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मंजरी

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : सन्मार्ग प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2001
पृष्ठ :167
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15409
आईएसबीएन :0000000000

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आशापूर्णा देवी का मर्मस्पर्शी उपन्यास....

5

अभिमन्यु इतना निर्बोध नहीं कि पकड़ा जाये अतएव हंसकर बोला, 'काम है बड़े भाईसाहब वरना जाता।"

"काम! हुं! तुम कब से काम के आदमी बन गये? मैं समझ रहा हूं यह है शर्म।! अच्छा रहने दो। ये शर्म भी चली जायेगी। छोटी साली, एक तकिया दे जाओ।"

संवाद घोषित होते देर नहीं लगी।

नई फिल्म के मुहूर्त की खबर और वहां उपस्थित लोगों तथा कलाकारों की ग्रुप फोटो अखबारों में छपी थी। क्योंकि अनुष्ठान की रिर्पोटिंग के लिए कुछ प्रसिद्ध संवादपत्रों के रिर्पोटरों का सादर निमंत्रण देकर बुलाया गया था। और इनके साथ व्यवहार भी भारतीय प्रथा के अनुसार 'अतिथि नारायण' की नीति के मुताबिक। और अंत में भक्ति अर्घ स्वरूप हर एक को दिया गया था एक एक मोटे बड़े संदेश से भरे डिब्बे।

विजयभूषण स्वयं व्यवसाय बुद्धिहीन भले ही हों, उनके हितैषी मित्र जिन्होंने उन्हें एक रुपया को सौ रुपया बनाने के लिए इस मैदान में उतारा था, वह पूर्णतया व्यवसाय बुद्धिसंपन्न हैं। प्रतिपक्ष को शुरू से ही हाथ में रखने का कौशल प्रयोग में ला रहे थे। अतएव ग्रुपफोटो के नीचे सबका नाम परिचय छपा था।

अब जाकर लगा कि नाम बदल लेना उचित था लेकिन सोचकर फायदा? इस बीच तो नाते रिश्तेदार, मित्र सभी जान चुके हैं।

इस संवाद की घोषणा के बाद रिश्तेदार समाज मंजरी के भयावह भविष्य की कल्पना और उसकी आलोचना में कुछ दिनों तक ऐसा डूबे रहे कि लग रहा था इनके पास और कोई काम नहीं है।

अभिमन्यु के दोस्त अभिमन्यु का भविष्य सोचने लगे। वे घर आ-आकर कह गए, "अपने पांव पर अपने आप ही कुल्हाड़ी मार ली? इस वक्त फैशन के खातिर हामी भर बैठे हो, बाद में पछताओगे, यह समझ लो।"

अभिमन्यु प्रतिवाद नहीं करता, सिर्फ हंसता।

दोस्त लोग नाराज होकर कहते, "अभी हंस लो, बाद में देखेंगे। बाद में रोना पड़ेगा, समझे न?"

अभिमन्यु मुस्कराकर ठंडी आवाज में कहता, "तब तुम लोग हंसना।"

दोस्त सवाल पूछते, "यह शौक चर्राया किसे?"

"मुझे।"  

"वाह! खूब।"

अभिमन्यु की दो दीदियां कलकत्ते में रहती हैं दो विदेश में। जो विदेश में रहतीं हैं उन्होंने यहां वाली बहनों से कानाफूसी सुनी थी अब अखबार पढ़कर तुरंत पत्राघात कर बैठीं। उन पत्रों में भाव प्रकट करने का ढंग अलग होने पर भी बात वही थी। दोनों ने घुमा-फिराकर यही बात समझाई थी कि अभिमन्यु बिल्कुल पागल है, उन्माद है, पढ़ा-लिखा मूर्ख है, अपरिणामदर्शी है, वगैरह-वगैरह। जो दीदियां कलकत्ते में रहती हैं, वे स्वयं आ धमकीं।

बड़ी दीदी ने चेहरा लाल करके कहा, "तूने सोचा क्या है? हम लोग क्या मर गए हैं?"

अभिमन्यु का अटल हंसता चेहरा, "सर्वनाश! खामखाह ऐसी अशुभ बात सोचूंगा क्यों?''

"चुप रह! हर तरह से वंश का मुंह डुबो दिया तूने।" कहना न होगा, इस वाक्य में अभिमन्यु के प्रेम परिणय के प्रति भी व्यंगोक्ति थी।

अभिमन्यु बोला, "तुम छः-छ: जने मिलकर उस डूबे मुंह को खींचकर नहीं निकाल सकोगी?"

"किसे समझाना? तुझ जैसे उन्माद पागल और बेहया को कुछ कहना ही बेकार है। लेकिन हमारे लिए तो ससुराल में मुंह दिखाना मुश्किल हो गया है। छोटे देवर ने जब अखबार खोलकर, घर सिर पर उठाकर चिल्लाते हुए कहा,  "भाभी देखो, तुम्हारी छोटी भौजाई की अखबार में तस्वीर निकली है तब मेरा तो सिर ही कट गया। छि:-छि:।" हंसकर अभिमन्यु बोला, "शादी के बाद जब बहू ने एम.ए. पढ़ना चाहा था तब भी तो तुम लोगों का शर्म से सिर कट गया था बड़ी दीदी।"

"इसीलिए शायद इस अपूर्व गौरवपूर्ण काम के वक्त तूने किसी से परामर्श करने तक की जरूरत नहीं समझी।"

"बिल्कुल ठीक।"

छोटी दीदी सीधे छोटी भौजाई के पास जा धमकी।

बोलीं, "यह सब यहां नहीं चलेगा। मेरे पिता के वंश के सुनाम को कलंकित करने का तुम्हें कोई हक नहीं।"

मंजरी हमेशा से इन लोगों के आगे सिर झुकाए, कम बोलने वाली वधू के रूप में रही है। शादी के वक्त काफी व्यंगवाण, तिरछी बातें सुनकर सहन किया था उसने। अपराध था कि अभिमन्यु ने उसे चाहा था, उससे शादी की थी। चुपचाप वह सब सह गई थी मंजरी। क्योंकि अभिमन्यु ने उसे पहले से इन बातों के लिए प्रस्तुत कर रखा था। इस वक्त भी वह कुछ न बोली।

केवल शांत शाव से बोली, "एक तुच्छ सी बात को इतना बड़ा क्यों समझ रही हैं छोटी दीदी?"

"तुच्छ? हां तुम्हारे लिए तो तुच्छ ही है। मेरे पिता की वंशमर्यादा का मर्म तुम क्या समझोगी? स्टेज पर नाच गाकर, शरीर प्रदर्शन करके वाहवाही लूटी जा सकती है छोटी बहू लेकिन सम्मान नहीं मिलता है।"

मंजरी के होंठ थरथराने लगे। कुछ कहना चाहा पर न कह सकी चेहरा काला पड़ गया।

अभिमन्यु उस तरफ आरामकुर्सी पर लेटा था।

उसके काले पड़े चेहरे को देखकर अभिमन्यु को बड़ी दया आई। चुप न रह सका। बोला, "कुछ ज्यादती नहीं हो रही है छोटी दीदी?"

"ज्यादती?"

छोटी दीदी नाक सिकोड़कर बोलीं, "सो तो है। ज्यादती तो हम ही कर रहे हैं। मैं पूछती हूं तेरी कमाई से क्या घर का खर्च नहीं चल रहा है? ये कह रहे थे अभिमन्यु से कहना वह अगर नौकरी करना चाहता है तो मेरे दफ्तर में काम दिला दूंगा। मोटी तनख्वाह दूंगा।"

अभिमन्यु मुस्कराकर बोला, "ओ, ऐसा कहो। तुम्हारे 'वह'। सो...उन्होंने जब कहा है तब एक बार सोचकर देखना तो चाहिए।"

छोटी दीदी को 'उन' को लेकर चिढ़ाने में अभिमन्यु को मजा आता है। गुस्सा होकर छोटी दीदी मातृदरबार में चली गईं।

वहां बहुत बातें हुईं, बहुत गिला शिकवा हुआ। आखिर में देखा गया, मां बिना कुछ कहे छोटी बेटी के साथ चली जा रही हैं।

अभिमन्यु ने जाकर मां की चादर का कोना पकड़ा।

"मां, ये क्या पागलपन है?''

मां बोलीं, "पागल हूं तभी तो तुम जैसे बुद्धिमानो के साथ रहना संभव नहीं हो रहा है बेटा। छोड़ मुझे।"

अभिमन्यु दृढ़स्वर में बोला, "ठीक है, मुझे त्याग रही हो तो अपने दूसरे बेटों के पास जाओ। दामाद के घर जाकर रहना ठीक नहीं है।"

छोटी दीदी फुफकार उठीं, "ओ:। इस बात के लिए बात को शर्म महसूस हो रही है-है न?"

"सो तो हो रही है।"

"क्यों हम क्या मां की संतान नहीं?"

पूर्णिमा ने बाधा देते हुए कहा, 'तर्क करना बेकार है इंदू। मेरा किसी के घर जाकर रहने का मंत्र नहीं है। तू घर जा। मैं खड़दा में जाकर रहूंगी।" खड़दा पूर्णिमा के गुरू का घर है।

यूं तो खड़दा नहीं गईं पूर्णिमा, लेकिन घर में इस तरह रहने लगीं जैसे इनसे उनका कोई संपर्क नहीं।

उधर शूटिंग शुरू हो गयी।

अभिमन्यु का अजीब हाल था।

मेरी पत्नी स्वेच्छाचारिणी है, उस पर मेरा कोई कंट्रोल नहीं, यह बात स्वीकार कैसे करे? इसीलिए सबकी डांडफटकार, सबकी गालियां हजम करके नीलकंठ बन गया है वह। लोगों को दिखाना पड़ रहा था कि उसके अपने शौक के कारण ही यह घटना घटी है।

और उस हंसी मजाक के बाद ही मंजरी पर अपनी खीज प्रकट करने में शर्म सी लगी। बल्कि कभी-कभी कहना पड़ जाता, "बाप रे, लोग ऐसा कर रहे हें। इसी को कहते हैं तिल का ताड़ करना।"

मंजरी चुप रहती।

क्योंकि उसकी मां उसके भाई घर आकर काफी डांट सुना गए थे। फिर भी फिल्म बन रही थी।

लोकलाज सिर्फ एकतरफा नहीं होता है।

इतना आगे बढ़कर पीछे हटना मृत्युतुल्य है।

"मेरी पत्नी अबाध्य है" पति के लिए इसे स्वीकारना जितना अपमानजनक है, लड़कियों के लिए भी उतना ही अपमान कर है। यह स्वीकारना ही पति ही मेरी गतिविधि का मालिक है।

अतएव दांपत्य जीवन में मनोमालिन्य की मलिनता, गृहस्थी पर अशांति का जहरीली हवा बहे...बाहरी दुनिया का सुख बना रहे।

बाहरी लोग समझें मैं उदार हूं।

बाहरी लोग जानें कि मैं स्वाधीन हूं।

मंजरी के मायके के दूर के रिश्तेदारों और परिचितों का इस मामले से कोई सीधा संबंध नहीं। न उनकी मानहानि हो रही थी न उन्हें शर्म आ रही थी। इसीलिए वे लोग कौतूहल भरे प्रश्न पूछकर स्टूडियो और शूटिंग संबंधी ज्ञान संचय कर रहे थे और हंस-हंसकर कह रहे थे, "धन्य है लड़की! तूने सबको चौंका दिया।" हालांकि इधर के पक्ष में भी दो चार समर्थक हैं। जैसे कि अभिमन्यु की दोनों भाभियां।

एक रहती हैं थियेटर रोड, दूसरी सेंट्रल एवेन्यू लेकिन अचानक दोनों का मिलन हुआ। दोनों एक दिन एक की मोटर पर चढ़कर आई पुराने घर में। विजया दशमी के बाद सुविधानुसार एक दिन आकर सास को प्रणाम कर जाने के बाद शायद ही कभी इस घर में पर्दापण करतीं हैं। हालांकि जब आतीं हैं तब विनम्रता में कोई कमी नहीं करती हैं।

आकर वे दोनों अभिमन्यु के कमरे में जमकर बैठीं।

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