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तुलसी

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : गंगा प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :72
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15410
आईएसबीएन :81-8113-018-9

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आशापूर्णा देवी का लेखन उनका निजी संसार नहीं है। वे हमारे आस-पास फैले संसार का विस्तारमात्र हैं। इनके उपन्यास मूलतः नारी केन्द्रित होते हैं...

11

मगर तुलसी को यह लोग जितना निडर, जितना सुरक्षित समझते हैं, क्या वास्तव में तुलसी उतनी निडर, उतनी सुरक्षित है? अकेले हाथों लड़ते-लड़ते थकी नहीं जा रही है वह? रेलवे कालोनी के इस तरफ नई क्वार्टर बन रही हैं। मकानों की अपनी कोई सुन्दरता नहीं, कोई व्यक्तित्व नहीं, जूते रखने वाले रैकों की तरह, एक से, डिब्बों से मकानों की लाइनें। इतने मकान हैं फिर भी पूरा नहीं पड़ता, फिर भी कमी हो जाती है।

पृथ्वी के ऊपर आज तक, जितनी कुमारी भूमि अनाहत अक्षत पड़ी थी अब उस पर फावड़ा-कुल्हाड़ी की चोटें पड़ने लगी हैं। गहरा-गहरा खोद कर मकानों की नींव बन रही हैं। आकाश भेद कर ऊँची-ऊँची महलें खड़ी हो रही हैं। मनुष्य ऐसे मकानों में भी जा कर बस रहे है, जिनकी छतों पर खड़े हो नीचे देखने से चक्कर आने लगता है। दूसरी तरफ जूते के डिब्बे, दियासलाई के डिब्बे, ताश के महलों में भी जा कर बस रहा है मनुष्य।

करे क्या? आश्रय तो चाहिये।

और आश्रय का यह हाल है कि उसे जितना बढ़ाया जा रहा है, वह कभी पूरा ही नहीं पड़ता। मनुष्य नाम का कीड़ा क्षण-क्षण अपनी वंश वृद्धि करता जा रहा है, रक्तबीज भी हार मान रहा है उसके आगे। फलत: ईटों पर ईंट सजाने का भी कोई अन्त नहीं।

सुबह ड्यूटी पर अस्पताल जाते समय, न जाने क्यों? इधर ही से जाने का मन हुआ तुलसी का, जिधर वे नये क्वार्टर बन रहे हैं।

आज तुलसी उदास है। बनते मकानों को देखकर उसे लगा फिर ढेर सारे लोग आयेंगे यहाँ। दुकानें, बाजार, गली, सड़कों की भीड़ नये पुराने के हुजूम से और बढ़ जायेगी।

इस शहर के कितने परिवर्तन देखे तुलसी ने।

जब वह आई थी यहाँ, कितना खुला-खुला था, कितना खाली-खाली पेड़-पौधों की क्या बहार थी तब।

आज जहाँ यह नये मकान बन रहे हैं, जब वह छोटी थी, कितने सारे

बड़े-बड़े पेड़ थे यहाँ उन पेड़ों में न फल थे, न फूल। थी सिर्फ छाया।

सुखेन ने ही उसे इन पेड़ों का पता बताया था। उससे सुखेन ही कहता, 'चलेगी तुलसी पेड़ पर चढ़ने?'

यह उनका एक स्पेशल खेल था। पेड़ की ऊँची डाल पर बैठ पाँव नचाना। तुलसी को स्कूल जाने की मजबूरी न थी, पर उन लड़कों को तो जाना ही पड़ता। रेल कम्पनी की मेहरबानी वाला फ्री-स्कूल। लेकिन वे दुष्ट लड़के महीने में कितने दिन नियम से जाते उस स्कूल में ज्ञान लाभ करने?

तीनों में इतने मेल की वजह क्या है?

एक जगह बहुत मेल था, कारण शायद यही रहा हो। तीनों ही बे-माँ के बच्चे थे। और तुलसी भी शायद इसी कारण उनके दल में खिंची चली आती थी।

अपने सामने पेड़ ईंटों के पहाड़ और बाँसों के मचान देख तुलसी ने बड़ी लम्बी साँस ली। अब कहीं भी जरा सी भी खाली जगह नहीं बचेगी। नहीं रहेगा कहीं भी सूनापन।

फिर हँसी वह। रहेगा। क्यों नही रहेगा? मन का सूनापन तो रह ही जायेगा। वह रह ही नही जायेगी, दिन-पर-दिन बढ़ता चला जायेगा। बाहर जितनी आबादी बढ़ेगी, जितना सूनापन घटेगा। 'सूनापन' उस दमघोंटू परिवेश से उतना ही घबराकर मनुष्य के मन में घर करेगा।

मगर आज मैं इधर आई क्यों? इधर से तो रास्ता बहुत लम्बा हो गया, काम पर पहुँचने के लिये मुझे बहुत चलना पड़ेगा।

अर्धसमाप्त मकानों के ब्लाक को पार कर पुराने ब्लाक के बगल वाली सड़क पर पहुँचते ही किसी एक क्वार्टर की खुली खिड़की से किसी ने पुकारा, अरी तुलसी! आज इतनी देर से कहाँ चली?'

तुलसी को उस पुकार की ओर ध्यान देना ही पड़ा। अपने अनमने पन को दूर फेंकना पड़ा। हँस कर आगे बढ़ कर कहना पड़ा, हाँ भाभी जी आज जरा देर हो गई है मुझे।'

'अच्छा सुनो, तुमसे एक जरूरी बात कहनी थी मुझे।'

कहिये।' फिर तुलसी की आँखों में, सारे चेहरे पर, बिजली चमक गई। मुस्कराकर उसने पूछा, 'क्यों भाभीजी, आप जल्दी ही अस्पताल आ रही हैं क्या?'

'मर मुँहजली, 'भाभी तुनक कर कहती है फिर मरने जाऊँगी मैं भला?'

'मरने नहीं भाभी, जीने।'

'अरे जा। बात यह है कि मेरी ननद ससुराल से आई हुई है। उसे दो-एक दिन में ही तुम्हारे अस्पताल में भेजना पड़ेगा। उस समय हमें तुम्हारी जरूरत होगी।'

'हे राम! कौन-सी डेट है?'

बताना मुशिकल है। जरा काम्पलीकेटेड मामला है।'

'तो फिर?'

यह सब नहीं जानती। तुम्हें रहना ही पड़ेगा। मैंने अपनी ननद को बहुत भरोसा दे रखा है, खांसकर रातों के लिये। और सब जितनी हैं, सभी काम चोर हैं, रात को सो जाती हैं, पेशेन्ट के बुलाने पर जवाब नहीं देती, नींद खराब होने पर गुस्सा होती हैं, फिर दबे स्वर में बोलीं, 'और कोई बंगाली आया है भी तो नहीं।'

'मेरी बदनामी नहीँ सुनी आपने?'

'तुम्हारे नाम पर बदनामी? यह क्या होता है? तुम्हारे नाम तो जिधर सुनो जय ही जय सुनाई पड़ती है।'

तब तो मैं तर ही गई! अच्छा भाभी चलूँ। देखूंगी, आपकी ननद के दिन...'

चली जाती है तुलसी झटपट।

तारीफ सुन साधारणतया मन प्रसन्न होता है। होने की बात ही है। पर तुलसी का मन कडुवा हो गया। इस करणपुर में उसका यही एकमात्र परिचय है। अच्छी आया!

वह प्रसूति की देखभाल ढंग से करती है, रात की ड्यूटी पर सो नहीं जाती है, खुशमिजाज है, अपनी मीठी बातों से ही पेशेन्ट को स्वस्थ कर लेती है। नहीं, यहाँ तुलसी का और कोई परिचय नहीं है।

अस्पताल में तो मुलाकात होनी ही थी। नाटे कद के, छोटे गर्दन वाले व्यक्ति हैं डाक्टर घोष। गर्दन और भी छोटी कर कुड़बुड़ाते हुये वे पाँव पटकते पैसेज पार हो जाते हैं। सिर बीचोबीच से गँजा है, गर्दन की तरफ के बाल घने हैं। गर्दन के बाल सफेद अधिक, काले कम।

डाक्टर घोष बड़े ताव से अस्पताल के रोगियों को देखते हैं, वार्डों के चक्कर लगाते हैं। सभी उनका खौफ खाये रहते हैं। लोगों का कहना है शेर सा डाक्टर है।'

आज उनको कुड़बुड़ाते हुए गर्दन नीची कर जाते देख तुलसी को मजा आता है सोचती है, सेर पर सवा सेर भी है।

क्या विचित्र जीव है मनुष्य!

और, दिन के मनुष्य से रात के मनुष्य का कितना अन्तर है।

राजेन और जग्गू मुँह फुलाये बैठे हैं।

सुखेन सामने है।

तुलसी ऐसा कर रही है!

यह बात तो उनकी सुदूर आशंका में भी नहीं थी। तुलसी बातूनी है, तुलसी बेशर्म है, गप्प मारने के वक्त तुलसी औरत-मर्द का फर्क नहीं मानती, तुलसी बीड़ी-सिगरेट पीती है, सब मान लिया, पर इसके बाद भी, तुलसी पर, इन तीनों का बहुत विश्वास था। उनका प्रेम उस, विश्वास की नींव पर ही खड़ा था। पर कल रात सुखेन अपनी आँखों से जो देख आया है, उसके बाद तो कहने को कुछ रह नहीं जाता। सुखेन ने उन्हें अपनी 'आँखो से देखा' हाल सुनाया। उसने स्वीकार किया कि पिछली रात ईर्ष्या से जलते-जलते वह घर से निकला था। उसके मन में यह पक्का विश्वास था कि वह जाकर देखेगा कि राजेन और जग्गू उतनी रात को भी उसकी कोठरी में बैठे गप्पें मार रहे होंगे।

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