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मंजरी

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : सन्मार्ग प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2001
पृष्ठ :167
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15409
आईएसबीएन :0000000000

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आशापूर्णा देवी का मर्मस्पर्शी उपन्यास....

12

मिनट भर चुपचाप खड़े रहने के बाद अभिमन्यु ऊपर आया। देखा नर्स रोगिणी के चेहरे पर झुककर कुछ कह रही है। जरा आग्रह प्रकट करते हुए अभिमन्यु ने दबी आवाज में पूछा, "वह क्या बात कर रही हैं मिसेज दास?"

"हां, थोड़ी देर पहले पानी मांगा था और पूछ रही थीं कि आप कहां हैं?"

पूरे तीन दिन तक मंजरी ने बात नहीं की। होश आने पर भी अजीब सी सुस्ती में डूबी सोती रहती थी।

अभिमन्यु के खाट के पास जाते ही मिसेज दास ने हुक्मनामा जारी किया, "बात करने की कोशिश मत कीजिएगा, इससे नुकसान होने की संभावना है। उन्हें चुपचाप लेटी रहने दीजिए।"

"बात नहीं करूंगा" कहकर अभिमन्यु ने पास जाकर मंजरी के हाथ पर हाथ रखा। धूप ने झुलसे रजनीगंधा के डंठल की तरह शिथिल पड़ा था मंजरी का हाथ बिस्तर पर।

मंजरी ने आँखें खोलीं-कुछ देर तक देखती रही सूनी-सूनी निगाहों से, उसके बाद उस दृष्टि में भाषा स्पष्ट हुई। बहुत दिनों की अनबोली बातें, पुंजीभूत अभिमान और एक अनजाना अनकहा भय-तरह-तरह के प्रश्न भार।

फिर बंद हो गयी पलकें... धीरे-धीरे समय लेते हुये। और उसकी बंद पलकों के किनारों से दो बड़ी-बड़ी बूंदें चू पड़ी।

"मिस्टर लाहिड़ी, कृपा कर आप बगल वाले कमरे में जाएं। देख रहे हैं न, पेशेंट अपसेट हो रही हैं।"

नर्स मिसेज दास ने विनयपूर्वक कहा।

गांव की लड़की, अभाववश किसी तरह से नर्सिंग सीखकर जीविका अर्जन कर रही है इसीलिए अपनी सीखी हुई विद्या पर उसे अटूट विश्वास है। वह जानती है रोगी को डिस्टर्व नहीं करना चाहिए और यह भी जानती है कि सबसे ज्यादा डिस्टर्व करते हैं रोगी के नाते रिश्तेदार, सगे संबंधी। अतएव यथासंभव उन्हें कमरे से निकाल देना ही ठीक होता है। इसके अलावा छोटा होकर बड़े पर, श्रमिक का मालिक पर और अनभिज्ञ का भिज्ञ पर हुक्म चलाना यदाकदा ही संभव होता है-भला ऐसा मौका हाथों में पाकर कोई छोड़ता है?

अभिमन्यु लज्जित होकर हटते हुए बोला, "अच्छा, मैं बगल वाले कमरे में ही रहूंगा, जरूरत समझें तो बुलाइएगा। लेकिन वह मुझे पूछ क्यों रही थीं?"  

"वह कुछ नहीं मिस्टर लाहिड़ी। सेंस वापस लौटते ही आपको खोजना तो स्वाभाविक ही है।"

"तब तो मुझे इस कमरे में रहना चाहिए मिसेज दास। फिर अगर ढूंढ़े?"

"नहीं नहीं, माफ कीजियेगा। जरूरत समझने पर मैं स्वयं ही बुलाऊंगी। देखा तो आपने कि आपको देखकर कैसी हो गईं थीं।" कर्त्तव्य पालन के गौरव में गौरवान्विता मिसेज दास रोगिणी के सिरहाने जमकर बैठीं।

अभिमन्यु धीरे-धीरे कमरे से बाहर चला गया। बगल वाले कमरे में जाकर वह आरामकुर्सी पर लेट गया। सहसा उसके मन में दुःखों का सागर उमड़ने लगा।

कैसा निष्ठुर हो गया है वह?

कैसी हृदयहीनता?

मंजू! मंजू! उसकी प्यारी मंजरी, अभिमानिनी मंजरी, कितना कष्ट दिया है उसे इतने दिनों से? अभिमानवश ही भीतर ही भीतर घुलती चली गयी मंजरी हां-यही बात है। डाक्टर घोष ने कहा है, "कमजोरी भी इसकी एक वजह है। इन दिनों कितनी कमजोर हो गयी थी बेचारी और अभिमन्यु ने उस पर ध्यान न देकर उसके अपराध को ही जांचा।

अगर मंजरी मर गयी?

जिन बातों को आदमी मुंह से कहते हुए डरता है, उन्हीं बातों को मन-ही-मन निःशब्द उच्चारित करता रहता है... उस पर किसी का कोई वश नहीं। इसीलिए हृदय के बीच लगातार ध्वनित होता रहा, मंजरी अगर मर गयी, मंजरी अगर मर जाए, मंजरी जिंदा न रही तो? तब फिर वह अपने आपको कभी माफ न कर सकेगा।

शर्म से किसी को मुंह दिखा सकेगा भला?

अभिमन्यु मर्द हैं, मजबूत हृदय वाले अभिमन्यु समस्त मानमर्यादा को भूल गए। उनकी आंख से बड़ी-बड़ी बूंदें चू पड़ी जैसी झर रही थीं बगल वाले कमरे में लेटी मंजरी की बंद आखों से।

दोनों का दुःख भिन्न था।

एक के मन में अभिमान और आशाभंग का दुःख, दूसरे को दुःख था अपराधबोध का और अपेक्षा का। परंतु अश्रुजल का रूप एक ही था। प्रेम का क्या अंत होता है?

या कि सिर्फ अभिमान और गलत समझने का कोहरा ऐसा छाया रहता है कि प्रेम मृत जान पड़ता है?

लड़के के हावभाव देखकर पूर्णिमादेवी धीरे-धीरे हताश हुई जा रही थी। ये कैसा बेटा तैयार किया है उन्होंने? मर्द है या मिट्टी का ढेला? लापरवाह बहू किसी तरह का नियम कानून न मानकर मनमानी कर रही है, ऐसी एक दुर्घटना का शिकार हो बैठी और उनका बेटा है कि उसी बहू के लिए पागल हुआ फिर रहा है? न नहाने का होश, न खाने की सुध, कॉलेज तक नहीं जा रहा है... सिर्फ बहू के कमरे के आसपास चक्कर काट रहा है। पुराना जमाना और वैसा कड़ा मर्द होता तो ऐसी बीवी को शायद ही दोबारा स्वीकार करता।

पूर्णिमा की इस क्रोधाग्नि में ईंधन का काम करती उनकी बड़ी बेटी। जो बात पूर्णिमा सोच रही थीं उसे वह जोर शोर से कह रही थी।

"अच्छी भली, स्वस्थ बीवी, सजधजकर घर से निकली और कुछ ही घंटे बाद घूम-फिरकर लौटते न लौटते यह बात हो गयी? इसका मतलब क्या हुआ? तुम लोग अगर आंख के रहते अंधे बने रहो तो रहा करो लेकिन लोग तो अंधे नहीं हो जायेंगे।"

शायद पूर्णिमा इस तरह की आवाज में कहना पसंद नहीं कर रही थीं या बड़ी बेटी की बात का प्रतिवाद करने का साहस न कर सकीं इसीलिए जल्दी से बोलीं, "क्या पता बेटी, क्या कर रही थी वहां। शायद नाचने-वाचने का कहा होगा।"

"हुं, नाच नहीं नाच नचाना। कितनी तरह के नाच हैं मां उनकी क्या कोई गिनती है? कहना ये है कि तुम्हारी प्यारी छोटी बहू के कारण ही हमारा मायके आना बंद हो जायेगा। इसके बाद क्या मुंह लेकर आना चाहूंगी? छोटी बहू के इस मामले पर कौन नहीं शक करेगा?"

स्पष्ट स्वच्छ राय दे बैठी बड़ी बेटी।

इस बात का प्रतिवाद कैसे करतीं?

घुमा-फिराकर प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से सभी एक ही इशारा करते। एक जीव दुनिया का प्रकाश देखे वगैर ही अंधकार में डूब गया उसके लिए संपूर्ण रूप से उत्तरदायी है मंजरी।

कौन जाने ये दुर्घटना स्वेच्छाकृत है या नहीं।

"कितनी तरह की छलकलाएं निकलीं हैं आजकल। अपना यह नाच नचाना बंद हो जाने के डर से ही शायद... ''

अभिमन्यु को सुना-सुनाकर ही कहा जाता-जिससे कि उसके कानों में बात घुसे। कोई अब अभिमन्यु की बात नहीं सोच रहा था।

उसकी मर्यादाहानि स्वयं मंजरी ने ही की थी।

मझली भाभी आकर घंटा दो घंटा बैठतीं और लगातार अफसोस करती रहतीं, "हाय हाय! कितनी आशाओं के साथ चांदी की सुतुई कटोरी बनवाने दी थी, इरादा था छोटे देवरजी के बेटे का इसी से मुंह देखूंगी, कथरी बना रही थी फूलपत्तीदार, लेकिन सब कुछ मटियामेट हो गया।"

"बिलावजह ऐसा कहीं हो सकता है? मैं स्टैम्प कागज में साइन करती हूं इसमें जरूर कोई राज है।"

मां के कमरे में जाते वक्त ठिठककर खड़ा हो गया अभिमन्यु। कितनी स्वच्छंदता से, कैसी भयानक बातें कर रही हैं ये लोग?

क्या इनका सोचना सही है?

औरतें ही औरतों को ठीक-ठीक पहचानती हैं।

धूप से पिघला मोम धूप के जाते ही कड़ा हो जाता है। इसी तरह ममता से पिघला हृदय संदेह के गंदे स्पर्श से सूखकर फड़फड़ाने लगता है।

वे लोग अभिज्ञ हैं, पुराने लोग हैं, समझदार हैं, ये लोग दुनिया को ठीक से पहचानते हैं।

इनकी बातों पर विश्वास न करे तो क्या करे अभिमन्यु?

कुछ दिनों पहले नर्स एक शत्रु जान पड़ती थी।

सोचता था जिस दिन वह विदा होगी उसी दिन दौड़ा-दौड़ा जायेगा मंजरी के पास। एकांत में निकटता का अवसर पाते ही क्षमा प्रार्थना करके अपने हृदय को खोलकर रख देगा। कहेगा, "मंजू मैं पागल हूं पशु हूं मैं नीच हूं मुझे क्षमा करो।"

अकेले कमरे में बार-बार उच्चारण करता, "मंजू तुम ठीक हो जाओ तुम क्षमा कर दो। क्षमा करो।"

लेकिन जब नर्स के विदा होने का वक्त आया तब वह भावुक विचार मर चुके थे। तराजू के एक पलड़े पर अन्याय, अपराध दुःसाहस जैसे बाट चढ़ाते-चढ़ाते दूसरा पलड़ा जो अपना था हल्का हो गया था।

शंकापूर्ण रात्री जागरण, मृत्युभय सब खत्म हो चुका था। अब क्षमा प्रार्थना की चिंता हास्यकर लग रही थी।

अचेतन नहीं, बेहोश भी नहीं केवल असीमित क्लांति भार-थकावट। दोनों आंखों पर वही थकावट मानो चढ़ बैठी थी।

बंद पलकों के नीचे अद्भूत खुमारी की अनुभूति।

कमरे में इतने लोग क्यों?

धीरे-धीरे दबी आवाज में बोल रहे थे, दबे पांव कमरे में चल रहे हैं... कितने लोगों के पैरों की आवाज सांस की आवाज।

मंजरी कहां है?

कमरे में या बाहर? कार में? निशीथ राय की कार में? या कि स्ट्रडियो में? क्या हुआ है उसे? बीमार है? क्या बीमारी है? कुछ क्षण पहले एक अजीब सी तकलीफ हो रही थी न? वह तकलीफ सारे शरीर को मरोड़कर उसे डर और आतंक के राज्य में पहुंचाये दे रही थी।

अब तो वह तकलीफ नहीं हो रही है।

अब तो सिर्फ नींद।

कोमल, गहन निथर राज्य में डूबते जाना।

इस वक्त क्या है? रात?

हां, ऐसी हल्की नीली रोशनी रात को ही जलती है।

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