनी बढ कैसे गई?'

दवा के पानी में जल्दी-जल्दी हाथ धोते-धोते तुलसी जवाब देती है, 'नींद क्यों बढ़ने लगी मेरी? नींद बड़े दुश्मन की! बताया तो था मैंने कि मैंने एक पार्ट-टाईम काम और ले लिया है।'

मनोरमा मण्डल कड़क कर बोली, 'तुम्हारी पार्ट टाइम की ड्यूटी पूरी कर यहाँ आने की बात तो यहाँ के ऊपर वाले नहीं सुनेंगे।'

तुलसी ने हँसकर जवाब दिया, मेरी ऊपर वाली तो आप हैं। आपके सुनने से ही मेरा काम बनेगा।'

किसी जमाने में डाक्टर घोष की अनुग्रह प्राप्त थी मनोरमा मण्डल को। फिलहाल वे परित्यक्ता हैं। स्वभावत: ही वे तुलसी से सर्वदा खार खाये रहती हैं।

पटरी बैठे या न बैठे, औरतों को अपनी गन्ध मिल ही जाती है। गन्ध मनोरमा मण्डल को भी मिली है। और नाक में महक आने के बाद से ही वे बहाना पाते ही तुलसी के नाम कमप्लेन करती रहती हैं।

आज भी कर दिया।

धौंस जमा कर वे बोलीं, 'यही सब पार्ट टाइम, वार्ट टाइम का बहाना बड़ी मिस के आगे बनाया करो। तुम्हारें रंग-ढंग से लगता है कि यहाँ की नौकरी अब तुम्हारी जाने ही वाली है।'

तुलसी उठ खड़ी हुई। व्यंग्य से बोली, 'लग मुझे भी रहा है।'

'तुम्हें भी लग रहा है?' भौंहें सिकोड़ती माथे पर बल डालती नर्स मनोरमा मण्डल बोलीं, तुम्हें भी लग रहा है ऐसा?'

'जी।' तुलसी ने फिर कटाक्ष किया। 'जब से आप मेरी ड्यूटी देने के मामले में इतनी सजग हो गईं हैं।'

'तुम्हारे कहने का मतलब यह है कि मैं हम्हारी नौकरी खत्म करने के फेर में हूँ?'

मुस्कराई तुलसी। बोली, हो सकता है। ताज्जुब क्या है?'

'हूँ।'

मनोरमा मण्डल ज्वालामुखी-सी फट पड़ती हैं। कहती हैं, 'जो सुनाई पड़ रहा है, वह फिर सच ही है। न होता तो इतनी हिम्मत कहाँ से आती तुममें? नौकरी तो जब खत्म करना होगा; करूँगी, फिलहाज तुम्हारी गफलत और तुम्हारे चरित्र के विषय में जो कुछ सुनने में आता है सारी रिपोर्ट किये दे रही हूँ।

अद्युत शान्त-स्वर में तुलसी बोली, 'हाय मण्डल दीदी, उस पर भी रिपोर्ट दर्ज कराया जा सकता है? यह तो आपने खूब बताई! मुझे तो मालूम ही न था। ठीक है, जब आप उस रिपोर्ट को लिखने लगें, मुझे जरा बताइयेगा, दो-चार नाम उसमें मैं भी जोड़ दूँगी।'

'इतनी जुर्रत? तुम मुझसे मजाक करने चली हो!' पाँव पटकती मनोरमा मण्डल, बोली 'आज ही तुम्हे डिसमिस कराने का इन्तजाम कर रही हूँ।'

कारिडोर पार होते-होते तुलसी एक तीर और मार गई। वह बोली, 'आपको तकलीफ करने की जरूरत नहीं होगी, मण्डल दीदी। मैंने अपनी मेहनत बचा दी है। नौकरी छोड़ने की नोटिस मैंने दे दी है।'

'नोटिस दे दी है?' ओह। तो किसे दी है, सुनूँ मैं भी? डाक्टर घोष को दी होगी नोटिस?'

'अरे राम! यह आप क्या कह रही हैं मण्डलदी? हमारे जैसे अदना लोगों को उनके पास जाना अच्छा लगता है भला? वह साहस तो आप जैसे लोगों में है। मैंने अपनी अर्जी बड़ी नर्स बहनजी को दी है।'

तुलसी की निर्भय मूर्ति की तरफ देख मनोरमा मण्डल क्रोध से काँपती हुई बोलीं बड़ी नर्स बहनजी को? इतनी हिम्मत तुम्हारी कि तुम मेरे पीछे से जाकर उन्हें अपनी अर्जी दे आईं। तो तुम्हारी बात सुन उन्होंने क्या किया? मिठाई खिलाई?'

हँसी तुलसी। बोली, 'खिलाई तो नहीं, खिलाने को कहा।' बोलीं, देखना तुलसी, शादी के वक्त हमें भूल मत जाना। बुलाना हमें भी।'

'शादी!'

मिस मनोरमा मण्डल लड़खड़ा गईं। टूटती आवाज में बोलीं, 'शादी? ओह! तो वर कौन है?'

अब निर्झरिणी सी बहने लगी तुलसी की हँसी। हँसते-हँसते दोहरी होती हुई वह बोली, 'आपसे क्या बताऊँ मण्डलदी, यह बात तो अभी मुझे भी नहीं मालूम। आधे-दर्जन एक से एक वर सुबह-शाम घेरे रहते हैं मुझे। अभी तक मैं यही तय नहीं कर पाई हूँ कि उनमें से किसके गले में जयमाला डालूँगी।'

आजकल तुलसी अपने रेल क्वार्टर की भाभी की ननद की ड्यूटी पर तैनात है। तुलसी के कमरे में जाते ही वे बोल पड़ी 'मेरी भाभी ने तुम्हारी इतनी तारीफ की थी तुलसी, और मेरे ही वक्त पर तुम कन्नी काट रही हो!'

उनका बिस्तर झाड़ती हुई तुलसी बोली, 'घबराती क्यों हैं बहनजी? आपको घर भेजने के बाद ही छुट्टी लूँगी मैं यहाँ से।'

'सौ तो करोगी। मैंने सोच रखा था कि घर जाने के बाद भी तुम्हें कुछ दिन 'स्पेशल' रखूँगी, तो वह हो कहाँ पायेगा?''

हाथ जोड़ कर तुलसी बोली, 'यह खतां, तो मुझसे जरूर हुई बहनजी। आप माफ करें मुझे। पर हाँ, यहाँ आप जब तक रहेंगी, आपकी सारी सेवा करूँगी और आपको घर भेज कर ही यहाँ से जाऊँगी।'

'वर कैसा है रे तुलसी?'

'छोटी मुँह बड़ी बात आपके आगे कैसे करूँ बहनजी? पर हाँ, एक कहावत है न कि इस दुनिया में राजे के लिये रानी है तो काने के लिये कानी भी है। बस ऐसा ही समझिये?'

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